अपनों से मिलाते हैं होली के रंग

15-03-2020

अपनों से मिलाते हैं होली के रंग

अवधेश कुमार निषाद ’मझवार’ (अंक: 152, मार्च द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

हमारे पूर्वजों सही कहते हैं, वास्तव में होली के रंग मनुष्य के शरीर को नहीं रँगते हैं, बल्कि हमारे शरीर के अंदर में छुपे हुए भेद-भाव, ईर्ष्या और तमाम घृणाओं को भी समाप्त करते हैं।

मेरे भैया आदरणीय श्री जितेन्द्र जी से किसी बात को लेकर काफ़ी समय से मेरा मन मुटाव चला आ रहा था। हम एक दूसरे से बात तक करने को भी राजी नहीं थे। लेकिन आज होली आते ही, मैं उनके घर गया। घर पर भैया और भाभी दोनों ही थे। मैंने उनको होली की शुभकामनाएँ दीं व लाल गुलाल का तिलक लगाकर उनके चरण स्पर्श किए। तो उनके दिल ने उन्हें विवश किया और तुरन्त ही उन्होंने मुझे अपने सीने से लगा लिया। फिर क्या! मैं अपने आँसू रोक ना सका। भैया जितेंद्र ने पूछा कि घर पर सब कैसे हैं? 

मैंने कहा, "जी भैया जी घर पर सब परिवार बढ़िया है। आप के घर पर सब कैसे हैं?"

उन्होंने मेरी तरफ़ देखते हुए कहा, "दोनों के परिवार एक ही हैं। सब ठीक ही है।"

भैया ने मुझसे कहा कि खाना खाए बग़ैर मत जाना। 

भैया हो तो ऐसा हो, आज के दिन ना होली आती, ना में अपने भैया के गले मिल पाता। आख़िर भैया हो तो जितेंद्र जैसा।
वास्तव में अपनों से मिलाते हैं होली के रंग!
 

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