हम-दोनों
डॉ. कंचन लता जायसवाल
ये जो पीछे पहाड़ है,
तुम्हारी पीठ है,
जिस पर चढ़ कर मैं
ऊँचाइयों को छू लेने का साहस करती हूँ।
ज़िन्दगी की घाटी में,
तलहटी में,
उतर कर देर तक मैं
सपनों की रंग-बिरंगी कतरनें बटोरती हूँ।
तुम मेरी पलकें हो
लगातार उठती, गिरतीं।
अनझिप।
मेरी थकान मेरे पाँवों में नहीं है।
कांधों पर है।
और मेरा सुकून
मेरे नहीं
तुम्हारे सीने में है।
हम-दोनों
साथ-साथ
चलती हुई पवन हैं।
जिसे छू कर आना है...
सेबों के बागान, सूरजमुखी के खेत
और सारी हरी धरती
और नदी
और वो सब कुछ,
थोड़ा-थोड़ा,
जिससे हम-दोनों पूरे होते हैं।