एक रात मेरी भी गिरफ़्तारी हो गई। पुलिस मुझे थाने लाकर नक्सलियों के बारे में पूछ-ताछ करने लगी, "तूने उन्हें कहाँ छुपा रखा है। ठीक-ठीक बता दो नहीं तो मुसीबत में फँस जाओगे।"
"मैं और नक्सली, ये क्या मज़ाक है सर, जब आरोपी नहीं मिल पा रहे हैं तो निर्दोष लोगों को पकड़ कर आप थाने में ठूँस रहे हैं। इससे तो पुलिसिया कार्रवाई की पोल खुल जायेगी। घटना स्थल पर मैं ख़ुद मौजूद था। कहीं नक्सली-वोक्सली नहीं थे। आप फिजूल परेशान हैं।" मैंने थानेदार को बिल्कुल सच-सच बात बती दी।

"पुलिस तुम्हारे साथ नरमी से पेश आ रही है, ताकि तुम अपने साथियों का नाम, ठिकाना सही-सही बता सको। अगर पुलिस से झूठ बोलोगे तो पूरे खानदान को जेल में डाल दिया जायेगा। तेरी सब भाषणबाजी हवा हो जायेगी। क्या समझे?" थानेदार अनिल प्रसाद ने मुझे ऐसे घूर कर देखा, जैसे मुझे खा जायेगा।

"लगता है सर, पुलिस चिलखारी की चीख भूल गयी है। उस घटना में 19 लोग नक्सिलयों के शिकार हुए थे। जिसमें पुलिस ने चार को गिरफ़्तार किया था। स्थानीय पुलिस और गवाहों के साक्ष्य के आधार पर लोकल अदालत ने आरोपियों को फाँसी की सज़ा सुनाई थी। लेकिन हाईकोर्ट ने उन सभी को बाइज़्ज़त बरी कर दिया। अब तो स्थानीय पुलिस की कार्रवाई से लोगों का विश्वास उठ सा गया है। इसिलए मैं एक बार फिर आप से कहता हूँ कि मैं निर्दोष हूँ।" मैंने निर्भीकता के साथ उसे समझाने की कोशिश की।

"बहुत ख़ूब, बहुत ख़ूब। तुम हमारी तफ़्तीश को चुनौती दे रहे हो। चिलखारी में क्या हुआ था, मुझे सब पता है। मुझे समझाने की कोशिश मत करो। सच बोलोगे तो हम तुम्हें सरकारी गवाह बना देंगे। अपने नक्सली साथिय़ों को शीघ्र गिरफ़्तार कराओ, नहीं तो पुलिस जीप से कूद कर भागने वालों का अंजाम क्या होता है, तुम्हें अच्छी तरह पता होगा। आखिरी बार पूछता हूँ…।"

मेरी गिरफ़्तारी की ख़बर पाकर मेरे अपने लोग थाने में जुटने लगे थे। गणमान्य लोगों के आने से थानेदार की परेशानियाँ बढ़ने लगी थीं। मुझे थाने से छोड़ देने के लिए पैरवी हो़ने लगी थी। वह दबाव झेलना नहीं चाह रहा था। अंत में थानेदार ने मुझे जिला मुख्यालय भेज दिया। सगे संबंधी निराश होकर लौट गये। सबके चेहरे पर निराशा और मायूसी थी। ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी अपने प्रिय का अंतिम संस्कार कर घर लौट रहे हों।

जिला मुख्यालय से मुझे जेल में डाल दिया गया। वहाँ मैं सोच रहा था कि शहर से क्यों अपने घर आ गया, कहीं और क्यों नहीं चला गया। शायद गाँव की सौंधी मिट्टी की ख़ुशबू मुझे वहाँ खींच ले गयी। गाँव का वह दृश्य मेरी आँखों के सामने नाच उठा।

गाँव के लोग अपनी खेती किसानी में ही परेशान रहते थे। हाँ, उन्हें शाम को फ़ुर्सत के क्षणों में टीवी सेट या फिर रेडियो के पास बैठे देखता था। वे लोग दउरी में रखे भूजा चबेना को चबाते हुए मज़े से समाचार सुनते थे। उसके बाद चौपाल की बैठकी में उस पर विस्तार से चर्चा भी करते थे। फिर सुबह उठने के बाद वही पुरानी दिनचर्या देखने को मिलती थी। अक्सर वे खेतों की जुताई, बुआई, निकौनी, सिंचाई और कटनी में व्यस्त रहते थे। मेरे गाँव पहुँचने पर प्रणामा-पाती के बाद कुशल क्षेम ही शेष रहा। किसी से भी ज़्यादा बातें नहीं हो पाती थी।

सुबह उठने के बाद मैं अपने को काफ़ी बोरियत महसूस करता। इसिलए प्रात: उठने के बाद अख़बार लेने के लिए पास के बाज़ार में निकल जाता। वहाँ जिला मुख्यालय से बसें आती थीं। जिन पर विभिन्न अख़बारों का बंडल लोड रहता था। एजेंट बंडल उतारने के बाद हॉकरों को अख़बारों की प्रतियाँ बाँटते रहते थे। मैं भी उनसे सभी अख़बारों की एक-एक प्रतियाँ खरीद लेता और कल्लू की चाय दुकान पर बैठ जाता। चाय की चुस्की लेते हुए सभी अख़बारों की हेड लाइन सरसरी निगाहों से देख लेता। फिर घर जाकर इंतमिनान से उन्हें पढ़ता था।

