ज़िंदगी! वही है न जो...

01-01-2020

ज़िंदगी! वही है न जो...

ज्योति मिश्रा

ज़िंदगी वही है न...
जो वृक्ष के ठूँठ के गर्भ में
पल्लवित  नयी कोपलों की है,
या फिर,
ठूँठ के दम तोड़ देने पर
समाज द्वारा तिरस्कृत  हो
बाँझ उपाधि से नवाज़े जाने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो पल्लवित कोपलों के
शिशु आकार ले लेने की है,
या फिर,
कली के आगमन की सूचना पा
उसे तोड़ देने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो अल्हड़, उमंगित,
तरंगित बचपन की है,
या फिर,
ईश्वर के कुठराघात को सहन कर
बचपन के दम तोड़ देने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो स्वप्निल दुनिया में क़दम रख
यौवन के उन्मादपन की है,
या फिर,
अभिलाषाओं की चिता पर
अपनों के महल खड़ा करने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो ज़िम्मेदारियों के बोझ से
कंधों के झुक जाने की है,
या फिर,
सदियों पुराने आँगन के वृक्ष का
अनुपयोगी समझ कट जाने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो समझौतों की ज़ंजीर में क़ैद हो
स्वप्नों को कुचल देने की है,
या फिर,
सब दरकिनार कर
उन्मुक्त गगन में उड़ान भर लेने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो भय के आलिंगन में
स्वयं को बाँधें रखने की है,
या फिर,
अग्रसर हो, मौन तोड़
स्वयं के अस्तित्व को स्थापित करने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो पहाड़ों के वक्षस्थल को चीरकर
गतिशीलता के उद्देश्य को पूर्ण करने की है,
या फिर,
दम्भ से भर, विध्वंस कर,
सन्नाटों को आमंत्रित कर
फिर से थम जाने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो एक पाँव से संसार की
ऊंचाइयों को फतह कर लेने की है,
या फिर,
तानों से, निराशा से परास्त हो
स्वयं को समाप्त कर लेने की है।

ज़िंदगी वही है न...
जो दुर्गम बर्फ़ीली घाटियों में
कस्तूरी की चाह में उन्मादित होने की है,
या फिर,
विचारों के झंझानिल से मुक्त हो
इस घृणित कानन में स्थिर हो
स्वयं को पा लेने की है।


ज़िंदगी वही है न...
जो अपने अहंकार के ताप से
मानवता का विनाश करने की है,
या फिर,
प्रकाश बन
सर्वत्र समभाव से
जग को प्रकाशित करने की है।

ज़िंदगी वही है न...
जो.....!!!

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