उर्दू के खु़दा-ए-सुख़न - ‘मीर’

15-04-2012

उर्दू के खु़दा-ए-सुख़न - ‘मीर’

चंद्र मौलेश्वर प्रसाद

शेर मेरे हैं सब ख्वास-पसंद
गुफ़्तगू पर मुझे आवाम से है
सहल है ‘मीर’ का समझना क्या
हर सुख़न उसका एक मुकाम से है॥

यह सच है कि ‘मीर’ की हर रचना उर्दू शायरी में अपना एक मुकाम रखती है। मीर तकी़ ‘मीर’ का जन्म सन्‌ १९२४ ई. में हुआ था। वह एक ऐसा समय था जब उर्दू साहित्य में हिन्दी शब्दों का अधिकतर प्रयोग होता था पर शायरी में फारसी का चलन भी शुरू हो चुका था।

पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख्तों को लोग
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां..
किस-किस तरह से उम्र को काटा है ‘मीर’ ने
तब आखिरी ज़माने में रेख्ता कहाँ।

उस समय शायरी को ‘रेख्ता’ कहा जाता था, जो आगे चलकर उर्दू शायरी की जननी बनी, जिसमें फारसी शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल होने लगा। इसीलिए ‘मीर’ की शायरी में कुछ ऐसे शब्द मिलेंगे जो अब अप्रचलित हैं जैसे टुक [ज़रा], कने[पास], आन[आ], किसू [किसी], कभू[कभी], तईं [का] आदि।

हमारे आगे तेरा जब किसू ने नाम लिया
दिले-सितमज़दा को हमने थाम-थाम लिया
मिरे सलीके से मेरी निभी मुहब्बत में
तमाम उम्र में नाकामियों से काम लिया॥
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इक क़तरा आब मैंने पिया है
निकला है चश्मे-तर से वह खूने-ताब होकर।
शर्मो-हया कहां तक, है ‘मीर’ कोई दम के
अब तो मिला करो तुम टुक बेहिजाब होकर॥

मीर अली मुत्तकी़ आगरे के एक सूफी फकीर थे। उनकी दो पत्नियों से तीन लड़के हुए। पहली पत्नी का पुत्र मुहम्मद हसन था और दूसरी पत्नी के दो पुत्र थे - मु्हम्मद तकी और मुहम्मद रज़ी। मुहम्मद तकी़ स्वाभिमानी और संजीदा मिज़ाज़ का बालक था, जो आगे चलकर मीर तकी़ ‘मीर’ के नाम से उर्दू शायरी की रौनक बन गया।

यारों को कदूरतें हैं अब तो हम से
जिस रोज़ कि हम जाएंगे इस आलम से
उस रोज़ खुलेगी साफ सब पर यह बात
इस बज़्म की रौनक थी हमारे दम से॥
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हम को शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब हमने
दर्दो-गम कितने किये जमा तो, दीवान किया॥

बचपन से ही ‘मीर’ की ज़िन्दगी उलझनों और मुसीबतों में गुज़री। दस-ग्यारह साल की उम्र में ही बाप का साया सिर से उठ गया था।

यही जाना कि कुछ न जाना हाय
सो भी एक उम्र में हुआ मालूम
इल्म सब को है यह कि सब तू है
फिर है अल्लाह कैसा ना मालूम॥

सौतेले भाई मुहम्मद हसन ने सम्पत्ति पर अधिकार जमा लिया। ‘मीर’ को नौकरी की तलाश में आगरा छोड़कर दिल्ली जाना पड़ा।

अब तो जाते है बुतकदे से ‘मीर’
फिर मिलेंगे अगर खु़दा लाया॥..
क्यों न देखूं चमन को हसरत से
आशियां था मिला भी यां परसाल॥
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जिन के लिए अपने तो यूं जान निकलते हैं
इस राह में वे जैसे अनजान निकलते हैं
मत सहल हमें जानो, फिरता है फलक बरसों
तब खा़क के परदे से इंसान निकलते हैं॥

