व्यंग्य ऊपर व्यंग्य

24-03-2017

व्यंग्य ऊपर व्यंग्य

अखतर अली

मैं श्रीलाल शुक्ल के व्यंग्य उपन्यास राग दरबारी पर हाथ रख कर प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब भी लिखूँगा व्यंग्य लिखूँगा व्यंग्य के अलावा और कुछ नहीं लिखूँगा। आप मेरे व्यंग्य की क्षमता का अनुमान मेरे इस वक्तव्य से लगा सकते हैं कि मैं अपने व्यंग्य गुरू शरद जोशी की कसम खाकर कहता हूँ कि सबसे श्रेष्ठ व्यंग्यकार हरिशकर परसाई हैं।

मेरी हार्दिक इच्छा थी कि मैं भी परसाई जी के स्तर की रचना लिखूँ, शरद जोशी वाले तेवर की रचना लिखूँ, लेकिन लाख कोशिश के बावजूद भी मेरी कलम से आज तक ऐसी कोई रचना नहीं लिख सकी जो देश और दुनिया की तो छोड़िये मेरे पड़ोसी को भी यह अहसास नहीं करा सकी कि उसके पड़ोस में जो व्यक्ति उसे सुबह शाम सलाम करता है वह एक व्यंग्यकार है। आख़िर अपनी इस असफलता का ठीकरा मैं किस के सिर पर फोड़ूँ? किसी न किसी के सिर पर तो फोड़ना ही होगा क्योंकि मैं जिस देश का नागरिक हूँ वहाँ असफलता की ज़िम्मेदारी स्वयं के सिर पर लेने की परम्परा नहीं है। अब मेरे सामने यह एक विकराल समस्या है कि एक अच्छी व्यंग्य रचना न लिख पाने के लिये मैं किसको ज़िम्मेदार बताऊँ? अगर मैं हाकी का खिलाड़ी होता तो सारा दोष गिल जी के सिर पर थोप देता, उनका सिर इतना विशाल है ही इसलिये कि जो चाहे अपनी नाकामयाबी का ठीकरा उनके सिर पर फोड़ता फिरे। अब तो गिल बाबा भी इसके इस कदर आदी हो गये हैं कि देश में कहीं भी ऐसा वैसा कुछ होता है और कोई इसकी जवाबदारी लेने में हिचकिचाता है तो ये झट से अपना सिर आगे कर देते हैं और कहते हैं मैं हूँ न ! इसके बदले में बाबा जी और कुछ नहीं चाहते, उनके लिये यही काफ़ी है कि किसी तरह उनका सिर देश के काम आ जाये।

मेरे को तो बिलकुल समझ नहीं आ रहा है कि अपनी इस असफलता का ज़िम्मेदार मैं किसको ठहराऊँ? मैंने अपनी तरफ़ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी, डायरी पेन से लैस मैं एक अच्छी व्यंग्य रचना लिखने के लिये बेताब था लेकिन हर बार ऐसा महसूस होता था कि कहीं कोई है जो मेरे अहसास को सुला रहा है, कोई व्यंग्य का दुश्मन मेरे पीछे पड़ा हुआ है जो नहीं चाहता कि व्यंग्य का बाज़ार भाव ऊपर उठे। आख़िर वह कौन है? एक दो कवियों पर मुझे शक हुआ था लेकिन मैं चुप रहा क्योंकि ये लोग अक्सर गोष्ठियों का आयोजन करते रहते हैं। अब साहित्य के समन्दर में रह कर आयोजकों से तो बैर नहीं लिया जा सकता न? मुझे परेशान देख कर एक दिन हवलदार लफड़ाप्रसाद ने पूछ ही लिया कि परेशानी क्या है? हमने अपनी दास्तां सुनाई तो वे कहने लगे बस इतनी सी बात है कि आप अपनी असफलता का ठीकरा किसके सिर फोड़ें? इसमें परेशान होने की क्या बात है अरे हमसे पहले पूछ लिये होते तो इस वक्त इतने टेनशन में न होते। ये सब चिन्ता छोड़ो और पत्रकार वार्ता आयोजित कर के साफ-साफ कह दो कि तमाम कोशिशों के बावजूद भी व्यंग्य नहीं लिख पा रहा है इसके पीछे दाउद इब्राहिम का हाथ है। बड़ा गज़ब का हाथ है भई भाई का। इनका हाथ अगर एक बार हाथ में आ जाये तो फिर कभी उस हाथ को इस हाथ से जाने मत देना। इस हाथ में असीम संभावनाएँ है, पुलिस विभाग की लाज इन्ही हाथों में है। पुलिस विभाग को भाई का हाथ इतना प्यारा है कि वह उन्हीं के हाथों में अपना भविष्य देखती है। जब से पुलिस को भाई के हाथ का सहारा मिला है वह भाई की गर्दन पकड़ना ही भूल गई है। हवलदार लफड़ाप्रसाद तो अपना मशविरा देकर निकल लिये लेकिन मेरे को यह स्वीकार नहीं हुआ। ये बैठे बिठाय मैं अच्छी मुसीबत में फँस गया। व्यंग्य लिखा भी नहीं रहा है और न लिख पाने की कोई सार्थक वज़ह भी नहीं है। अब मैं अपनी इस असफलता पर कैसे पर्दा डालूँ , साहित्य बरादरी में कैसे बात बनाऊँ कि क्यों लिख नहीं पा रहा हूँ। अगर मैं सरकार में होता तो कह देता कि इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ है। बिना सरकार में शामिल हुए मैं ऐसा कह ही नहीं सकता क्योंकि अपना दोष पाकिस्तान के मत्थे मढ़ने का अधिकार केवल सरकार के पास है निजी क्षेत्र को अभी यह अधिकार प्राप्त नहीं है।

आख़िर क्या किया जाये? अब मेरे पास दो ही रास्ते बचते हैं या तो किसी तरह भी कोशिश कर के एक अदद व्यंग्य लिख ही दिया जाये या फिर न लिख पाने की जाँच की जाये कि आख़िर ऐसा हो क्या गया कि दो पेज की एक रचना भी नहीं लिखा पा रही है। मेरे को परेशान देख एक प्रकाशक मित्र ने कहा भी कि इतना परेशान होने से तो बेहतर है कि किसी अन्य लेखक की एक दो रचना चुरा कर थोड़े शब्द आगे पीछे कर के रचना तैयार कर दो जब तुम्हारे अच्छे दिन लौट आयेंगे तो धन्यावाद के साथ अपनी एक दो रचना उसको दे देना हिसाब बराबर हो जायेगा। ये मशविरा मेरे समझ में नहीं आया। दूसरे की रचना को अपने नाम से कैसे प्रकाशित कर सकते हैं। मेरा निर्णय सुन कर प्रकाशक को आश्चर्य हुआ, कहने लगा यहा तो लोग दूसरे की रचनाओं को लेकर पूरा संग्रह निकलवा लेते हैं और तुम को एक रचना मारने में इतनी परेशानी हो रही है। तुम्हारा तो भगवान ही मालिक है।

अब ये मेरी आन बान और शान का मामला हो गया था। एक अलिखित रचना मुझे चिढ़ा रही थी, कह रही थी लो मैं ये रही, क्षमता है तो मुझे रच लो। मैंने तय कर लिया कि मैं उन कारणों का पता लगाऊँगा जिनकी वज़ह से मैं अपने आदर्श परसाई जी की भाँति लिख नहीं पा रहा हूँ। बस फिर क्या था मैं अपनी इस मुहिम में जुट गया। सूखे को गीला किया गीले को सुखाया। सपाट में गड्ढा किया गड्ढे को सपाट किया। सिले हुए को फाड़ा- फटे हुए को सिया। बहुत तीन पाँच किया तब बात मेरे समझ आई कि आख़िर मामला क्या है? क्यों मैं एक अदद रचना के लिये तरस रहा हूँ। मैंने पूरे मामले की गहराई से जाँच की और जब पूरी तरह संतुष्ट हो गया तब अपना मुँह खोला। मैं कम से कम समय में कारण लेखन बरादरी तक पहुँचा देना चाहता था कि लेखन में असल में कौन बाधक बना हुआ है? यह एक सस्पेंस फिल्म की तरह मामला हो गया था अपन क्या क्या सोचते रहो और हत्यारा एक ऐसा व्यक्ति निकलता है जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। बिलकुल ऐसा ही मेरे व्यंग्य लेखन के साथ भी हुआ है। इसको ही कहते है घर में लगी है आग घर के चिराग से। मेरे लेखन में बाधा कोई और नहीं बल्कि मेरे द्वारा चुनी गई सरकार थी। यह इस लोकतांत्रिक सरकार का ही किया-धरा काम है जो एक व्यंग्यकार अपने को लिख पाने में असमर्थ महसूस कर रहा है। यह तो सरासर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। यदि विपक्ष को यह मालूम हो जाये तो इसी बात पर वह सरकार का घेराव करे, सदन का बहिष्कार करे, मुख्यमत्री से इस्तीफे की माग करे। यह इतना गंभीर मामला है कि इसके विरोध में नगर बंद तो क्या बल्कि समूचा प्रदेश बंद कराया जा सकता है, स्कूल, कालेज, बाज़ार, बैंक सब बंद।

सरकार के काम करने का ये क्या तरीका है? सरकार तो हम व्यंग्यकारों के साथ ज़रा भी सहयोग नहीं कर रही है। सरकार का अगर यही ढंग रहा तो एक दिन व्यंग्य लेखन दम तोड़ देगा। प्रदेश और केन्द्र दोनों सरकारों का यही हाल है। सरकार तो परसाई के समय थी, उसे कहते हैं सरकार। उस सरकार ने परसाई जी को भरपूर सहयोग दिया। आख़िर व्यंग्य लेखन के लिये क्या सामग्री चाहिये? एक मामला चाहिये, उस पर रचना लिखने के लिये दो तीन दिन का समय चाहिये, सम्पादक तक पहुँचाने के लिये दो दिन और अतिरिक्त मिलने चाहियें इतना होने के बाद एक व्यंग्य रचना पाठकों तक पहुँचती है। परसाई जी के समय में अर्जुनसिंह की सरकार, राजीव जी की सरकार, एक व्यंग्यकार की दिक्कतों का पूरा ध्यान रखती थी ख़ासकर के इस मामले में अर्जुनसिह जी की जितनी प्रशंसा की जाये कम है, उनके शासन काल में ही परसाई जी ने अपना सर्वश्रेष्ठ लेखन किया था। व्यंग्यकार का सरकार की बीच इतना उतना तालमेल फिर कभी नहीं बैठा। उन दिनों सरकारी लफड़ों कितने कलात्मक अंदाज़ में होते थे कि देखते ही बनता था, मानो हर लफड़ा फूँक फूँक कर किया गया हो। एक कांड होता, उस पे परसाई जी व्यंग्य लिखते, वह अखबारों में छपता, लोगों में उसकी चर्चा होती, परसाई जी को उसका पारिश्रमिक प्राप्त हो जाता, वे एक दो दिन थोड़ा सुस्ता लेते तब कहीं जाकर उस समय के मंत्री दूसरा लफड़ा करते थे। इसे कहते हैं लेखक का सम्मान। लेकिन आज वैसे मंत्री कहाँ? अब तो सारे लफड़े प्रति मिनट के दर से हो रहे है। व्यंग्यकार परेशान है। एक मामले में लिखने का सोचता है तब तक दूसरा लफड़ा हो जाता है। कागज़ कलम हाथ में लेता है तब तक तीसरा मामला सामने आ जाता है। अभी पहला अक्षर लिखने वाला ही रहता है कि ख़बर आती है कि चौथा केस पकड़ में आया है। अगर पहले मामले में लिख कर सम्पादक तक रचना पहुँचाओ तब तक इतने केस हो चुके होते हैं कि इस मामले को सम्पादक भूल चुका होता है और उसे यह रचना बेहद बासी आौर रसहीन लगती है। उसको लगता है कि रचना लेखक के मुँह पर मार दे। लेकिन वह लेखक की इतनी तो इज्जत करता ही है कि रचना मुँह पर नहीं मारता सिर्फ रद्दी की टोकरी में डालता है। वैसे कुछ सम्पादक ऐसे भी है जिन्हें रद्दी की टोकरी में लेखक का मुँह ही नज़र आता है और कुछ लेखक ऐसे हैं जिन्हें सम्पादक के मुँह में रद्दी की टोकरी दिखाई देती है वे कहते हैं टोकरी में रचना डाल आया हूँ छप गई तो छप गई, फट गई तो फट गई। व्यंग्य रचना के साथ ऐसा ही होता है, अगर नहीं छपती तो खुद फट जाती है और छप गई तो कईयों की फट जाती है।

अगर सरकार व्यंग्य लेखन के सूर्य को अस्त होने से बचाना चाहती है तो उसको इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिये और कुछ आवश्यक कदम उठाने चाहियें मसलन -

मंत्रीमंडल गठन से पहले संभावित मंत्रियों को भ्रष्टाचार का प्रशिक्षण देना चाहिये, जिसमें उन्हें बताया जायेगा कि दो मामले में कम से कम कितने दिनों का अंतराल होना चाहिये। मंत्री को थोड़ा साहित्य में भी ध्यान देना चाहिये। उसके पास ऐसे लोगों की टीम होनी चाहिये जो उस इस बात की जानकारी देते रहे कि लगभग सभी व्यंग्यकारों ने इस मामले में लिख लिया है अब आप दूसरे कांड में हाथ डाल सकते है। वरिष्ठ व्यंग्यकारों को यह सुविधा मिलनी चाहिये कि अगर उसके घर में कोई मांगलिक कार्य चल रहा हो तो उतने दिन के लिये सारे गलत काम रोक दिये जायें।

ऐसा है भाई साहब कि ताली दोनों हाथ से बजती है। अगर मंत्रीगण आपका सहयोग कर रहे हैं तो व्यंग्यकारों को भी चाहिये कि वो भी अपनी तरफ से सहयोग बनाये रखें। अगर उनकी कोई रचना चर्चित होती है और चारों तरफ से बधाई आने लगती है तो व्यंग्यकार बंधुओं को भी चाहिये कि वो उस मंत्री का जिसके विभाग की मेहरबानी से व्यंग्य लिखना संभव हुआ है उसको धन्यवाद देना न भूलें।

अगर सरकार मेरे सुझाव पर अमल करती है तो मेरे को पूरी उम्मीद है कि एक बार फिर से व्यंग्य लेखन धारधार हो जायेगा और पाठकों को फिर से अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी।

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