पीड़ा की परतें
हेमेश सिंह
शाम का सुहाना मौसम है। धीरे-धीरे समीर प्रवाहित हो रही है। किन्तु प्रह्लाद का मन और मस्तिष्क जाने किस दुनिया में डूबा हुआ है। वह सामने के पेड़ पर लगे चिड़िया के उस घोंसले को लगातार देखे जा रहा है जिसे कुछ सप्ताह पहले ही चिड़ा और चिड़िया दोनों ने बड़ी मेहनत से बनाया था। कुछ दिन बाद ही उसमें चिड़िया ने दो अण्डे दिए थे। अंडों को सेने में चिड़िया ने अपना खाना-पीना भी भुला दिया था। अंडों से दो ख़ूबसूरत से बच्चों को देखकर चिड़िया और चिड़ा ख़ुशी से फूले नहीं समाए थे।
प्रह्लाद को लगा कि चिड़िया और चिड़ा जैसी ही ख़ुशी का अनुभव उसने भी किया था जब लगभग 22 साल पहले अचानक घटी एक घटना उसके जीवन में जुड़ गई थी। मथुरा रेलवे स्टेशन के प्लैटफ़ॉर्म नंबर एक पर एक छोटी-सी बच्ची एक हाथ में कण्डिया लिए खड़ी थी। उसके दूसरे हाथ में एक चिट्ठी थी। शायद किसी अपने के आने का इन्तज़ार करते-करते उसकी आँखें पथराने लगी थीं। कुछ लोग उसकी ओर देख भी रहे थे लेकिन किसी ने उस बच्ची से कुछ भी जानने की कोशिश नहीं की। यदि कोशिश करते भी तो क्या, वो कुछ बोलना भी नहीं जानती थी। मुश्किल से दो या ढाई साल की उस बच्ची को इंतज़ार करते-करते दिन छिप गया लेकिन उसको लेने कोई नहीं आया। ड्यूटी पर तैनात आर पी एफ़ का एक सिपाही जो सुबह से ही बच्ची को देख रहा था उसने बच्ची के पास जाकर उसके हाथ से चिट्ठी लेकर पढ़ी तो उसमें लिखा था कि इस बच्ची का दुनिया में कोई नहीं है यदि इसको कोई अपने घर ले जाना चाहे तो ले जा सकता है।
चिट्ठी पढ़ने के बाद सिपाही उसको अपने साथ आर पी एफ़ के दफ़्तर में ले आया। बच्ची ठीक से अपना नाम तक बोलना नहीं जानती थी। टूटे-फूटे शब्दों में केवल इतना बोल पा रही थी कि मम्मी केले लेने गई हैं। उसे क्या पता था कि केले लेने की कहकर जाने कौन-सी मजबूरी में उसकी माँ उसको हमेशा के लिए छोड़कर चली गई है। बच्ची किसी ग़रीब मज़दूर की बेटी लग रही थी क्योंकि उसके तन पर एक फटी पुरानी सी फ़्रॉक थी। पैरों में चप्पल तक नहीं थी। कड़ाके की सर्दी के कारण बच्ची काँप रही थी। पुलिस चौकी में एक दूध वाला दूध देने आया करता था। उसके कोई बेटी नहीं थी सिर्फ़ बेटे ही थे। दूध वाले ने उसको अपने साथ ले जाने की इच्छा पुलिस वालों के सामने ज़ाहिर की तो उन्होंने उस बच्ची को दूध वाले को सौंप दिया। वह उसको अपने घर ले गया।
दूध वाला ज़िला मथुरा के गाँव सिहोरा का रहने वाला था। वह अपने घर उस बच्ची को ले तो गया लेकिन उसके परिवार ने उस बच्ची को स्वीकार नहीं किया। उस अबोध नन्ही-सी बच्ची को तो कुछ ज्ञान ही नहीं था। उस घर के लोग छोटी-सी बच्ची के साथ हर दिन दुर्व्यवहार करने लगे। उससे घर के सारे काम तो करवाते लेकिन भरपेट खाना नहीं देते थे। जो कुछ झूठा-बासी भोजन बचता था वो उसे खिलाते थे। नहीं खाती थी तो भूखी ही घर के दरवाज़े पर पड़ी रहती।