दिल्ली की खाक छानते हुए जब ‘मीर’ नवाब शम्सामुद्दौला के पास पहुंचे तो उन्होंने गुज़ारे के लिए रोज़ का एक रुपया मुक़रर किया। चार-पाँच वर्ष ऐसे ही बीत गए, पर बदनसीबी ने पीछा नहीं छोडा़। नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला बोल दिया और नवाब शम्सामुद्दौला मारे गए।

जिस सर को गरूर आज है यां ताजगरी का
कल उस पे वहीं शोर है फिर नीहागरी का
आफाक की मंजिल से गया कौन सलामत
अस्बाब लुटा राह में यां हर सफरी का॥
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मेहर की तुझ से तवक्को थी, सितमगर निकला
मोम समझे तेरे दिल को सो पत्थर निकला॥

आखिरकार ‘मीर’ अपने सौतेले भाई मुहम्मद हसन के मामा खान आरज़ू के पास पहुँचे, जो अपने ज़माने के मशहूर शायर थे। कुछ लोगों का खयाल है कि खान आरज़ू की पुत्री से ‘मीर’ दिल लगा बैठे।

इस तरह दिल गया कि हम अब तक
बैठे रोते हैं हाथ मलते हैं
भरी आती है आज यूँ आँखें
जैसे दरिया कहीं उबलते हैं
‘मीर’ साहब को देखिए जो बने
अब बहुत घर से कम निकलते हैं॥
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जब कि पहलू से पार उठता है
दर्द बे-इख्तियार उठता है
अब तलक भी मज़ारे-मजनूं से
नातवां इक गुबार उठता है।

जब खान आरज़ू को इसका पता चला, तो वे ‘मीर’ से बदसलूकी बरतने लगे और शायद यही वज़ह रही जो उनके बीच मन-मुटाव का सबब बना।

हम है मजरूह माजरा है यह
वह नमक छिड़के है मज़ा है यह
आग थे इब्तेदा-ए-इश्क में हम
अब जो है खाक इन्तेहा है यह॥
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चाहत का इज़हार किया सो अपना काम खराब हुआ
इस परदे के उठ जाने से उसको हम से हिजाब हुआ॥

प्रेम का रोग ‘मीर’ को ऐसा लगा कि वे मुहब्बत से परे रहने की नसीहतें देने लगे। यही नसीहते उनके अश’आर में भी ढलने लगे।

इस दौर में इलाही! मुहब्बत को क्या हुआ?
छोडा़ वफा को इसने, मुहब्बत को क्या हुआ?
लगा न दिल को कहीं, क्या सुना नहीं तूने?
जो कुछ कि ‘मीर’ का इस आशिकी में हाल हुआ॥

इस उन्माद का सही कारण क्या है, इस पर दो राय हो सकते हैं - कारण प्रेमिका थी या फिर खान आरज़ू का दुर्व्यवहार!

जब तू ने नज़र फेरी तब जान गई उसकी
मरना तेरे आशिक का मरना कि बहाना था
कहता था किसू से कुछ, तकता था किसू का मुँह
कल ‘मीर’ खडा था या सच है कि दिवाना था॥
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दिल जो नहीं बजा है वहशी सा मैं फिरूं हूँ
तुम जाइयो न हरगिज़ मेरे दीवानेपन पर
किस तरह ‘मीर’जी का हम तौबा करना मानें
कल तक भी दागे-मय थे सब उसके पैरहन पर॥

जो कुछ भी कारण रहे हों, उनका उन्माद इतना बडा़ कि फखरुद्दीन नामक एक सज्जन ने तरस खाकर ‘मीर’ का इलाज बड़े-बड़े हकीमों से कराया। उर्दू साहित्य का इसे सौभाग्य ही कहिए कि वे फिर से स्वस्थ हो गए, भले ही वो कहते फिरें--

जिन जिन को था ये इश्क का आज़ार मर गए
अकसर हमारे साथ के बीमार मर गए
मजनूं न दश्त में है न फरहाद कोह में
था जिन से लुत्फे-ज़िन्दगी वे यार मर गए॥
*******
जीते जी, आह, तेरे कूचे से कोई न फिरा
जो सितम-दीदा रहा जाके सो मर कर निकला॥

खान आरज़ू का साथ छूटा तो मीर जाफर और सय्यद सादत अली ‘अमरोही’ ने ‘मीर’ का हाथ थामा। इन दो बुज़ुर्गों ने ‘मीर’को बहुत कुछ सिखाया, जिससे कुछ ही समय में वे मुशायरों में अपना रंग जमाने लगे।

