वेदान्त दर्शन और स्वामी विवेकानंद का प्रगतिशील दृष्टिकोण

30-08-2016

वेदान्त दर्शन और स्वामी विवेकानंद का प्रगतिशील दृष्टिकोण

उमेन्द कुमार चन्देल

भारत में प्रायः जितने दार्शनिक सम्प्रदाय हैं, वे सभी वेदान्त दर्शन के अंतर्गत आते हैं। वेदान्त की कई प्रकार की व्याख्याएँ हुई हैं और प्रायः-प्रायः सभी प्रगतिशील रही हैं। वेदान्त दर्शन के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानंद का नाम प्रमुखतः विद्वानों के ज़ेहन में आता है।

वेदान्त का शाब्दिक अर्थ है "वेद का अंत"। वेद हिंदुओं के आदि धर्मग्रन्थ हैं। भारत एक धर्मप्रधान देश है, जिसमें प्रत्येक को धार्मिक स्वतंत्रता रहती है कि वह किसी भी धर्म को मान सकता है या अनुसरण कर सकता है। प्रत्येक धर्म किसी न किसी दर्शन से प्रभावित होता है। विवेकानंद जी के विचार इस क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। उन्होंने हमारे भारत में ही नहीं, वरन् भारत के बाहर भी जाकर वेदान्त के सम्बन्ध में अपनी वाणी का ऐसा जादू चलाया, जिससे सभी उस पर सोचने के लिए मजबूर हो जाते थे। स्वामी विवेकानंद जी ने "वेद को दो अंशों में विभक्त माना है- कर्मकाण्ड तथा ज्ञान काण्ड। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत ब्राह्मणों के प्रख्यात मंत्र तथा अनुष्ठान आते हैं। जिन ग्रंथों में अनुष्ठानादि से भिन्न आध्यात्मिक विषयों का विवरण है, उन्हें उपनिषद् कहते हैं। उपनिषद् ज्ञानकाण्ड के अंतर्गत हैं। सभी उपनिषदों की रचना वेदों से पृथक हुई हो, ऐसा नहीं है। कुछ उपनिषद् तो ब्राह्मणों के अन्तर्गत हैं। कम से कम एक उपनिषद् तो संहिता भाग या ऋचाओं के ही अन्तर्गत है। कभी-कभी उपनिषद् शब्द उन ग्रंथों के भी लिए प्रयुक्त होता है, जो वेद के अन्तर्गत नहीं हैं, जैसे गीता। किन्तु साधारणतः उपनिषद् शब्द का प्रयोग वेदों के मध्य विकीर्ण दार्शनिक प्रकरणों के लिए ही होता है। इन दार्शनिक प्रकरणों का संकलन हुआ है और उसे वेदान्त कहते हैं।"1

विवेकानंद जी बचपन से ही बुद्धिमान थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था। तभी तो उनके व्यक्तित्व के सम्बंध में रामकृष्ण परमहंस जी कहते हैं- "विवेकानंद की प्रकृति सिंह के सदृश्य थी। वह एक ही छलाँग में व्यंग्यपूर्ण अस्वीकार से उपलब्धि के क्षेत्र में पहुँच गया। परन्तु यदि अन्दर से बारूद की सुरंग न बिछाकर केवल बाहर से ही उसके दुर्ग पर आक्रमण किया जाता, तो उसमें कभी ऐसा स्थायी रूपान्तर न आ सकता। वेदना के तात्कालिक तीव्र कशाघात ने उसे आरामदेह और बुद्धिवादिता के विलास से, जिनका कि उसे अभिमान था, मुक्त कर दिया और उसे पाव व अस्तित्व की दुःखदायक समस्या के सम्मुख लाकर खड़ा कर दिया।"2

इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि स्वामी विवेकानंद जी बचपन से दर्शन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाये हुए थे। वेदान्त की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं। इसके विचारों की अंतिम अभिव्यक्ति व्यास के दार्शनिक सूत्रों में हुई है। वेदान्त मत का प्रामाणिक ग्रंथ उत्तरमीमांसा है। उत्तरमीमांसा हिंदु धर्मशास्त्र का भी सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रंथ है। कट्टर विरोधी धर्म-सम्प्रदायों ने भी विवश होकर व्यास की उक्तियों को अपनी विचार पद्धति के साथ मिलाने का प्रयत्न किया है। वेदान्त के व्याख्याकार तीन प्रसिद्ध हिन्दु सम्प्रदायों में बँट गये थे। इन सम्प्रदायों के नाम द्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद तथा अद्वैतवाद हैं। पुरानी व्याख्याएँ तो शायद लुप्त हो गई हैं, किंतु अर्वाचीन काल में बौद्ध धर्म के उत्थान के बाद शंकराचार्य, रामनुजाचार्य तथा मध्वाचार्य ने उनका पुनरुद्धार किया है।