दूध वाले के आस-पड़ोसी यह सब देखते हुए भी बच्ची की कोई सहायता नहीं कर पाते थे। उस बच्ची को देखकर सबको दया तो आती थी लेकिन उनके डर से कोई कुछ बोल नहीं पाता था। कोई कभी-कभार छुप कर उसकी मदद करने की कोशिश अवश्य करते थे। इसी तरह से समय निकलता जा रहा था। शायद भगवान को भी उस बच्ची पर रहम आने लगा था। तभी तो भगवान ने अपनी लीला से समाज सेवक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता प्रह्लाद जी को उस गाँव का मेहमान बना कर भेज दिया।
उनका शुभ-विवाह सिहोरा के जाने-माने गंधार परिवार में गाँव के प्रधान रामवीर सिंह की बहन के साथ हो गया। उच्च शिक्षित और एक विद्यालय में प्रोफ़ेसर अति संवेदनशील प्रह्लाद ने जब उस बच्ची के बारे में सुना तो सुनकर बहुत ही ज़्यादा कष्ट हुआ। डॉ. प्रह्लाद ने उसे अपने साथ घर ले जाने का फ़ैसला ले लिया। डॉ. प्रह्लाद की सरहज, सास आदि ने उसको नहलाया साफ़-सुथरे कपड़े पहनाये और उसका नामकरण भी कर दिया। उसका नाम रख दिया। अब उसको सभी राधिका के नाम से जानने लगे।
डॉ. प्रह्लाद सिंह अपनी मोटर साइकिल पर राधिका को बैठाकर अपने गाँव अनौड़ा आ गये। इधर डॉ. प्रह्लाद सिंह जी का जीवन भी कष्टों से भरा हुआ था उन्होंने सात वर्ष की आयु से ही अनगिनत कष्टों का सामना किया था। इस घड़ी में एक और अनसुलझी पहेली को अपने जिम्मे ले लिया । समय का चक्र है वो चलता रहता है। डॉ. साहब की माता का देहान्त बचपन में ही हो गया था जब वह मात्र सात वर्ष के थे। माँ ने ये दो बहन और एक भाई बेसहारा छोड़ दिए। पेशे से सरकारी अध्यापक इनके पिताजी ने परिस्थितियों के वशीभूत दूसरा विवाह कर लिया।
विवाह तो उन्होंने बच्चों की देखभाल करने के लिये किया था लेकिन सब विपरीत हो गया।
प्रह्लाद और उनकी दोनों बहनों को उनकी बुआ जी अपने साथ बुलंदशहर ले गईं। समझदार होने तक उन्होंने ही तीनों बच्चों की परवरिश की। कुछ लोगों के जीवन में संघर्ष लिखे होते हैं।
प्रह्लाद की दूसरी माँ के भी चार सन्तान हो गई थीं। अतः प्रह्लाद को अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए कोचिंग के ज़रिए अपना ख़र्चा निकालना पड़ता था। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता जा रहा था। पहले से ही पाँच बहन थीं अब एक और शामिल हो गई। अब छह बहन दो भाई हो गये। इसलिए अब वही स्थिति यहाँ पर भी थी सब अपनों को ही प्यार करते हैं किसी पराये बच्चे को नहीं अपना सकते थे।
लेकिन डॉ. प्रह्लाद और उनके पिता जी राधिका को बहुत प्यार करने लगे थे। डॉ. प्रह्लाद ही राधिका के सारे काम किया करते। उसके लिए नई-नई चीज़ें ख़रीद कर लाना, उसको नहलाना आदि, हर तरह से उसका ध्यान रखते थे। वह राधिका को अपने कंधों पर बैठाकर सारे गाँव में घुमाकर लाते। राधिका उनके लिए अब पूरे घर में सबसे ज़्यादा लाड़ली बन चुकी थी।
विद्यालय जाने की उम्र होते ही राधिका का एडमीशन भी गाँव में करा दिया गया। राधिका कभी खेलने निकलती तो उसकी सुंदरता और चपलता को देख कर उससे गाँव की औरतें, बच्चे-कभी भी पूछने लग जाते, “तू कौन है? कहाँ से आई है? तेरी मम्मी का नाम क्या है?” राधिका के पास इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था।