देखी थी एक रोज़ तेरी मस्त अंखड़ियां
अंगड़ाइयां सी लेते हैं अब तक खुमार में
शोर अब चमन में मेरी गज़ल-ख्वानी का है ‘मीर’
इक बुलबुल क्या है हज़ार में॥ ......
*******
गरचे इंसा है ज़मी वाले
है दिमाग उनका आसमानों पर
किस्से दुनिया में ‘मीर’ बहुत सुने
न रखो गोश इन फसानों में।

उस समय दिल्ली का राजनीतिक माहौल बहुत अस्थिर था। नतिजा यह हुआ कि ‘मीर’ को अपनी आजीविका के लिए नौकरी बदलनी पड़ी। कई रईसों के पास, जैसे- रियासत खां, नवाब बहादुर, दीवान महानारायण, सूबेदार अमीर खां ‘अंजाम’ आदि के यहां मुसाहिबी की। माहौल बद से बद्दतर होता गया, अराजकता का राज चारों ओर फैल गया था -- कहीं मार-धाड़ तो कहीं मज़हबी दंगे हो रहे थे।

मत इन नमाज़ियों को खाना-साज़े-दीं जानो
कि एक ईंट की खातिर ये ढाते हैं मसीत...
अजब नहीं है जो जाने न ‘मीर’ चाह की रीत
सुना नहीं है मगर यह कि जोगी किस के मीत?
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यारब किधर गए वे जो आदमी-रविश थे
ऊजड़ दिखाई दें है शहर-ओ-दह-ओ-नगर सब
‘मीर’ इस ख्रराबे में क्या आबाद होवे कोई
दीवारो-दर गिरे है वीरां पड़े हैं घर सब॥

आखिरकार दिल्ली की मार-काट व बरबादी से तंग आकर वे अवध के नवाब आसफुद्दौला के पास चले गए। इस प्रकार लखनऊ आकर ‘मीर’ का संघर्षमय जीवन समाप्त हुआ। इसी संघर्ष और दिल पर लगे ज़ख्मों से ‘मीर’ की शायरी को धार भी मिली।

किसका कि़बला, कैसा काबा,
कौन हरम है, या अहराम?
कूचे के उसके बाशिन्दों ने
सब को यहीं से सलाम किया।
यां के सफेद-ओ-सियह में
हमें को दख्ल है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया
और दिन को जूं-तूं शाम किया॥
********
गम रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत गम रहा
मेरे रोने की हकीकत जिसमें थी
एक मुद्दत तक वो कागज़ नम रहा॥

हर शायर की तरह ‘मीर’ भी एक नाज़ुक मिज़ाज़ व्यक्ति थे और यही नज़ाकत उनकी शायरी में भी झलकती है जब वे कहते हैं--

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए
पंखड़ी इक गुलाब की है
‘मीर’ उन नीम-बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है॥
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पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है...
क्या क्या फितने सर पर उसके लाता है माशूक अपना
जिस बेदिल-बेताबो-तवां को इश्क का मारा जाने है॥

नज़ाकत के साथ-साथ ‘मीर’ इतने तुनक मिज़ाज़ और क्रोधी स्वभाव के भी थे कि अपने आश्रयदाता भी उनके इस मिज़ाज़ से नहीं बच सके। राजा जुगल किशोर ने अपनी गज़लें इस्लाह के लिए ‘मीर’ को दिखाई तो उन्होंने सारे कलाम काट कर फेंक दिए। फिर भी, राजा ने उनके इस कृत्य का बुरा नहीं माना।

तेरे बन्दे हैं हम खुदा जानता है
खुदा जाने हमको तू क्या जानता है
नहीं इश्क का दर्द लज़्ज़त से खाली
जिसे ज़ौक है वह मज़ा जानता है॥
********
गुल ने हरचंद कहा बाग में रह, पर उस बिन
जी जो उचटा तो किसू तरह लगाया न गया
‘मीर’ मत उज्र गरेबां के फटे रहने का कर
ज़ख्मे-दिल, चाके-जिगर था कि सिलाया न गया॥

‘मीर’ स्वाभिमानी तो थे, पर उनका व्यवहार कभी अभद्रता तक पहुँच जाया करता था। एक बार नवाब आसफुद्दौला ने उनके पास ही पड़ी हुई पुस्तक देने को कहा। ‘मीर’ ने इस काम के लिए चोबदार को बुलाया, जिससे नवाब साहब ने हतप्रभ होकर खुद ही वह पुस्तक उठा ली।

नवाब आसफुद्दौला के निधन के बाद जब नवाब सादत अली खां का राज हुआ तो उन्होंने चोबदार के हाथों खिलअत और एक हज़ार रुपये ‘मीर’ के पास भिजवाए। ‘मीर’ ने यह कह कर चोबदार को लौटाया कि दस रुपये के नौकर के हाथ से खिलअत भिजवाना उनकी तौहीन है। यह स्वाभिमान का प्रश्न था या दम्भपूर्ण व्यवहार, इस पर बहस हो सकती है।

हालात तो यह है कि मुझे गमों से नहीं फराग
दिल सोजिशे-दुरूनी से जलता है ज्यूं चिराग
सीना तमाम चाक है सारा जिगर है दाग
है मजलिसों में नाम मेरा ‘मीर’ बेदिमाग॥
*******
जो इस शोर से ‘मीर’ रोता रहेगा
तो हमसाया काहे को सोता रहेगा
मुझे काम सोने से अकसर है नासेह
तू कब तक मेरे मुंह को धोता रहेगा॥

प्रौढ़ावस्था में शेरो-शायरी के अलावा ‘मीर’ किसी और बात से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे। इसी का परिणाम है कि उनकी रचनाओं की संख्या बहुत अधिक है। उनकी कुल्लियात में छः बड़े-बड़े दीवान गज़लों के हैं तथा कसीदे, मसनवियां, रुबाइयां, शिकारनामे आदि की बहुत सी लेखनी भी है।

‘फिरदौस’ और ‘अनवरी’ को फारसी शायरी के पैगम्बर कहे जाते हैं, जबकि ‘हाफ़िज़’ को खुदा-ए-सुखन माना जाता है। इसी प्रकार, प्रसिद्ध आलोचक मजनूं गोरखपुरी ने कहा है कि उर्दू शायरी भी अपना खुदा रखती है और वह ‘मीर’ कहलाता है।

‘मीर’ ने अपने कटु अनुभवों और जीवन के निचोड को अपनी शायरी में ढाला है। इसीलिए उन्होंने उर्दू साहित्य के संसार में अमृत्व पा लिया है।

दिल में जो कभी जोशे-गम उठता है तो तादेर
आँखों से चली जाती है दरिया की सी धारें
नाचार हो रुखसत जो मंगा भेजी तो बोला
मैं क्या करूँ, जो ‘मीर’जी जाते हैं, सिधारें॥
********
ज़िंदगी होती है अपनी गम के मारे देखिए
मूँद ली आँखें इधर से तुम ने प्यारे देखिए
रह गए सोते के सोते काफिला जाता रहा
हम तो ‘मीर’ इस राह के ख्वाबीदा हैं बारे देखिए॥

कुछ तो पुरानी बीमारी ने और कुछ बढ़ती उम्र ने ‘मीर’ को कमज़ोर कर दिया था। आखिरकार उर्दू के इस खुदा-ए-सुखन ने सन्‌ १८१०ई. में अपनी अंतिम साँस ली--

फ़कीराना आए सदा कर चले
मियां खुश रहो हम दुआ कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से ‘मीर’
जहां मे गुम आए थे क्या कर चले?
*******
खा गई यां की फिक्र सो मौहूम
वहां क्या होगी कुछ नहीं मालूम
साहब अपना है बंदापरवर ‘मीर’
हम जहां से न जाएंगे महरूम॥

‘मीर’ ने उर्दू साहित्य को महरूम करके अपनी आँखें मूंद ली पर जो कुछ वह दे गए हैं, उससे रहती दुनिया तक उनका नाम रोशन रहेगा।

इधर से अब उठकर तो गया है
हमारी खाक पर भी रो गया है
सिरहाने ‘मीर’ के कोई न बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है॥

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