विस्मृति

01-06-2021

विस्मृति

उमेश पंसारी (अंक: 182, जून प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

सुनहरी सजीली भोर, सुहानी नहीं आई, 
तरुणों में उत्साह की, रवानी नहीं आई। 
नवयुवक को नभ देख रहा है आशा से, 
ज़िंदगी चलने लगी, ज़िंदगानी नहीं आई॥ 
 
लिखनी तुम्हें अपनी, कहानी नहीं आई,
चादर प्रेम - स्नेह की, बिछानी नहीं आई।
निसंदेह हुए हो सम्मुख, तुम इस वतन से,
आबरू तुम्हें वतन की, बचानी नहीं आई॥ 
 
हृदय की प्रबल अगन, जलानी नहीं आई,
सत्य चक्षुजल की धारा, बहानी नहीं आई।
विस्मृत कर दिया, जनहित इस समाज से, 
जवान तो हो गए, पर जवानी नहीं आई॥ 
 
देशद्रोह की जड़ें, हिलानी नहीं आई, 
विद्रोह की चट्टानें, गिरानी नहीं आई।
अविराम प्रवाहित, रक्त-धारा धरा से,
लुटना सीख गये, क़ुर्बानी नहीं आई॥ 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें