वो बुड्ढा...
क़ैस जौनपुरीवो बुड्ढा
वहीं पड़ा रहता था, अकेले
उसकी चारपाई भी
उसी के जैसी थी
टेढ़ी, अकड़ी हुई
कोई पूछने वाला नहीं
उसने कितनों को पूछा होगा
लम्बी उम्र गुज़ारी है उसने
आज उसका वक्त खराब है
शायद, उसके कर्मों का फल हो
लेकिन, दुनिया उसे भूल गई है
यही शिकायत है मुझे
सुबह - शाम कुछ खिला देते हैं
बस ज़िम्मेदारी खत्म
मुझे अजीब नज़रों से देखता है
शायद, उसकी कुछ मदद करूँ
मगर, मैं क्यूँ करूँ ऐसा
सबको अच्छा नहीं लगेगा
ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता
सिवाय, सहानुभूति के
शायद, वो यही चाहता हो
पर, वो भी तो आदमी ही है
उम्मीद लगा बैठेगा, तब क्या होगा
तब अफ़सोस, मुझे होगा
मैं इसके लिये, कुछ कर नहीं पाया
इससे तो अच्छा था
उसके पास, गया ही न होता
जाऊँगा भी नहीं
सुबह - शाम अपने रास्ते से
जाऊँगा...
देखूँगा...
जाऊँगा...