विभिन्न सामाजिक आंदोलन में समकालीन कविता की अभिव्यक्ति

01-08-2021

विभिन्न सामाजिक आंदोलन में समकालीन कविता की अभिव्यक्ति

डॉ. नितिन पाटील (अंक: 186, अगस्त प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

नई कविता के बाद उभरे विभिन्न आंदलनों में से एक महत्वपूर्ण आंदोलन के रूप में समकालीन कविता को देखा जाता है। इसकी शुरुआत छठे दशक से मानी जाती है इसीलिए साठोत्तरी कविता इसके समप्रचलित रही है। समकालीन कविता अपने काल प्रवाह के साथ साम्य बनाकर चलती है। यह कविता बदलते परिवेश की कविता है, जिसकी नींव पूर्ण रूप से यथार्थ पर टिकी है, इसीलिए इसे निश्चित रूप से परिभाषित कर पाना संभव नहीं है।

मुख्यतः 1975 के बाद समकालीन कविता का दौर शुरू होता है। यह कविता अपने युग और परिवेश के साथ संपृक्त है। साठोत्तरी कविता, युवा कविता तथा नक्सलवाड़ी आंदोलन का प्रभाव इसपर व्यापक रूप से दिखाई देता है। इस का स्वर आक्रोश से भरा है, जिसमें बौद्धिकता प्रभूत मात्रा में है। समकालीन कवियों ने जीवन की वास्तविकताओं का यथार्थ चित्रण किया है। इन्होंने व्यक्तिगत पीड़ा के साथ व्यवस्था से मिले मोहभंग तथा राजनैतिक कूटनीति के प्रति अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति की है। मध्यम वर्ग की चेतना को प्रमुख रूप से उजागर करते हुए, महानगरीय विद्रूपताओं का यथार्थ चित्रण इसमें किया गया है। समकालीन कविता को आठवें दशक की कविता मानें, तो आज तक इस पर कई आंदोलनों और बदलती परिस्थितियों का प्रभाव लक्षित होता है।

समकालीन कविता के दौर में 1980 से 1990 का कालखंड निर्णायक कालखंड माना जाता है। जिसे कुछ कवियों और समीक्षकों ने ‘लॉन्ग नाइंटीज़’ का नाम भी दिया है। नवें दशक में साम्यवाद के सबसे बड़े प्रतीक सोवियत संघ का पतन हुआ, तो इसका प्रभाव वैश्विक साहित्य के साथ-साथ भारतीय साहित्य पर भी पड़ा। यह प्रभाव हिंदी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं विशेषतः मराठी भाषा की कविताओं पर अधिक दिखाई पड़ता है। यह वह कालखंड था, जिसमें कवियों ने समाज में भय, विभ्रम और संशय को देखा था तथा जिसे उन्होंने बराबर अपने काव्य में अभिव्यक्त किया। सोवियत संघ के बिखरने से अमेरिका जैसी महासत्ता को पूरे विश्व में अपना वर्चस्व स्थापित करने का अवसर मिल गया। भूमंडलीकरण और बाज़ारवाद की नयी आँधी चल पड़ी। और इसी स्थिति का लाभ उठाकर नयी संस्कृति तथा नवउपनिवेशवाद का उदय हुआ। मानवीय संकटग्रस्तता और स्वप्नभंग की गहन पीड़ा को लेकर, 1980 से 1990 के बीच काव्य-सृजन किया गया। कवि मुख्य रूप से इस दौर में विकसित हो रहे बाज़ारवाद का विरोध करते हुए सामने आए। टूटते स्वप्न तथा मोहभंग की स्थिति से परेशान मज़दूर और किसानों को काव्य में प्रमुख स्थान मिलने लगा। साम्राज्यवाद और सांप्रदायिकता का खुलकर विरोध किया गया। यह भूमंडलीकरण का वह युग था, जिसमें तकनीकी उपकरणों के सहारे जनसमूह का आपसी जुड़ाव लक्षित हुआ और इन सबके मध्य समकालीन कविता में वर्चस्ववादी शक्तियों की अमूर्त साँठ-गाँठ की पड़ताल के साथ-साथ लोक संवेदना का मिला-जुला स्वर भी उभरा।

