मंथन (चन्द्र मोहन कुशवाहा ’कुंठित’)
चन्द्र मोहन कुशवाहा ’कुंठित’दही बिलोते बिलोते
ग्वालिन थक गई
ललाट पर उभर आए
श्रम बिन्दु चमकीले
पसीने से तर हो गए
उसके वस्त्र भड़कीले
धौंकनी की तरह
चल रही थी उसकी साँस
श्रम का सुखद ही होगा परिणाम,
उसे था पूरा विश्वास।
कुछ क्षण विश्राम कर उसने
श्वांस को नियंत्रित किया
मटकी में झाँका
तो उसे दिखाई दिया
दही तो मठ्ठा बन गया
पर नैनू नहीं दिखा
“रे हतभाग्य! व्यर्थ श्रम ही
मेरी किस्मत में लिखा।”
साहस जुटा बाहर
निकाली मथानी
मुँह से निकली चीख
और ’आँखों से पानी।’
सारा का सारा नैनू
चिपका था मथानी से
नैनू भी कैसा
मैला कुचैला लिबलिबा सा।
मथानी से चिपके रहने की चाह में
कभी एक ओर इकठ्ठा होता
कभी दूसरी ओर।
ग्वालिन का अथक प्रयास भी
मथानी से नैनू छुटा न पाया
अंततः सारा का सारा
नैनू मथानी में ही जा समाया।
ग्वालिन की समझ में कुछ नहीं आया
हार कर उसने ग्वाले को बुलाया।
ग्वाले ने सब देखा समझा
और ग्वालिन को समझाया
“भागवान। ये तो प्रभु की माया है
कहीं धूप कहीं छाया है
दही पर भी पड़ गई लगती
राजनीति की छाया है”
ग्वालिन ने पूछा कैसे
ग्वाला बोला ऐसे
“देश की कुल जनसंख्या थी एक अरब
चालीस फीसदी बच्चे
बाक़ी में आधी औरतें आधे मरद।
जो सभ्य थे सुशिक्षित थे संभ्रान्त थे
वही सर्वाधिक भयाक्रांत थे।
चुनाव काल में भीड़ के साथ
इधर से उधर होते रहे।
या घरों में दुबके हुए
चुनाव विश्लेषणों का मज़ा लेते रहे।
कुछ चुनावी कर्तव्य के भार से दबे हुए
मताधिकार का राष्ट्रीय कर्तव्य त्यागकर
प्रक्रिया के उपकरण भर बने रहे।
कुछ लोग इसलिये व्यस्त थे
कि दूसरों को वोट डलवा सकें।
तो कुछ इसलिये
कि दूसरों के वोट डाल सकें।
अब इस जनमंथन का
होना था यही परिणाम।
जो देखते हैं हम संसद और
विधान सभाओं में सुबह शाम।
ऐसे राजनीतिज्ञों को
सत्ता से दूर कौन हटाए
सत्ता जिनमें और जो
सत्ता के रोम रोम में समाए॥
वही हुआ तुम्हारे
दधि मंथन का हाल
नक़ली दूध दिखा गया कमाल।
नैनू देने वाले दधि अणुओं की
संख्या रह गई बहुत ही कम।
बाकी डिटरजेन्ट ने
कर दिए बेदम।
जो निकला वह तो
वनस्पति तेल था
इसलिये नैनू के व्यवहार से
उसका न कोई मेल था।
अथक परिश्रम ने तुम्हें
कोई लाभ नहीं पहुँचाया।
नैनू की जगह तेल निकला
और मथानी में जा समाया।
भागवान! देश का प्रबुद्ध वर्ग
जब असली की जगह
नक़ली से मन समझाएगा।
भारतमाता के ललाट पर
पसीना ही तो आएगा।
’कुंठि’ ने सही ही कहा है
दही मथे घी होत है,
दूध मथे नवनीत।
कीच मथे अरू घी चहै,
कैसी जग की रीत॥”