शंकराचार्य ने अद्वैतवाद को, रामनुजाचार्य ने विशिष्टताद्वैतवाद को तथा मध्वाचार्य ने द्वैतवाद को पुनः स्थापित किया। भारतीय सम्प्रदायों के पारस्परिक भेद का कारण उनकी विचार-पद्धति है। कर्म के विषय में उनमें कम भेद हैं, क्योंकि उनके धर्मशास्त्र का आधार वेदान्त ही है। वेदान्त को अंग्रेज़ी भाषा में ‘क्रियेशन’ (Creation) कहते हैं और संस्कृत में ‘प्रक्षेपण’ कहते हैं। "हिंदु धर्म-वेदान्त के ही प्रभाव से खड़ा है। चाहे हम जानें या न जानें, परन्तु हम वेदान्त का ही विचार करते हैं, वेदान्त ही हमारा जीवन है, वेदान्त ही हमारी साँस है, मृत्यु तक हम वेदान्त ही के उपासक हैं और प्रत्येक हिंदु का यही हाल है। अतः भारतभूमि में भारतीय श्रोताओं के सामने वेदान्त का प्रचार करना मानों एक असंगति है, परन्तु किसी का प्रचार करना है तो वह इसी वेदान्त का विशेषतः इस युग में इसका प्रचार अत्यन्त आवश्यक हो गया है।"3

स्वामी विवेकानंद जी किसी भी धर्म की उपेक्षा नहीं करते थे और लोगों को धर्म के मार्ग से विमुख होने से बचाने के लिए वेदान्त दर्शन के माध्यम से सही रास्ते में चलने के लिए प्रेरित करते थे। विवेकानंद जी कहते हैं कि हम लोग वेदान्त के बिना न तो साँस ले सकते हैं और न ही मृत्यु को प्राप्त कर सकते हैं। जो भी जीवन में घटित हो रहा है, उस सब में कहीं न कहीं वेदान्त का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है। "वेदान्त हमें यह बतलाता है कि समाज या कर्म के किसी क्षेत्र में शक्ति की जो विशाल राशि प्रदर्शित होती है, वह वस्तुतः भीतर से बाहर आती है, इसलिए जिसे अन्य सम्प्रदाय अंतः स्फुरण कहते हैं, उसे वेदान्त मनुष्य का बहिःस्फुरण कहने की स्वतंत्रता लेता है। फिर भी वह किसी सम्प्रदाय से झगड़ता नहीं, वेदान्त का उन लोगों से भी झगड़ा नहीं, जो मनुष्य की इस दिव्यता को नहीं समझते हैं। ज्ञात या अज्ञात रूप से हर मनुष्य इस दिव्यता को व्यक्त करने का प्रयत्न कर रहा है।"4

स्वामी विवेकानंद का मत सही है कि वेदान्त ही हमें अपने धर्म के प्रति कर्त्तव्यशील रहने का संदेश देता है। स्वामी विवेकानंद जी ने दो भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के मत एवं विचार को भी बताया है और दोनों में अंतर भी किया है। मनुष्य की आंतरिक शक्ति अंदर से निकलती है, जिसे प्रत्येक मनुष्य समाज में रहकर व्यक्त करने का प्रयास करता है। वेदान्त यह भी हमें बताता है कि हम लोगों को धार्मिक विचारों की अनंत विविधता को स्वीकार करना चाहिए और हर एक को एक ही विचारधारा के अन्तर्गत लाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि लक्ष्य तो एक ही है। जैसा कि एक वेदान्ती अपनी काव्यमयी भाषा में कहता है- "जिस प्रकार बहुत सी नदियाँ, जिनका उद्गम विभिन्न पर्वतों से होता है, टेढ़ी या सीधी बहकर अंत में समुद्र ही में गिरती हैं, उसी प्र्रकार ये सभी विभिन्न सम्प्रदाय तथा धर्म, जो विभिन्न दृष्टि-बिन्दुओं से प्रकट होते हैं, सीधे या टेढ़े मार्गों से चलते हुए भी अन्ततः तुम्हीं को प्राप्त होते हैं।"5

स्वामी विवेकानंद इन पंक्तियों से यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि चाहे मनुष्य का कोई भी धर्म हो, हिंदु, मुस्लिम, सिक्ख या ईसाई सभी धर्मों का एक ही लक्ष्य रहता है, जिससे अंत में मुक्ति मिल सके।