तत्कालीन सांप्रदायिकता और राजनीति में फैले भष्ट्राचार तथा राजनीतिक कूटनीति के प्रति समकालीन कविता में आक्रोश उत्पन्न हुआ। अपने परिवेश और व्यवस्था से लड़ने के लिए समकालीन रचनाकार वैचारिक आधार पर विरोध और विद्रोह का सहारा लेते हुए सामने आया जिससे आक्रोश, निषेध, व्यंग्य, विरोध और विद्रोह के स्वर कविता में उभरने लगे। इन कवियों ने दोषपूर्ण राजनीति और हताश जनता की त्रासदीपूर्ण स्थिति का वर्णन किया है।

वस्तुतः समकालीन कविता यथार्थ की सूचकता और सहजता के निकट है। वह लघुता, मोहभंग, संत्रास आदि बोधात्मक स्थितियों से अधिक कवि की काव्यात्मक प्रतिबद्धता और अभिरुचि को रेखांकित करती है। इसीलिए समकालीन कविता में जो कुछ भी हो रहा है, वह तत्कालीन से पूर्णतः संबंधित है। डॉ. विश्वंभर उपाध्याय समकालीन कविता को अपने समय के प्रमुख अंतर्विरोधों तथा द्वंद्वों की कविता स्वीकारते हुए, अपना मत अभिव्यक्त करते हैं कि “समकालीन कविता में जो हो रहा है, ‘बिकमिंग’ का सीधा ख़ुलासा है। इसे पढ़कर वर्तमान काल का बोध हो सकता है, क्योंकि उसमें जीते, संघर्ष करते, लड़ते, तड़पते, गरजते तथा ठोकर खाकर सोचते वास्तविक आदमी का परिदृश्य है।”1 आगे वे लिखते हैं, “समकालीन कविता में मनुष्य की प्रतिमा स्थिर, जड़, निष्क्रिय और दार्शनिक नहीं है। उसमें चित्रित आदमी की शक्ल है, जिसे आप पहचान सकते हैं, जान सकते हैं।”2

“समकालीन कविता समाज की मृत मान्यताओं, टूटती हुई परम्पराओं और सामाजिक, राजनीतिक भष्ट्राचार से क्षुब्ध युवा-मानस की अभिव्यक्ति है। यदि यह जुलूस, नारे, लाठी-चार्ज, कर्फ़्यू, मतदान, भीड़, संसद की बात करती है, तो इसलिए कि वह मनुष्य को सही परिवेश में रखना चाहती है।”3 समकालीन रचनाकार सामाजिक और राजनीतिक विद्रूपताओं के प्रति अपना गहन आक्रोश अभिव्यक्त करता है। समाज का ऐसा चित्रण करता है, जो मनुष्य के हृदय को झिंझोड़ता, कोंचता और तिलमिलाने के लिए मजबूर करता है। समकालीन कवि राजनीतिक विसंगतियों के प्रति व्यंग्यात्मक रूप में ऐसी अभिव्यक्ति करने में सक्षम हैं, जो मन को झिलाती है तथा त्रासद बनाती है। वह तनावग्रस्त वातावरण से व्यक्ति और समाज के संबंधों पर पड़े प्रभाव को परखता है। आधुनिक व्यक्ति के आत्मसंघर्ष और द्वंद्वात्मकता को समकालीन कवि सामाजिक चेतना की स्वराभिव्यक्ति में मथ कर प्रस्तुत करता है।

