आख़िरी ठिकाना
अनिल खन्नाये कैसी डगर है
ये कैसा सफ़र है
साथी न कोई अपना
साया ही हमसफ़र है।
पैरों तले ज़मीन
ऊपर आसमान है
कहाँ ले चली ज़िन्दगी
वो कौन सा मुक़ाम है।
गुज़र गया दिन
शाम भी गुज़र जाएगी
साँसों की डोर से बँधी पतंग
कभी तो कट जाएगी।
अकेले ही आए थे
अकेले ही जाना है
चार कंधों पर टिका
आख़िरी ठिकाना है।
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Wah wah