प्रतिशोध 

01-11-2025

प्रतिशोध 

बृज गोयल (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

बीस साल गुज़र गए हैं, लेकिन फिर भी लगता है जैसे आज भी रूपा का भयानक चेहरा कह रहा है—देव, तुमने मुझे कभी सुख नहीं दिया। हमेशा तड़पाया है। याद रखना मरने से पहले मैं तुम्हें एक ऐसा रहस्य बताऊँगी, जिसे सुनकर तुम जीते जी चैन नहीं पाओगे। 

पूरा साल बीत गया। मैं बिस्तर पर पड़ा हूँ, कोई पानी देने वाला भी नहीं है। ऐसे में मुझे रूपा की बार-बार याद आती है। आज वह ज़िन्दा होती तो मेरा सहारा बनती, पर मैंने ही तो मजबूर किया था उसे घुट-घुटकर मरने को। शराब के नशे में उसे पीटता था। कितने ज़ुल्म करता था उस पर। आज उसकी स्मृति ही मेरी आंतरिक पीड़ा को बढ़ाती है। रूपा मेरी पत्नी थी, पर मैंने उसे कभी पत्नी का अधिकार नहीं दिया। इसका कारण था रूपा अपने नाम के बिल्कुल विपरीत थी। उसे साधारण कहना भी उचित नहीं था। वह बदसूरत थी, उसको देखकर मुझे बड़ी वितृष्णा होती थी। न जाने उसका नाम रूपा क्यों रख दिया था? रूपा सुन्दर तो नहीं थी, पर उसने अपने कुशल व्यवहार से सबको अपना बना लिया था। रूपा धनी परिवार से आयी थी। धन के ढेर में उसकी बदसूरती छिप जाएगी, शायद पापा ने शादी करते समय यही सोचा होगा, लेकिन मैं एक पल को नहीं भूला कि रूपा बदसूरत है। मुझे उसके घर की धन-दौलत से कुछ लेना देना नहीं था। 

बस पहले ही दिन से मैंने रूपा को सताना शुरू कर दिया। कभी उससे बात नहीं करता था। वह स्वयं कुछ पूछती तो भी सीधे जवाब नहीं देता। यह सब मैं उससे अपनी जान छुड़ाने के लिए करता ताकि वह तंग आ कर वापस घर चली जाए। वह चुपचाप सब सहती रही। मैं शराब के नशे में रात को देर से घर आता। घर में खाना नहीं खाता। अपने कमरे के अलावा और कहीं नहीं बैठता था। वह मुझे देखते ही मेरे पास आती, मेरे हर आदेश का पालन करती, मेरे कपड़े, जूते उठा कर रखती, चाय बनाकर लाती। पैर दबाती, मैं उसे ज़र ख़रीद ग़ुलाम की नज़र से देखता, वह अचल शिला सी कभी कोई शिकायत नहीं करती थी। वह हर जुर्म को शान्ति से बरदाश्त करती और मैं उसके धैर्य के टूटने की प्रतीक्षा करता रहता। 

विवाह को चार साल बीत गए। और मैंने उसे पल भर की भी निकटता नहीं दी थी। अब तक तो सह गई पर अब उसे सूनी गोद सताने लगी थी। वह रात-रात जागती रहती थी, उसकी सिसकी में अक्सर सुनता था, पर मैंने कभी रोने का कारण नहीं पूछा। एक रात अचानक रूपा को अपने पैरों में पड़ी देखा तो क्रोध से भड़क गया और आने का कारण पूछा। वह रोने लगी। मुझे और भी ग़ुस्सा आया। मैंने उसे नीचे धकेल दिया। वह ज़मीन पर पड़ी सिसकती रही, पर मेरा अहम समाप्त नहीं हुआ। मैंने उसे कमरे से बाहर घसीट दिया। तब वह सुबकते हुए बोली, “तुम मुझे सज़ा क्यों दे रहे हो? मेरा गुनाह तो बताओ, जो मैं तुम्हारे सामीप्य से इतनी दूर हूँ।” 

अगले दिन से रूपा निढाल उदास हो गई और बीमार-सी दिखने लगी। लेकिन वह रोज़ रात को डायरी ज़रूर लिखती थी। मैंने उसकी डायरी पढ़नी चाही, पर मेरे हाथ नहीं लगी। उन्हीं दिनों मैं भी रोग ग्रस्त हो गया, तो रूपा ने अपनी परवाह किए बिना मेरी अथक सेवा की। कभी सिर दबाती, कभी दवा पिलाती। रात-रात भर वह मेरे पैर दबाते, गुज़ार देती थी। मैं सब देखता महसूस करता पर अपने अहंकार को नहीं जीत पाया था, जो पुरुषार्थ बना हर समय मुझ पर छाया रहता था लेकिन जीत रूपा की हुई। सेवा जीत गयी। अहंकार हार गया। 
शायद नींद में अनजाने ही मैंने उसे पैरों से उठाकर आग़ोश में समेट लिया था। जब मैं ठीक हो गया तो डॉक्टर ने कहा—देव, मैंने तो सिर्फ़ तुम्हें दवा दी थी, पर ठीक तुम रूपा की सेवा से हुए हो। तब मैंने देखा, डॉक्टर की बात सुनकर रूपा मुस्कुरा रही थी। रूपा को सेवा का बहुत मीठा फल मिला। कुछ समय बाद उसने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया। वह माँ बन गई थी और मेरे दिल में भी बाप का दिल सागर-सा हिलोरें मारने लगा था। विधि की कैसी विडंबना थी, जिस रूपा से मैं नफ़रत करता था, उसी की कोख से जन्मे बच्चे के प्रति मेरे मन में अथाह प्यार उमड़ रहा था। मैं इसलिए भी ज़्यादा ख़ुश था कि वह रूपा पर नहीं था। मैं रूपा के सामने उसे कभी नहीं खिलाता था, उसकी निगाह बचाकर ही उसे लेता था। अगर खिलाते समय रूपा देख ले, तो मैं ऐसे काला पड़ जाता जैसे मैं चोरी करते पकड़ा गया हूँ। 

जब से रूपा माँ बनी, वह कमज़ोर-सी हो गई थी लेकिन मैंने कभी उसकी बीमारी क्या है, जानने की ज़रूरत नहीं समझी। न ही दवा या डॉक्टर का प्रबंध किया। नादान भोला साहिल जब कुछ बड़ा हुआ तो माँ के प्रति मेरा रवैया देखकर सहम जाता। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता गया, उसका प्यार मेरे प्रति कम होता गया। वह अपनी माँ को बहुत प्यार करता था। 

रूपा हमेशा के लिए रोगी हो गई थी। साहिल स्कूल जाने लगा था। वह सारा समय रूपा के पास ही रहता। मेरे पास अब बिलकुल नहीं आता था। मैं बहुत हैरान था। मैं उससे कुछ कहता तो भी वह मेरी बात पर ध्यान नहीं देता था। मैंने जो अत्याचार रूपा पर किये थे, वह शायद उन सब का बदला ले रहा था। उसकी दुनिया उसका प्यार सिर्फ़ रूपा तक ही सीमित था। अपने बेटे का अमूल्य प्यार पाकर रूपा को जैसे दुनिया की सारी ख़ुशी मिल गयी थी। मैं उस ख़ुशी की सिर्फ़ कल्पना ही कर सकता था। 

मुझे वह दिन याद आ रहा है। जब रूपा ने मुझे श्राप-सा दिया था। उस रात मैं सो नहीं सका था। रूपा मुझे कौन-सा रहस्य बताएगी? मुझे रूपा से डर लगने लगा था कि तभी साहिल की चीख़ सुनाई दी। मैं वहाँ दौड़कर गया, देखा ज़मीन पर पड़ी रूपा को वह उठा रहा है। मैंने उसे सहारा देना चाहा पर साहिल बोला—रहने दीजिए पापा, माँ मुझे भारी नहीं लगेगी। साहिल के शब्द सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। 

साहिल की आँखों में मेरे प्रति घृणा और तिरस्कार के भाव थे। जैसे वह कह रहा हो, मेरी बदसूरत माँ मुझ पर बोझ नहीं है। उसने रूपा को पलंग पर लिटा दिया और होश में लाने का उपचार करने लगा। मैं अपराधी बना खड़ा रहा। कुछ देर बाद रूपा को होश आया तो मुझ पर नज़र पड़ी। लड़खड़ाती आवाज़ में बोली, “देव . . . साहिल . . . तुम्हारा . . . बेटा . . . नहीं . . .है।” 

फिर उसने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। साहिल माँ पर गिरकर बिलख पड़ा, “माँ मुझे किसके सहारे छोड़ जाती हो।” लेकिन रूपा की आत्मा आकाश में विलीन हो चुकी थी हमें रोता छोड़कर। तभी साहिल के शब्द पिघले शीशे की तरह कान में पड़े। “आप क्यों रो रहे हैं पापा? आपने तो जी भरकर माँ पर अत्याचार किए और घुट घुटकर मरने पर मजबूर किया है।”

आगे मैं सुन नहीं सका और उठकर भागा कि पैर फिसल गया, हड्डी टूट गयी। रूपा की अर्थी को कंधा देकर अंतिम विदाई भी न दे सका। शायद सदैव की भाँति, अंत में भी रूपा को मेरे सहयोग से वंचित रहना था। रूपा चली गयी अपने बेटे का असीम प्यार समेट। मैं रह गया, उसकी घृणा का पात्र बना। साहिल के लिये मैं बेगाना था। वह वीरान सा घंटों माँ के सूने पलंग पर बैठा रहता था। 

मैं कभी उसे समझाने का प्रयास करता, तभी मेरे मस्तिष्क में धमाका होता था—देव साहिल तुम्हारा बेटा नहीं है।

मैं पागलों की तरह मुट्ठी भींच लेता और साहिल को ध्यान से देखता—उस अज्ञात प्रतिबंध को खोजता, जो उसका जन्म दाता हो पर असमर्थ रहता। मैंने मन में धारणा बना ली थी कि साहिल मेरा बेटा नहीं है। मैं उस डॉक्टर से साहिल की सीरत मिलाने का यत्न करता, लेकिन सूरत में तो वह मुझ पर गया था। 

रूपा को गए पाँच साल बीत गए थे, साहिल बी.ए. पास कर चुका था, मुझे पक्षाघात की बीमारी हो गयी थी। साहिल उखड़ा-उखड़ा सा मेरी देखभाल कर रहा था। मैं भी मन के अंतर्द्वंद्वों में फँसा और उसको पराया ख़ून समझकर पूरा प्यार नहीं दे पाता था। एक दिन वह जाने कहाँ चला गया और चार शब्द लिखकर रख गया—‘पापा मैं जा रहा हूँ। माँ के बिना यह घर जेल सा प्रतीत होता है फिर आपका प्यार अधूरा है, जो मुझे बाँध नहीं पाया। माँ के बिना मैं बहुत अकेला हूँ। मुझे क्षमा कर देना।’

पत्र पढ़कर मेरी आँखों में अँधेरा छा गया। रूपा का श्राप सच हो रहा था। मैं खिसक-खिसक कर साहिल के कमरे में गया ताकि उसका कुछ पता ठिकाना मिल जाये कि वह कहाँ जा सकता है पर कोई सुराग़ नहीं मिला। हाँ, रूपा की डायरी ज़रूर मिल गई, जिसे लाख प्रयत्न करने पर भी मैं नहीं पा सका था। मैंने उसे पढ़ा। 

वह बेजान डायरी मेरे अत्याचारों की कहानी दोहरा रही थी। और वह तारीख़ रूपा के मरने से एक दिन पहले की थी, जब उसने मुझे श्राप दिया था। लिखा था, देव को एक रहस्य बताने का वादा किया है जबकि रहस्य कुछ भी नहीं है। बस उसे तड़पाना चाहती हूँ, बेचैन करना चाहती हूँ, कसक और घुटन का अहसास दिलाना चाहती हूँ, बस कह दूँगी—‘साहिल तुम्हारा बेटा नहीं है!’

यह पढ़ते ही मैं काँप गया . . . मेरा सिर चकरा गया। डायरी मेरे हाथ से गिर गई। हाय इतना भयंकर प्रतिशोध! तनिक-सा झूठ बोलकर रूपा ने मुझे वर्षों की घुटन और पीड़ा दे दी। मुझे शक के अँधेरे में धकेल दिया। जीवन भर का बदला एक पल में ले लिया। मेरे अंदर भयंकर तूफ़ान उठा। मैं बेजान लाश बन गया। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। रूपा मुझे सँभालो। मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। मुझे क्षमा कर दो। मैं आ रहा हूँ . . . रूपा . . . रूपा . . . रूपा . . .

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