“किसी भी काल का साहित्य ऐसा नहीं है, जिसका संबंध प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीति से न रहा हो। कवि साधारण मनुष्य से अधिक जागरूक होता है, इसी कारण यह समाज के प्रत्येक अंग को अपनी रचना का विषय बना सकता है, फिर आज का कवि तो जिस घुटन, पीड़ा, और संत्रास का अनुभव कर रहा है, वह उसकी अपनी अकेले की पीड़ा नहीं सारे समाज की पीड़ा है। आज के कवि का यही दृष्टिकोण उसे समाज के अधिक निकट लाता है। जिस कारण राजनीति से उसका सीधा संपर्क हो जाता है।”4 समकालीन कविता में राजनीतिक संदर्भों, वृत्तों तथा परिस्थितियों का एक हुजूम दृष्टिगत होता है। साहित्य में राजनीति पर चली बहस को समकालीन कविता में अंतरूप तक लाने का प्रयास किया गया है। समकालीन कवि राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय राजनीति से अनभिज्ञ नहीं है और यही कारण है कि वह भारतीय राजनीति में विभिन्न देशों के उदाहरणों को व्यंजित करते हैं।

समकालीन कविता की सर्वप्रमुख उपलब्धि किसान और मज़दूरों के यथार्थ स्वर की वापसी है। भारतीय स्वतंत्रता के बाद देश को तो आज़ादी मिल गयी, किन्तु किसान और मज़दूर आज भी सामंतवादी जकड़बंदी से मुक्त नहीं हो पाये हैं। सदियों से उनके द्वारा जोती जा रही ज़मीन का मालिकाना हक़ तक किसानों को नहीं मिला है। दिन रात ख़ून-पसीना एक कर, मुसीबतों का सामना कर उगाई फ़सल से किसान वंचित हैं। समकालीन कविता में इस अमानवीय अत्याचार पर लगातार टिप्पणियाँ दर्ज हुई हैं। सत्ताधारी एवं पूँजीपति द्वारा विकास के नाम पर चल रही साँठ-गाँठ में किसान पिस रहा है। विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं की आड़ में रिश्वतख़ोरी और भष्ट्राचार को बढ़ावा देकर किसानों और मज़दूरों का आर्थिक शोषण चल रहा है। समकालीन कवियों ने किसान, मज़दूर एवं ग्रामीण अंचल की इन विद्रूपताओं का चित्रण किया है। आलोकधन्वा किसान जीवन की इसी विडम्बना को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं–

“यहाँ सिर्फ दाँत और पेट हैं
मिट्टी से धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-
एक मूसलाधार बारिश से
दूसरी मूसलाधार बारिश तक”5 

भूखमरी और रोज़गार के चलते भूमिहीन किसानों का शहरों की ओर पलायन लगातार जारी है। पूँजीपतियों के घर भरे हैं और किसान, मज़दूर बेघर होकर फ़ुटपाथ पर सोये हैं। गरीबी, भुखमरी, महँगाई, बेकारी आदि की मार आए दिन सह रहे हैं। निरंतर प्रहारों से त्रस्त अनाथ बना दिए गए भूमि-पुत्रों में आज आक्रोश पनप रहा है। ये विद्रोह करना और समाज में क्रांति लाना चाहते हैं। व्यवस्था और हो रहे अत्याचारों से लड़ना चाहते हैं। समकालीन कवियों ने अस्तित्व और अस्मिता खोते किसानों और मज़दूरों की इसी संवेदना को अपने काव्य में प्रस्तुत किया है–

“मैं सुन रहा हूँ
सुबह की पहली शहनाई 
गंदी आबादी में 
लम्बी तलवार या भालों से लैस
तैयार हैं रक्षक लाल 
गंदी आबादी के जले या उखड़े झोंपड़ों के पास
बाँस का भाला गाड़ रखा है जनता ने”6
.........
“उधर युवा डोमों ने इस बात पर हड़ताल की
कि अब श्मशान में अकाल-मृत्यु के मुर्दों को 
सिर्फ़ जलायेंगे ही नहीं
बल्कि उन मुर्दों के घर तक जायेंगे”7

इन कवियों की कविताओं में किसान और मज़दूरों की वापसी एक उल्लेखनीय पक्ष है। वे भूख, शोषण, अन्याय तथा हालात के शिकार व्यक्ति की जीवनगत विद्रूपताओं, विडंबनाओं और प्रतिरोधों को प्रकट कर रहें हैं।

इस समयकाल में फैली महानगरीय सभ्यता ने लोगों को अपनी ज़मीन से अलग कर दिया है। व्यक्तिवादी कुंठा, पराजय, निराशा, अलगाव, संत्रास आदि विकट स्थितियाँ समकालीन कविता में प्रमुखता से दर्ज हुई हैं। समकालीन कवियों ने न केवल समाज का वर्णन किया बल्कि व्यक्ति मानस की द्विधाओं का भी गहराई से चित्रण से किया है। भोगे हुए यथार्थ को और जीवन की यातनाओं को सामाजिक बोध का विषय बनाया है, जिसके परिणामस्वरूप यह कविता स्वानुभूति से अधिक सामाजिक अनुभूति की ओर झुकी दिखाई पड़ती है।

समकालीन कविता को वामपंथी चेतना की उपज मानते हुए कुछ आलोचकों ने इसका संबंध नक्सलबाड़ी आंदोलन से जोड़ा है। इस आंदोलन में, आंचलिक स्तर पर किसानों ने जिन-जिन जीवन यातनाओं को भोगा, वही समस्याएँ और यातनाएँ महानगरीय जीवन में मज़दूरों के हिस्से में आयी हैं। यांत्रिकीकरण के चलते हाशिये पर धकेले गए मज़दूर वर्ग की पुकार को समकालीन कविता ने महानगरीय जीवन-बोध के अंतर्गत अभिव्यक्त किया है।

समकालीन कविता अपने समय के विभिन्न संदर्भों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद फैले सत्ता के शूद्र स्वार्थों और सामान्य जनता के मोहभंग को मुखर वाणी देती है। वस्तुतः सातवाँ दशक समकालीन कविता का वह समय-काल था, जब विभिन्न सामाजिक आंदोलन समाज को एक नई दिशा और चेतना प्रदान कर रहे थे। इन आंदोलनों के पीछे विशेष प्रकार की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ भी कार्यरत थीं। प्रगतिशील कवियों की जनवादी चेतना के प्रतिक्रियास्वरूप ये आंदोलन समकालीन कविता में अभिव्यक्त हो रहे थे। इन आंदोलनों में भारत-चीन युद्ध, नक्सलबाड़ी आंदोलन, आपातकाल की स्थिति, विरोधी पार्टियों की दल-बदल नीतियाँ और साथ ही दक्षिण के तेलंगाना जैसे संघर्ष प्रमुख थे।

समकालीन कविता और सामाजिक आंदोलनों के सहसंबंध पर रोहिताश्व कहते हैं, “वस्तुतः स्वतंत्रता प्राप्ति के 42 वर्षों के बाद भी विहंगम पर्यवेक्षण करें तो राजनैतिक क्षेत्र में कांग्रेस दल का प्रजातंत्रीय आपाधापी का खेल, भारत के शहीद और सच्चे क्रांतिकारियों के प्रति सत्ता का उपेक्षा भाव, तेलंगाना का सशस्त्र आंदोलन,......राष्ट्र मंडल की सदस्यता, मिश्रित उद्योग नीति, अहिंसा और पंचशील के लचर सिद्धांत, गुलाम भारत के संविधान पर आधारित भारतीय गणतंत्र का संविधान, भारतीय समाज की यथा स्थितिवादिता, इन सबके बावजूद एक ही प्रवृत्ति के अनेक लोगों का अनेक दशाब्दियों तक पार्टी बदल कर सत्ता में रह जाना और अन्ततः 1962 में भारत-चीन सीमा संघर्ष और उसमें भारत की शर्मनाक पराजय, मोहभंग, विसंगतिबोध, नेहरू युग की समाप्ति तथा कम्युनिस्ट वामपंथी शक्तियों-गुटों में 1964 से बिखराव की लम्बी प्रक्रिया, समकालीन कविता के प्रस्थान बिंदु के महत्वपूर्ण तत्व तो हैं ही, साथ ही साथ सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में समस्त भारतीय प्रदेशों में सूखा-बाढ़, अकाल की विभीषिका, हरिजन दहन, जन-असंतोष, सत्ता का क्रूर दमन-चक्र, बुद्धिजीवियों की अवसरवादिता, उदासीनता, आत्मपरायेपन, प्रशासन में भ्रष्टाचार एवं मुद्रा के वास्तविक मूल्य में निरंतर कमी, विदेशी ऋण एवं करों की लगातार अधिकता की स्थिति रही है।”8 अर्थात समकालीन हिंदी कविता में उभरे स्वरों के लिए उपर्युक्त सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों ने उर्वरा-भूमि का कार्य किया और तत्पश्चात बदली परिस्थितियों में विदेशी कर्ज़ की बढ़ोतरी, रुपये का अवमूल्यन, कानपुर में विद्यार्थियों के आंदोलन आदि के फलस्वरूप भारतीय समाज का शंकाकुल चेहरा प्रकट हुआ।

1971 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ग़रीबी हटाओ का नारा लगा और 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा हुई। वास्तव में यह वह काल था, जिसमें समकालीन कविता ने सामाजिक समस्याओं को एक आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया। आपातकाल की स्थिति में सत्तासीन ने प्रजातांत्रिक मूल्यों को नष्ट करने में कोई कमी नहीं छोड़ी, जिस पर समकालीन कवियों ने जमकर लेखनी चलाई। इस समय में प्रगतिशील युग के कवि नागार्जुन भी कहते हुए नज़र आए–

“काम नहीं आएँगे शिथिल संकल्प
तरल भावुकता
शीतोष्ण आंदोलन
वाक्य-विन्यास का कौशल्य
गणित की निपुणता
कुलीनता के नखरे
मोटे सलखोवाली काली दीवार के उस पार
कोई गुंजाइश नहीं होगी
उत्पीड़न की छाया-छवियाँ उतारने की
क्रांति और विप्लव का फिल्मीकरण
कहीं और तो होता होगा।”9

आपातकाल के बाद (1977 में) लोकसभा भंग हुई और 1980 में इंदिरा गांधी पुनः जीतकर सत्तासीन हो गईं। इस बार इंदिरा गांधी ने सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत करनी चाही। जिसके लिए उन्होंने विभिन्न सामाजिक नेताओं और आंदोलनों को दबाने का प्रयास किया, परिणामस्वरूप नक्सलवाड़ी आंदोलन, तेलंगाना आंदोलन, पंजाब की समस्या के साथ अन्य आंदोलन और आंदोलन कर्ताओं को प्रोत्साहन मिला। इस प्रोत्साहन से साहित्यिक वर्ग भी अछूता न रहा। इस काल में समकालीन कवियों ने इंदिरा गांधी तथा उनकी सत्तात्मक कमियों को प्रत्यक्ष-परोक्ष ढंग से काव्य का विषय बनाया।

ऑपरेशन ब्लू स्टार की प्रतिक्रियास्वरूप 1984 में इंदिरा गांधी हत्या कर दी गई, सत्ता में पुनः परिवर्तन हुआ पर भारतवासी विभिन्न समस्याओं से घिरे रहे। जहाँ एक ओर पंजाब और गोरखा लैंड की समस्याएँ क़ायम थीं, वहीं दूसरी ओर तमिल समस्या देश के लिए चिंता का विषय बन गयी। बोफ़ोर्स जैसा बड़ा घोटाला सामने आया।

1960 से लेकर 1990 के कालखंड में जो सामाजिक आंदोलन हुए, उन्होंने समकालीन कविता को मुखर वाणी प्रदान की। विभिन्न आंदोलनों और उनसे उत्पन्न स्थितियों ने समकालीन कविता को सामाजिक संवेदना के साथ एक नए आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया। इन सामाजिक संघर्षों में समकालीन कविता ने मानवीय संघर्ष, विद्रोह, आक्रोश, सामाजिक चेतना और मनुष्य को मनुष्यता प्रदान करनेवाली बोधात्मक दृष्टि को देखा। समकालीन कविता में 1990 से 2000 का काल राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा संस्कृतिक दृष्टि से उथल-पुथल का काल रहा। 21 मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद पुनः परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ किन्तु आतंकवाद, घोटालों, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक आपदा आदि का दौर चलता रहा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका-इराक़ के बीच चल रहे युद्ध से सयुक्त राष्ट्र संघ और छोटे-बड़े राष्ट्रों में तनाव का वातावरण बढ़ता रहा।

इसी दशक में दुनिया के साम्यवादी व्यवस्था के प्रतीक सोवियत संघ का विभाजन हुआ। जिससे समकालीन कवियों का वह सपना भंग हो गया, जो उनकी पलको में पनप रहा था। शायद यही कारण है कि इस काल की कविताओं में विद्रोह, ताप, तथा चेतना का स्वर कहीं कम और कहीं अधिक नज़र आता है। आलोकधन्वा, राजेश जोशी तथा अरुण कमल जैसे कवियों ने विघटन के बाद अपनी कविता का रुख जीवन, समाज, प्रकृति तथा यथार्थ की ओर मोड़ लिया।

वैश्विक बदलाव से देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक स्थितियों पर गहरा प्रभाव पड़ा। राष्ट्रीय स्तर पर भी घटनाक्रमों का सिलसिला जारी रहा। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जनता में सांप्रदायिकता के बादल मँडराने लगे, धर्म की बिसात पर समाज के विभाजन ने नई मानवीय चुनौतियों को ला खड़ा किया। आंतरिक और बाहरी विघटनकारी शक्तियाँ पुनः सक्रिय हो उठीं। दक्षिण में तेलंगाना आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा। इसके पश्चात देश के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ा। परमाणु परीक्षण कर भारत ने विश्व में अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। कारगिल जैसे विषयों पर ईंट का जवाब पत्थर से दिया गया और विजय की पताका लहरायी गयी। अर्थात्‌ समकालीन कवियों के लिए यह युग मोहभंग के साथ आंशिक रूप से तनाव का रहा। बाज़ारवाद तथा विदेशी नीति का प्रखर विरोध सामने आया। मज़दूर, किसान, आदिवासियों के साथ दलित के प्रति लोकसंवेदना का विस्तार हुआ। समकालीन कविता मूलतः एक आंदोलन के रूप में उभरी, जिसमें समाज का अंग-प्रत्यंग भागीदार बना तथा इन दोनों ने एक-दूसरे को अभिव्यक्ति दी।

संदर्भ:

  1. डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय, मंजुल उपाध्याय (संपादक) - समकालीन कविता की भूमिका, पृ. सं. 3

  2. वही - पृ. सं. 4

  3. हिंदी कविता : 60 के बाद - संपादक - वचनदेव कुमार, पृ. सं. 52, 53

  4. सुखबीर सिंह - हिंदी कविता की समकालीन चेतना, पृ. सं. 100

  5. आलोकधन्वा - दुनिया रोज बनती है, पृ. सं. 27

  6. विष्णू चंद्र शर्मा - तत्काल, पृ. सं. 25

  7. आलोकधन्वा - दुनिया रोज बनती है, पृ. सं. 34

  8. रोहिताश्व - समकालीन कविता और सौंदर्यबोध, पृ. सं. 29

  9. शोभाकांत - नागार्जुन रचनावली, भाग 2, पृ. सं. 89 

डॉ. नितिन पाटील
(सहायक अध्यापक) हिंदी विभाग,
सेंट फ्रांसिस महाविद्यालय, 
कोरमंगला, बेंगलुरु - 560034

 

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