मंज़िल (दुर्गेश कुमार दुबे)
दुर्गेश कुमार दुबेक्यूँ छोड़ें अपने आदर्शों को,
क्यूँ तोड़ें अपनी मर्यादा को,
क्यूँ मारें अपने स्वाभिमान को,
क्यूँ त्यागें अपने मूल्यों को,
क्यूँ जाने दें अपनी चेतनता को,
क्यूँ छोड़ें अपनी उम्मीदों को,
क्यूँ बिखरने दें अपनी ज़िन्दगी को,
जबकि लंबी स्याह रात
गुज़रने वाली है
एक नई उमंग और ऊर्जा के साथ
अरुणिमा आने वाली है
मत हो बेचैन और अधीर,
कुछ प्रतीक्षा और सही,
बस अगले ही मोड़ पर मंज़िल
मिलने वाली है