आज भी

डॉ. शिप्रा मिश्रा (अंक: 220, जनवरी प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

आज भी . . . 
देखा मैंने उसे
पानी में ख़ाली
नमक डाल कर
उसने मिटाई
अपनी भूख 
 
आज भी—
खाता है वह
सिर्फ़ रात में ही
कभी-कभी तो
वह भी उसे
होता नहीं नसीब
 
आज भी—
उसने जम के
पसीने बहाए
ढेर सारे और
दिन भर की है
ईमानदारी से मजूरी
 
आज भी—
मिलते हैं
उसके बच्चे को
पोषाहार और
पोशाक के पैसे
सरकारी स्कूल से
 
आज भी—
उन पैसों से
ख़रीदता है वह
कुछ बकरियाँ
देता है बटईए पर
मुनाफ़े के लिए

आज भी—
टूटे छप्पर के
चंद दिनों की
मरम्मती के लिए
लिए हैं कुछ
पैसे सूद पर
 
आज भी—
उसकी घरवाली
चौका-बरतन के लिए
गई है लोलुप भेड़ियों के
अँधेरे माँद में बेख़ौफ़
सब कुछ जानते हुए
 
आज भी—
कहने को
आज़ाद देश में
वह सो नहीं पाता
सुकून-चैन की 
मुकम्मल नींद
 
आज भी—
 
आज फिर–
मेरी पोटली में
नहीं हैं चंद अल्फ़ाज़
उसकी दबी हुई
आवाज़ को 
दूर-दूर तक 
पहुँचाने के लिए . . . 

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