व्यंग्य और विद्रोह के कवि धूमिल

23-04-2017

व्यंग्य और विद्रोह के कवि धूमिल

डॉ. योगेश राव

धूमिल साठोत्तरी हिन्दी कविता के प्रखर युगद्रष्टा, रचनाकार हैं। अपने समय की विद्रूपताओं के भीतर का उपजा असंतोष उनकी कविताओं में व्यंग्य-रूप में सर्वत्र परिलक्षित होता हैं। सामाजिक विसंगतियों के प्रति गहरा सरोकार रखने वाले कवि धूमिल का समूचा साहित्य वर्तमान से मुठभेड़ करता दिखायी देता है। डॉ. शुकदेव सिंह का मत हैं "धूमिल अपने समय का ही नहीं, हिन्दी का सबसे महत्वपूर्ण जन कवि और जनवादी कवि था। यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि धूमिल ने जिस जीवन की अभिव्यक्ति अपने काव्य में की, उस जीवन को उन्होंने किसी अन्य को जीते नहीं देखा था, बल्कि स्वयं भोगा था और जिस आदमी की पीड़ा को वह अपनी कविता में वाणी देते रहे वह कोई और नहीं स्वयं धूमिल ही थे।"

जनचेतना के प्रबल पैरोकार कवि धूमिल तथाकथित आज़ादी के स्वप्न की टूटन को इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि स्वतंत्रता का छद्दम रूप सहज ही आँखों में तैर जाता है-

मुझे अच्छी तरह याद है-
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
खुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा-आ-जा-दी

(पटकथा)

उन्होंने अपने समकालीन कवियों का ध्यान एक ठोस समस्या की ओर खींचा- "जनतंत्र" और "व्यवस्था" जनतांत्रिक मूल्यों से उठते विश्वास को धूमिल ने अपनी कविताओं में उकेरा है-

दरअसल, अपने यहाँ जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी, देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है।

(पटकथा)

रचना की चली आ रही वायवी, काल्पनिक और व्यक्तिगत भावभूमि को छोड़कर धूमिल ने कविता का रिश्ता समसामयिक यथार्थ से जोड़ा-

बच्चे आँगन में
आंगड़बांगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं
चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते है और बेलते रहे हैं

(किस्सा जनतंत्र)

धूमिल की कविताओं के सन्दर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह कहते है "धूमिल कविताएँ नहीं, पंक्तियाँ लिखता था। ..... उसकी कविता लिखने की प्रक्रिया मुझे रीतिकालीन आचार्यो की याद दिलाती हैं। वह कविता करता नहीं था, बनाता था। जिस तरह रीतिकालीन कवियों का सारा ध्यान सवैया या कवित्त की अंतिम पंक्ति पर केन्द्रित होता था या यूँ कहे कि सबसे पहले उनके दिमाग़ में "समस्या" आती थी और वे, उसकी पूर्ति ऊपर की तीन या सात पंक्तियों से करते थे, उसी तरह धूमिल के दिमाग़ में जुमले आते थे और ये जुमले कभी तो उसके उपपाऊ दिमाग़ की उपज होते थे और कभी उसे लोगों की बातचीत से हासिल होते थे। फिर वे जुमले उसके लिए कविता में "प्रस्थान-बिन्दु" की तरह होते थे, उस सूत्र के माध्यम से वह कविता को कंसीव करता था-बल्कि वे उपलब्ध पंक्तियाँ ही कविता का प्रारूप, विषय और आकार निर्धारित करती थीं। कविता का कोई भी सचेत पाठक "संसद से सड़क तक" की लगभग सभी कविताओं में ऐसी पंक्तियों पर उँगली रख सकता है। ज़्यादातर वे सूक्तियाँ कविता के अंत में हैं।" जैसे-

अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है

(कविता)

आज़ादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है

(बीस साल बाद)

एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूँजी है।

(अकाल-दर्शन)

.....वह असुरक्षित नहीं है
जिसका नाम हत्यारों की सूची में नहीं है।

(हत्यारी सम्भावनाओं के नीचे)

इस वक्त जबकि कान नहीं सुनते है कविताएँ
कविता पेट से सुनी जा रही है।

(कवि 1970)

"विपक्ष का कविः धूमिल" नामक लेख में काशीनाथ सिंह पुनः कहते है "शब्दों के प्रयोग, सटीक मुहावरे, सही और अनिवार्य तुक सार्थक वाक्य-विन्यास इतनी मेहनत करने वाला दूसरा आदमी मैंने नहीं देखा। ... वह प्राइमरी या मिडिल स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थी की तरह दिन या रात किसी समय चला आता और बेचैनी में स्याही से रँगी दोनों हथेलियाँ आगे फैला देता- "यार काशी ऊॅगलियों में घट्ठे पड़ गए ससुरी कविता खिसकने का नाम ही नहीं ले रही है।" या "यार देखो, पसीने-पसीने हो गया हूँ लेकिन कोई बात ही नहीं बन रही है।"

ऐसे श्रम को वह "रियाज़" कहता था। .... अक्सर उसे ऐसा रियाज़ तब करना पड़ता जब किन्हीं ख़ास चमत्कारपूर्ण उक्तियों से मोह होता और किसी हालत में उन्हे कविता का अंग बनाना चाहता- कभी-कभी ज़बर्दस्ती।" जैसे –

लंदन और न्यूयार्क के घुण्डीदार तस्मों से
डमरू की तरह बजता हुआ मेरा चरित्र
अंग्रेज़ी का 8 है।

(शान्तिपाठ)

 कितना भद्दा मज़ाक है
कि हमारे चेहरों पर
आँख के ठीक नीचे ही नाक है।

(सच्ची बात)

या

सौन्दर्य से स्वाद का मेल
जब नहीं मिलता
कुत्ते महुवे के फूल पर
मूतते है

(बसन्त)

बकौल काशीनाथ सिंह "पड़ोस गाँव का जितना विवादग्रस्त क्षेत्र है, पड़ोसी उतना ही जटिल, उलझा और आतंकपूर्ण चरित्र। आप उसे नज़रअंदाज़ न कर सकने के लिए अभिशप्त हैं। वह आपके लिए अनिवार्य है। न तो आप उसके साथ रह सकते हैं। न उसे छोड़कर रह सकते हैं। ....कन्नन सुदामा का पड़ोसी है और शायद कन्नन इसलिए है कि काना है। चीन भारत का पड़ोसी है, पाकिस्तान और बंगला देश भी भारत के पड़ोसी हैं। यह पड़ोस और "कुनबा" धूमिल की कविताओं से भरा पड़ा है और इस "पड़ोस का एक खास तरह का कंसेप्शन उसे कन्नन पांडे से मिला है। पड़ोसी वह है जो तुम्हें चैन से न जीने दे, तुम्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगा रहे। तुम्हारी मेंड़ उलटता रहे, बैल चुरवाता रहे, अकेले में पा जाय तो वार कर बैठे, तुम्हारी नाली और पनाला रोक दे, तुम्हारे दरवाज़े की नीम हड़प लेना चाहे़, पडोसी वह है जो तुम्हारे पिता के श्राद्ध की बनिस्बत अपनी माँ के श्राद्ध में पचास से ज़्यादा आदमियों को भोज दे, अपनी लड़की के विवाह में तुम्हारी रण्डी की तुलना में भाँड़ नचा दे, तुम्हारी अद्धी की तुलना में अपने लड़के को बनारसी सिल्क पहना दे, तुम्हारे दरवाज़े के कुएँ की तौहीन करता हुआ अपने आँगन में चाँपा-कल लगवा दे, पड़ोसी वह है जो सारी ज़िंदगी तुम्हे कचेहरी दौड़ाता रहे।"

पड़ोसी! धूमिल के कवि की अनुभूतियाँ, संवेदनाएँ और प्रतिक्रियाएँ पड़ोसी की हैसियत, कारगुज़ारियों और हरकतों से टकरा-टकराकर विकसित हुई हैं-

मैं उन्हें समझाता हूँ-
यह कौन-सा-प्रजातांत्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र में मेरे पड़ोस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है

(अकाल-दर्शन)

इस वक्त यह सोचना कितना सुखद है
कि मेरे पड़ोसियों के सारे दाँत टूट
गए हैं।

(उस औरत की बगल में लेटकर)

खबरदार!
उसने तुम्हारे परिवार को
नफरत के उस मुकाम पर ला खड़ा किया है
कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी
तुम्हारे पड़ोसी का गला
अचानक अपनी स्लेट से काट सकता है

(नक्सलबाड़ी)

और अब यह किसी पौराणिक कथा के
उपसंहार की तरह है कि इस देश में
रोशनी उन पहाड़ों से आई थी
जहाँ मेरे पड़ोसी ने मात
खाई थी

(पटकथा)

धूमिल ने कविता-सम्बन्धी मान्यता और धारणा तक को नियंत्रित किया है। जब वे कहते है कि "अकेला कवि कठघरा होता है" तो कवि कठघरे से एक वक्तव्य ही दे सकता है-

एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।
कविता
शब्दों की अदालत में खड़े
मुजरिम के कठघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफ़नामा है

(मुनासिब कार्रवाई)

गाँव धूमिल की नजर में शहर का पड़ोसी था। या यह कहना ज़्यादा सही होगा कि शहर उनके लिए गाँव का पड़ोसी था। उन्हें शहर से ख़ास चिढ़ थी-नफ़रत की हद तक। वे कहते हैं-

उसे मालूम है कि शब्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं-
आदत बन चुकी है
वह किसी गँवार आदमी की ऊब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े लिखे आदमी के साथ
शहर चली गयी

(पटकथा)

अपनी सार्थकता और सरोकार की जड़ से कट जाने की पीड़ा से उपजा मनोभाव संवेदना के उच्च स्तर पर पहुँच जाता है।

धूमिल के आने तक आलोचना का मुँह कहानी की ओर था। उन्होंने आलोचना का मुँह कविता की ओर कर दिया, अपनी सूक्ष्म और पैनी दृष्टि के बलबूते पर-

बुद्ध की आँख से खून चू रहा था
नगर के मुख्य चौरस्ते पर
शोक प्रस्ताव पारित हुए
हिजड़ों ने भाषण दिए
लिंग-बोध पर
वेश्याओं ने कविताएँ पढ़ी
आत्म-शोध पर
प्रेम में असफल छात्राएँ
अध्यापिकाएँ बन गई हैं
और रिटायर्ड बूढ़े
सर्वोदयी-
आदमी की सबसे अच्छी नस्ल
युद्धों में नष्ट हो गई
देश का सबसे अच्छा स्वास्थ्य
विद्यालयों में
संक्रामक रोगों से ग्रस्त है

(कुछ सूचनाएं)

धूमिल महसूस करते हैं कि गाँव को, किसानों और गरीबों को आज तक एक्सप्लायट किया गया है -समय-समय पर भिन्न नारे देकर। बुद्धिजीवियों ने गाँव को सिद्धांत गढ़ने और बहस के विषय के रूप में इस्तेमाल किया है, राजनीतिकों ने अपनी कुर्सी और सम्पत्ति को जोड़ने में ग़रीबों को मतदान की पेटी के रूप में इस्तेमाल किया। लेखकों-साहित्यकारों ने उसकी ग़रीबी, भुखमरी और बेकसी को अपने को महान् बनाने के लिए इस्तेमाल किया है -

वे सब के सब तिजोरियों के
दुभाषिये है
वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।
अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक हैं।
लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।
यानी कि-
कानून की भाषा बोलता हुआ
अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।

(पटकथा)

नक्सल आंदोलन के दौर में नक्सलवाद को व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं-

भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम
"दया" है
और भूख में
तनी हुई मुठ्ठी का नाम नक्सलबाड़ी हैं

(पटकथा)

अपने यहाँ संसद
तेल की वह घानी हैं
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी हैं

(पटकथा)

वह आज की हर "बहस" को अपने से जोडकर देखते हैं क्योकि वह बहस की पृष्ठभूमि में खड़े लोगों को पहचानते हैं-

चंद चालाक लोगों ने
बहस के लिए
भूख की जगह
भाषा रख दिया हैं

(संसद से सड़क तक)

अस्तु! धूमिल की कविताओं में यदि चीज़ों को नये सिरे से बदलने की बेचैनी है, रोष है, व्यंग्य है, विद्रोह हैं तो लोगों की ऊब को आकार देने की आकांक्षा और उत्साह भी है-

"अब वक्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें