विकासशील सभ्यता

28-02-2014

विकासशील सभ्यता

सनत कुमार जैन

वो कैसे चलते है, कैसे बोलते है
कैसे हँसते है क्या करते है
अपने जीवन में उतारना सभ्यता है
सभ्यता कुछ वर्षो में तेजी से बढ़ी है
पैसे की धूल से पायजामें के नाड़े तक
सभ्यता जो हज़ारों साल तक
पैरों की धूल पर धूल खाती पड़ी थी
उसकी जगह चमड़े के जूते ने लेली है
सभ्यता जो कहकहों में कही जाती थी
मुस्कराहटों में विकसित हो रही है
सभ्यता जो कबाड़ रूपी नकारों के
घर में सजने से सजती थी
अब वृद्धाश्रम में शोभित है
सभ्यता जो घूँघट के अंदर भी शरमाती थी
अब लो-कट ब्लाउज में भी बैचेन होती है
सभ्यता जो ताजी रोटी से बमुश्किल ज़िन्दा थी
आज ब्रेड सेवन से हष्टपुष्ट पहलवान है
हर पुराने को आँखे खोलकर भी भूल जाओ
हर नए को आँखें बंदकर भी अपनाओ
हर पुरानी चोटी, लोकगीत, गिल्ली डंडा और बुढढा
हर नई बंदूक, दारू, जेल और अड्डा
जल्दी करो वरना -
सभ्यता दूसरो की रखैल बन जाएगी

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें