आख़िरी किसान
नीतीश सिंहखेत-मेठ झूठे,राज-काज परदेस का,
गोरू-गाड़ी छूटे, ओत-प्रोत अमीरी का।
बैठो,
मेढ़ पर भूख ख़त्म हुई
लिख-पढ़ कर क्या आयाम बनाएँ।
मेरी मिट्टी दबी है,
सुनो!
सजे-मंझे हैं, बाज़ार- व्यापार से
फूट पड़े रोशनदानों में
अबकी हरियाली में खेत-प्रहर कहाँ
मिट्टी पर धान की टोकरियाँ कहाँ!
काठ-पहिये पर ज़ोर नहीं,
सूजे हुए स्पर्श हाथों का
क्रोध-मुक्त वाली परस्परता,
किसान-चरवाहों में अब कहाँ!
बैलों के हुडदंग में
चुंबन की मार
हाट-पाल सुस्त सब
दबे पाँवों की खोज कहाँ!
अनाज की बोरियों में
लिपटी तलब का भार
लय को खोती,
साख को सँवारती कहाँ!