आज के वक़्त से
उमेश चरपेमेहनत करती हुई
देह को
केवल -
दो रोटियाँ ही नसीब होती हैं
हर बार उसे लोग
सुना देते हैं
घिसा पिटा -
क़िस्मत का रोना
मैं पूछता हूँ
वक़्त से?
रोज़ कुचलता है
अरमानों को
आदमी
जिसने लहू पिलाकर
सींचा फ़सलों को
जिसके पकने पर
व्यापारी चूहे
कुतर जाते हैं
आख़िर क्यों?
सुनाई नहीं आती
वक़्त के कानों में गूँज
कौन निगल जाता है
उसकी चीख को
क्यों ख़ामोश रहता है
आदमी?