डॉ. रमा द्विवेदी की ‘खंडित यक्षिणी’ कहानी संग्रह में स्त्री-जीवन और सामाजिक यथार्थ का संवेदनात्मक चित्रण

01-10-2025

डॉ. रमा द्विवेदी की ‘खंडित यक्षिणी’ कहानी संग्रह में स्त्री-जीवन और सामाजिक यथार्थ का संवेदनात्मक चित्रण

डॉ. सुषमा देवी (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

समीक्षित पुस्तक: खंडित यक्षिणी (कथा संग्रह)
लेखिका: डॉ. रमा द्विवेदी
प्रकाशक: शब्दांकुर प्रकशन, दिल्ली
पृष्ठ संख्या: 122
मूल्य: ₹300.00

कहानी कहने-सुनने की आदिम परंपरा मानव के हज़ारों सालों के विकास के पश्चात् भले ही परिवर्तित हो चुकी है, किन्तु कहानी की गति कभी रुकी नहीं। हिंदी साहित्य में कहानी एक ऐसी विधा है, जिसने बदलते समय और समाज के साथ अपनी रूपरेखा और स्वर दोनों बदले हैं। 20वीं शताब्दी के आरंभ में प्रेमचंद ने सामाजिक यथार्थ और शोषित वर्ग के प्रश्नों को कहानी के केंद्र में रखकर उसे नई पहचान दी। नामवर सिंह ने कहा है, “कहानी केवल कल्पना नहीं, बल्कि समाज के भीतर जीवन के अनुभवों का घनीभूत रूप है।” (नामवर सिंह, कहानी नई कहानी, 1974)। 

स्वातंत्र्योत्तर काल में स्त्री-लेखन के उभार ने हिंदी कहानी को संवेदनात्मक गहराई प्रदान की। उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल और सुधा अरोड़ा जैसी लेखिकाओं ने स्त्री-अनुभवों और सामाजिक विडंबनाओं को केंद्र में रख कर हिंदी कहानी को समकालीन सरोकारों से संबद्ध किया है। इसी परंपरा में डॉ. रमा द्विवेदी की प्रस्तुत कहानी-संग्रह भी जुड़ जाती है। इसमें न केवल स्त्री-जीवन की संवेदनाएँ हैं, बल्कि समाज की विसंगतियाँ, रिश्तों का बदलता स्वरूप और आधुनिकता-परंपरा का द्वंद्व भी परिलक्षित होता है। ‘खंडित यक्षिणी’ पंद्रह कहानियों का एक ऐसा पुंज है, जिसमें अलग-अलग पंखुड़ियाँ खुल कर पाठक की दृष्टि का विस्तार करती हैं। ‘पिता की ममता’, ‘सिसकती जिंदगी’, ‘दुर्भाग्य से सौभाग्य’, ‘अर्थी सुसंस्कारों की’, ‘खंडित यक्षिणी’, ‘पुनर्विवाह दंश’, ‘नेकी कर, दरिया में डाल’, ‘संवेदनाओं के पुल’, ‘आखिरी देवदासी’, ‘माया मिली न राम’, ‘उर्जस्विता’, ‘वो पाँच दिन’, ‘काशी-काशी’, ‘ललक शहर में शादी की’, ‘जाहिल सेक्रेटरी’ आदि पंद्रह कहानियों के शीर्षक से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखिका कितनी सरल तथा संवेदनशील हैं। 

