वक़्त भी कैसी पहेली दे गया
चाँद 'शेरी' वक़्त भी कैसी पहेली दे गया
उलझने सौ जाँ अकेली दे गया।
ब्याह बेटी का रचना था हमें
कर्ज़ की ख़ातिर हवेली दे गया।
पढ़ के रेखाएँ वो मेरे हाथ की
और भी खाली हथेली दे गया।
चल दिया वो कह के कड़वी बात यूँ
जैसे मुझ को गुड़ की भेली दे गया।
ख़ार क्यूँ बोते हो उसकी राह में
जो तुम्हें बेला चमेली दे गया।
और करता लालची ससुराल क्या
आग में दुल्हन नवेली दे गया।
ग़मग़लत करने को वो ’शेरी’ मुझे
शायरी जैसी सहेली दे गया