स्वामी विवेकानंद की प्रगतिशीलता का ही यह परिणाम है कि आज भी इतने वर्षों के बाद उनके मत का महत्व बना हुआ है। वेदान्त के व्यावहारिक पक्ष की आज भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी पहले पुराने समय में थी। शायद पहले की अपेक्षा आज कही अधिक आवश्यकता है, क्योंकि ज्ञान के विस्तार के साथ विशेषाधिकार का यह दावा अत्यधिक घनीभूत हो गया है। सुर और असुर में कोई भेद नहीं है, भेद केवल निःस्वार्थ और स्वार्थ में है। इसी के कारण सुर और असुर में अंतर नज़र आ जाता है जितना सुर जानता है उतना ही असुर के पास भी ज्ञान रहता है, लेकिन दोनों के दृष्टिकोण में अंतर रहता है। आधुनिक संसार पर वही भावना लागू करनी चाहिए, जो मानव मात्र के लिए उपयोगी हो। अपवित्र ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्यों को असुर बना देता है। आज के इस आधुनिक युग में व्यक्ति अपनी जरूरत से अधिक मशीनी चीजों का आविष्कार कर रहे हैं। इन आविष्कारों के कारण वे अपनी शक्ति को दिनों-दिन बढ़ा रहे हैं, साथ ही ये आविष्कार कहीं न कहीं मानवता के लिए ख़तरा भी हैं। वेदान्त इसके विरूद्ध प्रचार करते हैं कि मनुष्यों की आत्मा पर अत्याचार करना समाप्त किया जाय। "वेदान्त के दार्शनिकों ने उपर्युक्त प्रश्न का हल करते हुए नीतिशास्त्र के मूल आधार का भी आविष्कार किया। यद्यपि सभी धर्म ‘हत्या मत करो; हिंसा मत करो; अपने पड़ोसियों को अपने जैसा ही प्यार करो’ इत्यादि नैतिकता मूलक आचार की शिक्षा देते हैं।"6

वेदान्त के दार्शनिकों का मत स्पष्ट है कि हमें सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए साथ ही किसी भी धर्मं के व्यक्ति को हीन भावना से नहीं देखना चाहिए और अपने जैसे ही अपने पड़ोसी की मान-प्रतिष्ठा का भी ख़्याल रखना चाहिए।

"वेदान्त का प्रतिपाद्य है ‘विश्व का एकत्व’, विश्वबंधुत्व नहीं। मैं भी वैसा ही हूँ, जैसा एक मनुष्य है, एक जानवर है- बुरा भला या और कुछ भी सब परिस्थितियों में यह एक ही देह, एक ही मन और एक ही आत्मा है। आत्मा का अन्त नहीं। कहीं कोई विनाश नहीं, देह का भी अंत नहीं। मन भी मरता नहीं। देह का अंत हो कैसे? एक पत्ती झड़ जाय तो क्या पेड़ का अन्त हो जायगा? यह विराट विश्व ही मेरी देह है। देखो, कैसी इसकी अविकल परम्परा है। सारे मन मेरे मन हैं। सब के पैरों से ही मैं चलता हूँ। सब के शरीर में मेरा ही निवास है।"7

वेदान्त के माध्यम से स्वामी विवेकानंद जी ने इन्हीं विशेषताओं को बताते हुए पूरे विश्व को एक होने का संदेश प्रेषित किया है, क्योंकि वह इसको स्पष्ट भी कर रहे हैं कि स्वयं हम सभी जीवों की तरह हैं। प्रत्येक जीव के अंदर एक आत्मा निवास करती है, जिसका अन्त नहीं होता, किसी प्रकार का विनाश नहीं होता। विवेकानंद जी ने एक प्रश्न उठाया है कि लोग भयभीत क्यों होते हैं? इसका सीधा जवाब भी सामने रखा है कि उन्होंने अपने को असहाय और पराश्रित बना लिया है। हम लोग इतने आलसी है कि स्वयं कुछ करना नहीं चाहते हैं। हम अपना प्रत्येक काम के लिए किसी न किसी के सामने गिड़गिड़ाते हैं, यह आधुनिकाता का प्रभाव है।

निष्कर्षतः-

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि स्वामी विवेकानंद, वेदान्त दर्शन के माध्यम से सभी सम्प्रदायों को आपस में जोड़ना चाहते थे। स्वामी विवेकानंद का प्रभाव वेदान्त दर्शन के ही माध्यम से नहीं, वरन् अन्य कई कारणों से आज भी बना हुआ है। वस्तुतः चाहे स्त्रियों के हित की बात हो, चाहे युवाओं को जगाने की या फिर किसी अत्याचार या रूढ़िवादी विचार के विरूद्ध खड़े होने की, सभी के लिए उनके विचारों की उपयोगिता सदैव बनी रहेगी।

संदर्भ ग्रंथ सूची:-

1. विवेकानंद साहित्य- नवम खंड, अद्वैत आश्रम-पिथौरागढ़, पृष्ठ संख्या-63
2. विद्यालंकार धनराज, रामकृष्ण परमहंस, लोक भारती प्रकाशन- इलाहाबाद चतुर्थ संस्करण-1982
3. व्योमरूपानंद स्वमी- वेदान्त, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्णमठ-नागपुर, चतुर्थ संस्करण-1982, पृष्ठ संख्या-13
4. वही- 57
5. वही- 59
6. विवेकानंद साहित्य-नवम खंड पृष्ठ- 114
7. वेदान्त-स्वामी विवेकानंद पृष्ठ संख्या- 102-103

शोधार्थी
उमेंद कुमार चंदेल
हिन्दी-विभाग
इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय,
खैरागढ़ (छ.ग.), मो.- 9589698005

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