डॉ. रमा द्विवेदी की प्रस्तुत कहानी-संग्रह का स्त्री-विमर्श और सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से विश्लेषण करना अत्यंत आवश्यक है। साथ ही, यह भी देखना है कि यह संग्रह किस प्रकार समकालीन हिंदी कहानी की परंपरा को आगे बढ़ाता है। इस संग्रह में संकलित पंद्रह कहानियाँ जीवन के विविध रंगों और सामाजिक परिदृश्यों को समेटती हैं। कुछ उल्लेखनीय कहानियाँ, ‘पिता की ममता’ कहानी पितृत्व की उस कोमल संवेदना को उभारती है, जिसे साहित्य में अपेक्षाकृत कम स्थान मिला है। यहाँ पिता का रूप केवल अनुशासनकारी नहीं, बल्कि त्यागमयी और स्नेहमयी माँ की तरह है। लेखिका ने वर्तमान परिवेश की समस्याओं को घटनात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। आजकल ऑनलाइन विवाह के लिए जोड़े ढूँढ़ने की परंपरा आम हो गई है। कहानी रिश्तों में विश्वास की समस्या की ओर इंगित करती है। पति-पत्नी के संबंधों में सूचना-प्रौद्योगिकी, नेटवर्किंग और नेट सर्फ़िंग ने निकटता की जगह दूरी और हिंसा को जन्म दिया है। नेट के माध्यम से प्रेम, विवाह और बेवफ़ाई रिश्तों को मज़बूत बनने नहीं देते। 

कहानी की नायिका कुमारिका का नेट के माध्यम से मनमीत से परिचय, फिर विवाह, और विवाह के बाद पति का अन्य लड़कियों से ऑनलाइन चैटिंग करना, इन सबके कारण संबंधों में दरार पड़ना स्वाभाविक प्रतीत होता है। “कुमारिका के कठोर क़दम उठाने से विवाह सूत्र टूटने से तो बच गया, परन्तु प्रेम के अनुबंध की नींव बहुत गहरे तक हिल गई।” (खंडित यक्षिणी, पृष्ठ-31) 

‘दुर्भाग्य से सौभाग्य’ कहानी की बुनावट कहीं-कहीं ढीली पड़ जाती है। इसमें आस्था का उसके ट्यूशन टीचर द्वारा बलात्कार, उसके बाद आसना का जन्म और फिर उसे अनाथ आश्रम छोड़ना, इन प्रसंगों के बाद आसना जैसी श्याम वर्णी बच्ची को अमेरिकी दंपती डेविड और रायना द्वारा गोद ले लेना, कथा की दिशा को अचानक बदल देता है। यहाँ कहानी में लेखिका की ‘मैं’ शैली पाठक को मानसिकता बदलकर पढ़ने के लिए विवश करती है। कहानी के अंत में लेखिका ने आदर्शवादी विचारों को प्रस्तुत किया है। 

‘अर्थी सुसंस्कारों की’ कहानी में पति द्वारा पत्नी पर किए जाने वाले अत्याचार पर प्रकाश डाला गया है। वैवाहिक जीवन की पीड़ा से गुज़रकर सुहासिनी विवाह-विच्छेद की दहलीज़ पर पहुँचती है, किन्तु पति के हर ग़लत व्यवहार को सहन कर उसे बढ़ावा देती रहती है। इस दृष्टि से यह एक परंपरागत कहानी कही जा सकती है। 

‘सिसकती जिंदगी’ ऑनलाइन जीवन की विडंबनात्मक कथा है। कहानी की एक पात्र कहती है, “घर पर तो सिर्फ़ दो ही लोग हैं पर कंप्यूटर के द्वारा पूरी दुनिया घर के अंदर घुस आई है। जिससे आदमी को एक प्रकार का नशा-सा हो गया है वह उसके अंदर मुँह घुसाए रखना चाहता है। उसे किसी नशे की ज़रूरत ही नहीं है।” (खंडित यक्षिणी, पृष्ठ-27) यह वाक्य आज की सामाजिक पृष्ठभूमि को उजागर करता है। 

‘आख़िरी देवदासी’ में देवदासी प्रथा जैसी अमानवीय परंपरा में फँसी स्त्री की पीड़ा का मार्मिक चित्रण। सुधा अरोड़ा ने कहा है, “स्त्री की देह पर परंपरा का सबसे गहरा प्रहार होता है।” (सुधा अरोड़ा, स्त्री का समाजशास्त्र, 2001)। यह कहानी उस प्रहार को प्रत्यक्ष कराती है। ‘माया मिली न राम’ में भौतिकतावादी मानसिकता और शैक्षणिक भ्रष्टाचार की कथा को लेखिका ने बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत किया है। उपभोक्तावाद और संवेदनहीनता का चित्रण करते हुए यह कहानी आधुनिक शैक्षणिक समाज की विडंबनाओं पर प्रश्न उठाती है। ‘पुनर्विवाह दंश’ गाँव की पुर्नियाँ की जीवटता को बताते हुए भी लेखिका उसकी त्रासदी से उसे मुक्त नहीं करती हैं। 

