बहार
दिव्या माथुरपेड़ों की
शीतल छाँव तले
यौवन था
जहाँ भी पाँव पड़े
अल्हड़ कलियाँ
यूँ शर्माईं
घूँघट में
छिपा लिये चेहरे
भँवरे थे
फूलों को घेरे
तितलियाँ लगातीं
सौ फेरे
कलकल करता
ठंडा पानी
कू कू करती
कोयल रानी
पपीहे ने पुकारा
मचा शोर
होकर विभोर
नाच उठे मोर
छा गई घटा
मनचली भली
लाल सुनहरी
साँझ ढली
लो आज गई
तन मन बुहार
झीनी भीनी सी
इक फुहार
फूलों से लदे
एक झूले में
लो सजी धजी
आई बहार