वर्षा ऋतु भादवा संग छम-छम आवै बिरखा बींदणी

01-09-2019

वर्षा ऋतु भादवा संग छम-छम आवै बिरखा बींदणी

रावत गर्ग उण्डू 

श्रावण मास को विदा कर ख़ुशगवार भादवा देश भर में पूरी तरह से दस्तक दे चुका है। सावन मे हुई अच्छी बरसात से किसान तो प्रमुदित हुए ही हैं, जन-मन भी पावस के प्रथम स्पर्श से आह्लादित हो उठा है। वर्षा ऋतु सदियों सैन्य कवियों,  कलाकारों एवं साहित्यकारों को स्फूर्त करती है। विभिन्न युगों में समय-समय पर,  अनेक साहित्यकारों,  कलाकारों ने इस ऋतु का बेख़ूबी से गुणगान करके अपनी लेखनी से धन्य किया है। पावस का आगाज़ मनुष्य ही नहीं, जड़-चेतन सभी को बहुत आनंदित करता है। पेड़-पौधे जो जेठ तक विरक्त फ़कीरों-से सर झुकाये खड़े रहते हैं,  सावन-भादवा  का महीना आते ही परवान चढ़ते सुसम्पन्न गृहस्थियों की तरह फले-फूले नज़र आ रहे हैं। पक्षियों का किलोल,  उत्साह भी बड़े चरम पर पहुँच जाता है। सावन-भादवा का सानिध्य पाकर मोर मदमस्त होकर नाचने लगते हैं,  पपीहे की पीहू-पीहू इस आनंद को चार चाँद लगा देते हैं,  साथ ही पेड़ पर बैठी कोयल की कूक भी हृदय को मिठास भरी उमंग से भरती है। जब ये पूरी प्रकृति बहुत सुंदर हरियल होकर झूम रही होती है तो भला मनुष्य इस उल्लास से क्यों नहीं झूमेगा। 

इसी समय संगीत की दुनिया की ओर रुख़ करें तो इस ऋतु में अनेकानेक गीत इस आनंद से पैरों में घुँघरू बाँध कर नचाते हैं- 'सावन-भादवा में तीज झूले पड़े,  "सावन का महीना पवन करे शोर...",  "ओ सजना बरखा बहार आई रस की फुहार लाई...",  "रिमझिम के गीत गाये भीगी रातों में...", "आई बरखा बहार", "काली घटा छाये मोरा मन तरसाये"  आदि अनेक प्रकार के लोकप्रिय गीत जो ख़ासकर वर्षा ऋतु पर लिखे गए हैं। शृंगार रस एवं अनुपमेय उपमाओं के धनी महाकवि कालिदास ने अपने काव्य 'मेघदूत' में मेघ को विरही यक्ष का दूत बनाकर जो वर्णन किया है,  वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। हिमालय पर्वत की तलहटी में स्थित अलकापुरी के राजा कुबेर द्वारा समय पर शिव आराधना हेतु पुष्प नहीं लाने पर एक नवविवाहिता यक्ष को दक्षिण दिशा मे एक वर्ष तक चले जाने का आदेश दिया जाता है। उधर अपनी नवविवाहिता पत्नी के विरह में यक्ष ने मेघ को प्रणयदूत बनाकर उसके माध्यम से अपनी प्रेयसी को संदेश भिजवाता है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी भी इसी महीने में आती है।

कालीदास का यह काव्य शृंगार रस का चरम है। इन्होंने अपने एक अन्य महाकाव्य 'ऋतुसंहार' में भी वर्षा ऋतु का बहुत ही उम्दा वर्णन किया है।

अरब सागर से उठने वाला यह मानसून भारतीय जनमानस प्राण तुल्य है। देश के व्यवसायिक एवं औद्योगिक जगत का भी यही आधार है। कृषकों की आँखें इसके इंतज़ार में पावस के दस्तक से ही चमकती हैं, और वे फूले नहीं समाते। मानसून की कृपा उनके जीवन को धन्य कर देती है। जेठ-बैशाख की चिलचिलाती धूप में खेतों मे गिरे उनके श्रम के पसीने की बूँदें मेहरबानी से मोती बन जातीं हैं। वर्षाऋतु एवं विरही जनों का भी अद्भुत संयोग संबंध है। अपनी प्रेयसियों से परदेश दूर बैठे विरहीजनों के मन-प्राणों मे सावन आग लगा देता है। 'हीरो' फ़िल्म के गीत के बोल किसी विरही की संवेदनाओं का सटीक बयां करता है -

" एक तो सजन मेरे पास नहीं रे, 
दूजे मिलन की कोई आस नहीं रे
उस पर यह सावन आया,  
आग लगाई,  हाय! लंबी जुदाई।"

रामचरित मानस मे तुलसीदासजी ने वर्षाऋतु को अध्यात्म से ज्ञान विरल संदेश दिया है। सीता विरह में प्रवर्षण पर्वत पर स्थित लक्ष्मण के साथ बैठे प्रभु श्रीराम द्वारा लक्ष्मण को कुछ यूँ कहा-

'घन घमंड नभ गरजत घोरा,  पियाहीन मन डरपत मोरा'

और इस तरह से वर्षा ऋतु एवं विरहीजनों के संबंध को अमर बना दिया है। इस ऋतु के माध्यम से स्वयं श्रीराम द्वारा कही यह पंक्तियाँ अध्यात्म, भक्ति एवं का अनूठा संदेश दिया है -

'दामिनि दमक रह न घन माहि।
खल के प्रिति जथा थिर नाही॥’

इनका तात्पर्य यह है कि जिस तरह बिजली चमककर एक क्षण भी बादल में नहीं ठहरती है,  दुर्जन व्यक्ति से प्रीत भी कभी स्थिर नहीं होती।

'ससि संपन्न सोह महि कैसे।
 उपकारी के संपति जैसे॥’

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भ्राता लक्ष्मण को कहते हैं कि धन धान्य से हरी-भरी पृथ्वी ऐसे सुशोभित हो रही है जैसे कि उपकारी की संपत्ति। उपकारी संपत्ति का अर्जन कर उन्हें कल्याणकारी विसर्जन के लिए करते हैं, पृथ्वी भी शीघ्र ही अपने धन-धान्य एवं फल-फूलों को अपनी प्रजा में बाँट देती है। मानस में ही नहीं बल्कि अन्य कई ग्रंथों में भी वर्षा ऋतु के माध्यम से ज्ञान के अविस्मरणीय आख्यान लिखे गए है।

राजस्थान के प्रसिद्ध कवि कन्हैयालाल सेठिया ने तो वर्षा ऋतु को राजस्थानी भाषा में "बिरखा बींदणी" से संबोधित कर धन्य कर दिया। बींदणी यानी नवविवाहिता बहू को राजस्थानी भाषा में कहते हैं। उन्हीं के शब्दो में-

"लूम-झूम मदमाती, 
मन बिलमाती सौ बळ खाती 
गीत प्रीत रा गाती, 
हँसती आवै बिरखा बींदणी।
ठुमक-ठुमक कर पग धरती, 
नखरौ करती हिवड़ौ भरती,  
बींद ज्यूँ पगलिया भरती, 
छम-छम आवै बिरखा बींदणी॥
घर-घर घूमर रमती, रुकती थमती
बीज चमकती,  झब-झब पळकां करती
भंवती आ आवै बिरखा बींदणी॥"

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