‘संवेदनाओं के पुल’ कहानी रिश्तों में संवाद और संवेदनाओं की शक्ति को रेखांकित करती है। यह इस बात का सशक्त उदाहरण है कि मानवीय संबंधों को जोड़ने वाली असली शक्ति करुणा और विश्वास है। वे कहती हैं—“प्रेम स्वतः अनायास ही उगता, पल्लवित पुष्पित होता है, और अपना साम्राज्य स्थापित कर लेता है लेकिन यह सब कुछ होता है संवेदनाओं की नींव पर। अगर प्रेमासिक्त संवेदनाएँ दो दिलों में न उगे तो संवेदनाओं के पुल का निर्माण कभी नहीं हो सकता।” (खंडित यक्षिणी, पृष्ठ-67) 

इन कहानियों से स्पष्ट है कि लेखिका ने व्यक्तिगत अनुभवों के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों को भी कहानी का कथ्य बनाया है। डॉ. रमा द्विवेदी का लेखन प्रायः स्त्री-विमर्श के निकट खड़ा दिखाई देता है। उनकी कहानियों की स्त्रियाँ केवल पीड़ित या शोषित नहीं, बल्कि संघर्षशील और जिजीविषा से भरी हुई हैं। ‘आख़िरी देवदासी” की नायिका, ‘सिसकती जिंदगी’ की पीड़िता और ‘संवेदनाओं के पुल’ की स्त्री, सभी स्त्री-जीवन के विविध रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं। 

चित्रा मुद्गल के शब्दों में, “स्त्री के बिना कहानी अधूरी है, और स्त्री के बिना समाज भी।” (चित्रा मुद्गल, आवाज़ें और सरोकार, 2010)। डॉ. रमा द्विवेदी की कहानियाँ इसी अधूरेपन को भरने का प्रयास हैं। 

इन कहानियों की भाषा सरल और संवादधर्मी है। लेखिका अलंकारिकता या दुरूहता से बचती हैं। कहीं-कहीं वे आत्मसंवाद और स्मृति का सहारा लेकर कथानक को गहराई देती हैं। संग्रह में कहानियों के धरातल वैविध्य में लेखिका ने कई कहानियों में समस्याओं के साथ समाधान भी देने की कोशिश की है। लेकिन कुछ कहानियों की समस्याओं को सुलझाने का कार्य सजग पाठक को भी दे रखा है। 

रमेशचंद्र शाह के शब्दों में, “कहानी का शिल्प तभी सजीव होता है जब वह जीवन की लय और गति को पकड़ ले।” (शाह, रमेशचंद्र कथा और शिल्प, 1998)। डॉ. रमा द्विवेदी की कहानियाँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं क्योंकि उनमें घटनाक्रम और भावनाओं का संतुलन है। इनकी कहानियों में समाज के विभिन्न प्रश्न उभरते हैं: स्त्री-शोषण की समस्या, बदलते पारिवारिक मूल्य और संवादहीनता, परंपरा और आधुनिकता का द्वंद्व। ‘आख़िरी देवदासी’ और ‘सिसकती जिंदगी’ जैसी कहानियाँ समाज की जड़ों में छिपी विसंगतियों को उजागर करती हैं। मन्नू भंडारी की ‘यही सच है’ या चित्रा मुद्गल की ‘आवाज़ें’ जैसी कहानियों की तरह डॉ. रमा द्विवेदी भी स्त्री-जीवन की विडंबनाओं को उजागर करती हैं। परन्तु उनकी भाषा अपेक्षाकृत अधिक सरल और संवादधर्मी है। 

डॉ. रमा द्विवेदी का यह कहानी-संग्रह समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री-जीवन और सामाजिक यथार्थ की संवेदनात्मक प्रस्तुति के लिए उल्लेखनीय है। इन कहानियों में जीवन की पीड़ा, संघर्ष और आशा का अद्भुत समायोजन है। उन्होंने भारतीय ही नहीं, अपितु प्रवासी जीवन के तार को ‘संवेदनाओं के पुल’ कहानी में खोलने की कोशिश की है। ‘नेकी कर, दरिया में डाल’ के माध्यम से लेखिका ने वर्तमान पीढ़ी की मूल्यहीनता को रेखांकित करने की कोशिश की है—“सुदीप्ति ने जिस मित्र के घर पर आश्रय लिया, उनकी फ़ॉर्नर पत्नी के ही पैंसठ वर्षीय एवं चार बच्चों के पिता जॉन में ही अपना भविष्य तलाश लिया क्योंकि उसके प्रति उनका व्यवहार बहुत आत्मीय था और वह अमेरिकन नागरिक के साथ-साथ बहुत अमीर भी था।” (खंडित यक्षिणी, पृष्ठ-65) 

‘काशी-काशी’ कहानी में ‘थलाई कूथल’ की भयानक परंपरा को अनावृत किया गया है, तो ‘वो पाँच दिन’ कहानी ज़बरदस्ती बनाए जाने वाले देह सम्बन्ध पर विचार के लिए पाठकों को विवश करती है। भारतीय समाज में सबसे अधिक समस्या ग़लत वैवाहिक बंधन के कारण उत्पन्न होते हैं। विवाह दो व्यक्ति ही नहीं, दो परिवार तथा समाज के आपसी विश्वास पर आधारित होता है। ‘ललक शहर में शादी की’ कहानी में पात्र को शहर में शादी करने के सपने देखने का ख़म्याज़ा भुगतना पड़ता है। झूठ पर बने रिश्तों की उम्र बहुत छोटी होती है। कहानी की इन पंक्तियों में लेखिका ने इसी बात की ओर इंगित किया है—“जब संध्या ससुराल पहुँची और देखा कि घर में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे देखा कर ख़ुश हुआ जा सके। संध्या को शीघ्र ही पता चल गया कि पति शराबी है और निठल्ला भी। न कोई नौकरी न व्यापार। बस पुराना घर है जिसका एक हिस्सा किराए पर है, उसी से बहुत मुश्किल से घर चलता है।” (खंडित यक्षिणी, पृष्ठ-108) 

इस संग्रह को पढ़ते हुए यह अनुभव होता है कि कहानियाँ केवल भावनात्मक संसार नहीं रचतीं, बल्कि समाज की विसंगतियों को प्रश्नों के रूप में खड़ा करती हैं। डॉ. रमा द्विवेदी ने छोटे-छोटे प्रसंगों से बड़ी सच्चाइयों को उद्घाटित करने की क्षमता दिखाई है। अतः यह संग्रह हिंदी कहानी-साहित्य में निश्चय ही एक महत्त्वपूर्ण योगदान है, साथ ही आगे के साहित्यिक विमर्श के लिए भी नए द्वार खोलेगा। 

संदर्भ सूची:

  1. सिंह, नामवर। कहानी नई कहानी। नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1974। 

  2. शाह, रमेशचंद्र। कथा और शिल्प। भोपाल: मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, 1998। 

  3. अरोड़ा, सुधा। स्त्री का समाजशास्त्र। दिल्ली: वाणी प्रकाशन, 2001। 

  4. मुद्गल, चित्रा। आवाज़ें और सरोकार। नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, 2010। 

  5. गर्ग, मृदुला। स्त्री और संवेदना। नई दिल्ली: राजकमल प्रकाशन, 2008। 

  6. द्विवेदी, डॉ. रमा। [समीक्षित कहानी-संग्रह ‘खंडित यक्षिणी’]। 

डॉ. सुषमा देवी
एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, बद्रुका कॉलेज, हैदराबाद-27, तेलंगाना 

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