बहुत लोगों ने इस बच्ची को गोद लेने की इच्छा प्रकट की लेकिन उसका बीता हुआ कल डॉ. प्रह्लाद के सामने था। उन्होंने लोगों को देने से इंकार कर दिया। समय कब पर लगा कर उड़ गया, पता ही न चला। राधिका 5-6 वर्ष की हो गई। अब डॉ. प्रह्लाद सिंह की ज़िम्मेदारी भी बढ़ चुकी थी और राधिका की चिन्ता भी। समय को देखते हुए डॉ. प्रह्लाद ने राधिका को हॉस्टल भेजने का निर्णय लिया और हरिद्वार में मातृआंचल संस्थान जिसमें छोटे बच्चों के लिए सारी सुख-सुविधायें थीं वहाँ उसका दाख़िला करवा दिया।
कुछ दिन तो सब को उसकी बहुत चिन्ता रही। लेकिन कुछ दिन बाद उसका वहाँ बहुत अच्छा मन लग गया। जब भी उसका मन करता, फोन से बात कर लेती तो ज़्यादा चिंता करने की बात नहीं थी। राधिका पढ़ने में बहुत होशियार निकली। वह अपनी कक्षा में हमेशा अव्वल आने लगी। अपने मृदु व्यवहार के कारण राधिका सभी अध्यापकों, वार्डन आदि सभी की चहेती बन गई। राधिका ने 12वीं कक्षा में स्कूल टॉप किया तो पूरे परिवार को बहुत प्रसन्नता हुई।
कम्प्यूटर का ज्ञान तो उसमें कूट-कूट कर भरा था। कहीं पर भी होती वहीं से कम्प्यूटर से संबंधित सारी समस्यायें सुलझा देती थी। राधिका के अन्दर प्रतिभा की कमी नहीं थी। वह बहुमुखी प्रतिभाशाली थी। अपने कपड़े भी ख़ुद डिज़ाइन कर लेती। सिलाई भी कर लेती। पेंटिंग तो ग़ज़ब करती थी। सामने बैठे व्यक्ति को पेन्सिल से वैसा का वैसा छाप देती। आज भी उसके हॉस्टल में उसकी ही पेन्टिंग लगी हुई नज़र आती हैं। समय पर लगा कर फुर्र-फुर्र उड़ता रहा। राधिका ने बी.कॉम. परीक्षा भी अच्छे अंकों से पास कर ली।
डॉ. प्रह्लाद को वह भैया बोलती थी। हमेशा कहती कि “भैया मुझे आपका सपना साकार करना है। मुझे आई. ए. एस. बनना है।” डॉ. प्रह्लाद ने उसकी कोचिंग की व्यवस्था दिल्ली में कर दी थी। उस वक़्त डॉ. प्रह्लाद की पोस्टिंग बीसलपुर बरेली में होने के कारण राधिका कुछ दिनों के लिए बरेली रहने के लिए आ गई। परिवार के साथ उसे बहुत प्रसन्नता मिलती। पाककला में भी निपुण होने के कारण हर दिन कुछ नया व्यंजन बनाकर खिलाती। बहुत ख़ुश रहती थी। मई-जून की छुट्टियों में प्रह्लाद ने अपने परिवार के साथ उसको सब जगह घुमाया। सभी से मिलाया। एक छोटी-सी राधिका अब बड़ी हो गई थी।
डॉ. प्रह्लाद अपने ख़ुद के बच्चों से भी अधिक प्यार राधिका को करते। वह बहुत समझदार थी इसलिए वह जो भी कहती, डॉ. प्रह्लाद उसे मान लेते। ख़ुद के बच्चे कभी ब्रांडेड कपड़े नहीं ख़रीदते, लेकिन राधिका हमेशा ब्रांडेड ही चीज़ें ख़रीदती थी। चाहे पैसों की व्यवस्था हो या ना हो लेकिन उसे किसी चीज़ की कमी नहीं होने देते।
डॉ. प्रह्लाद ने दिल्ली की संकल्प, वाजीराव, दृष्टि आदि कई कोचिंग सेंटर की जानकारी लेकर राधिका को दिल्ली भेजने ही वाले थे कि अचानक समय ने करवट बदली। कहते हैं कि भाग्य का लिखा कोई नहीं मिटा सकता स्वयं भगवान भी नहीं। सन 2017 में देहरादून में राष्ट्र सेविका समिति का वर्ग लगा हुआ था। उसकी अवधि 18 दिन थी, जो कि जून में लगता है। उसमें राधिका और डॉ. प्रह्लाद की बेटी तृप्ति दोनों गई हुई थीं। वहाँ जगह-जगह से बच्चे आये हुए थे। राधिका के विद्यालय से भी कई लड़कियाँ आई हुई थीं। 18 दिन का कैंप समाप्त हुआ तो राधिका तृप्ति के साथ ना रहकर अपनी सहेलियों के साथ बिना बताए हरिद्वार के लिए रवाना हो गई। जबकि डॉ. प्रह्लाद अपने परिवार को साथ लेकर राधिका और तृप्ति को लेने के लिए बरेली से देहरादून गये थे। बिना बताए ही हरिद्वार चली जाने की बात सुनकर आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी। हरिद्वार जाकर पता भी लगाया तो उसने जवाब दिया कि भैया आप चिंता मत करो। मैं तो ऐसे ही चली आई थी। मेरी छुट्टियाँ भी ख़त्म हो रहीं थीं। आप परेशान होते इसलिए मैं दोस्तों के साथ आ गई। उसी समय डॉ. प्रह्लाद का स्थानांतरण हाथरस (कुरसंडा) कॉलेज में हो गया। सभी हाथरस रहने लगे। शिवानी कोटा एलन से कोचिंग ले रही थी और तृप्ति 1वीं में हॉस्टल में थी। केवल चिन्मय, हाथरस में अपने मम्मी पापा के साथ था।
डॉ. प्रह्लाद एक दिन अपने कॉलेज जा रहे थे। रास्ते में ही अचानक राधिका का कॉल आया। गाड़ी रोककर उससे बात की। उससे कुशल मंगल पूछने लगे। बात करते-करते राधिका ने एक ऐसी बात बोल दी जो कि डॉ. प्रह्लाद के लिए असहनीय थी। हृदय को विदीर्ण करने वाली। उसने बोला कि भैया अब आप मेरी चिंता छोड़ दो। अब मैं बालिग़ हूँ। अपने निर्णय लेने का मुझे पूरा अधिकार है। मैं अब अपने आपको ख़ुद सम्भाल सकती हूँ। इसलिए अब आप अपना ध्यान रखो। मुझसे मिलने आने की कोशिश मत करना। इतना सुनकर डॉ. प्रह्लाद सड़क पर ही बेहोश होकर गिर पड़े। कुछ लोग वहाँ से गुज़र रहे थे उन्होंने अस्पताल में एडमिट करवाया। ई. सी. जी. वग़ैरह हुए। शाम को होश आया। बहुत वर्ष बीत गए लेकिन राधिका ने अभी तक कोई ख़बर नहीं ली और ना ही अपने बारे में कुछ बताया। एक दिन डॉ. प्रह्लाद ने राधिका को फोन करके पूछा कि तू अब मुझसे कोई रिश्ता नहीं रखेगी क्या?” इस पर उसने यही लिखकर भेज दिया कि “अब हमारा और आपका कोई रिश्ता नहीं है।”
डॉ. प्रह्लाद आज भी उसको याद करके रोते हैं और वो नन्ही बच्ची राधिका जो अब बड़ी हो चुकी है, इतनी बड़ी कि अपने सभी निर्णय स्वयं ही ले ले। लेकिन डॉ. प्रह्लाद जिन्होंने उसे एक पिता की तरह पाला था उनके लिए तो आज भी वह वही छोटी सी बच्ची है और हमेशा रहेगी। उनके हृदय से तो आज भी राधिका के लिए आशीर्वाद ही निकलता है। शायद राधिका को अपनी मंज़िल मिल चुकी थी। इसीलिए उसने अपनों को भुला दिया। कभी पलट कर अपने परिवार की तरफ़ नहीं देखा। राधिका तुम जहाँ भी हो वहाँ हमेशा ख़ुश रहो यही हमारी भगवान से प्रार्थना है।
दुनिया की भीड़ में न जाने कहाँ गुम गई राधिका।
बहुत देर से पेड़ पर लगे घोंसले को निहारते देख कर हेमेश ने पास जाकर उनके कंधे पर हाथ रखा तो डॉ. प्रह्लाद चौंक उठे। उन्होंने पत्नी को घोंसले की ओर दिखाते हुए कहा, “उड़ गए . . . हेमेश उड़ गए वो।”
“कौन उड़ गए?” पत्नी ने आश्चर्य से पूछा।
”वही . . . वही . . . चिड़िया के बच्चे।,” कहते कहते डॉ. प्रह्लाद की आँखों की कोर भीग उठीं।
“हेमेश, पक्षी हों या मनुष्य, पर उगते ही उड़ ही जाते हैं,” पति की बातों का आशय समझते ही हेमेश की आँखें भी नम हो उठीं।