चाय दुकान पर बैठने का एक लाभ यह भी होता कि बचपन में साथ पढ़ने वाले कुछ पुराने मित्र मिल जाते थे। उनके साथ घर परिवार की बातें कर मुझे अच्छा लगता था। सोमवार को मित्रों से चाय दुकान पर बातें कर ही रहा था कि एक सड़क दुर्घटना हो गई। किसी ट्रक ने सेंट जेबियर्स स्कूल के सामने एक बच्चे को रौंद दिया था।

मैं भी दुर्घटना देखने के लिए स्कूल की ओर भागा। घटना स्थल पर देखा कि स्कूली यूनिफ़ॉर्म में एक चार वर्षीय मासूम बच्चे का क्षत-विक्षत शव खून से लथपथ पड़ा हुआ था। बच्चे के रक्त से सड़क लाल हो उठी थी। भीड़ में किसी ने बताया कि दुर्घटनाग्रस्त बच्चा सेठ दीन दयाल का इकलौता पुत्र है। शव के पास सेठ का ड्राइवर रामू छाती पीट-पीट कर रो रहा था। शव को देखने के लिए जन समूह उमड़ने लगा था।

मैं भीड़ को चीरता हुआ रामू के पास पहुँचा। वह तो मेरे बचपन का साथी रामू था। ढांढ़स बँधाने के लिए उसके कंधे पर हाथ रखा। सहानुभूति के दो-चार बोल मुँह से फूटे ही थे कि तेज़ शोर में दब गये। रामू सहानुभूति पाकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। शव के पास बैठ कर उस बच्चे को हिलाने लगा।

वह भावुकता में कहने लगा, "भैया, देखो न! बबलू मुझसे कुछ बोल नहीं रहा है… सिर्फ मुझे टुकुर-टुकुर देख रहा है। उसके बिना कैसे घर जाऊँगा.. उसकी माँ को क्या जबाव दूँगा… क्या जबाव दूँगा…" वह इतना बोल कर अपने बालों को नोंचता हुआ वहीं नीचे बैठ गया। मैंने देखा, रक्त रंजित मासूम की आँखें खुली हुई थीं, जो अपने चालक रामू से कुछ कह रही थीं।

"अंकल, आपने ट्रैफिक नियमों के अनुसार ही स्कूल की दूसरी तरफ कार को पार्क किया था। यदि स्कूल भवन के पास वाहन खड़ा करते तो मैं बिना सड़क पार किये स्कूल पहुँच जाता और दुर्घटना टल जाती। लेकिन अब तो जो होना था हो गया.. किसी ने सच ही कहा है हिले रोजी बहाने मौत!"

रामू की स्थिति बिगड़ती जा रही थी। उसे किसी तरह उठा कर पास के होस्पीटल में भर्ती कराया।

इसी बीच घटना स्थल पर सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने दो नेता हेमंत और बसंत अपने समर्थकों के साथ आ पहुँचे। सभी सड़क जाम करने में व्यस्त हो गये। इधर-उधर से बाँस बल्ली, डीज़ल का खाली ड्रम, बेंच आदि लाकर रख दिया। सड़क के बीचों-बीच टायर जला दिया। सभी एकजुट होकर स्कूल प्रबंधन व स्थानीय प्रशासन के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी करने लगे।

रोड जाम होने की ख़बर से पूरे बाज़ार में अफरा-तफरी का माहौल उत्पन्न हो गया। दूर-दूर से ख़रीदारी करने आये लोग अपने सामानों को वाहनों पर लोड कर भागने लगे।

विधि व्यवस्था भंग होने की सूचना पाकर स्थानीय थाने की पुलिस घटना स्थल पहुँच गई। थानेदार अनिल प्रसाद ने भीड़ को समझा बुझा कर जाम हटाने की कोशिश की। लेकिन नेता हेमंत व बसंत ने प्रशासन की बात मानने से इंकार कर दिया।

बिगड़ती स्थिति को सँभालने के लिए थानेदार ने अपने उच्चधिकारियों को सूचना दे दी। धीरे-धीरे कई थानों की पुलिस, दारोगा, इंस्पेक्टर, डीएसपी आदि दल-बल के साथ घटना स्थल पर पहुँच गये।

इसी बीच स्कूल प्रबंधन मुर्दाबाद के नारे लगाती हुई भीड़ ने स्कूल भवन पर पत्थरबाज़ी शुरू कर दी। भीड़ आगे बढ़ती हुई स्कूल गेट को उखाड़ फेंका। वहाँ खड़े वाहनों में आग लगानी शुरू कर दी। वहाँ तैनात पुलिसकर्मी भी भीड़ का शिकार बनने लगे। देखते ही देखते वहाँ अराजकता का माहौल उत्पन्न हो गया।

डीएसपी ने लाठी चार्ज का आदेश दे दिया। भीड़ पर लाठियाँ चटकने लगी। पुलिस ने कई हवाई फ़ायरिंग भी की। उग्र भीड़ भागने की बजाय पुलिस पर टूट पड़ी। एकाएक धाँय. धाँय.. धाँय… गोलियाँ चलने लगीं। गोलियों की आवाज़ से पूरा इलाक़ा दहल उठा। दहशत में भीड़ तितर-बितर होने लगी। जान बचाने के लिए सभी इधर-उधर भागने लगे। गोली लगने से कई लोग कटे पेड़ की तरह नीचे गिरने लगे। घायल गिर कर छटपटाने लगे। घटना स्थल की धरती इंसानों के खून से लाल हो उठी। बाज़ार की दुकानें बंद होने लगी। सड़क किनारे खड़े तमाशाबीन भाग खड़े हुए। भागते लोगों को पुलिस पकड़-पकड़ कर वैन में ठूँसने लगी। देखने से ऐसा लग रहा था कि पुलिस देश के अंदर घुस आये घुसपैठियों पर गोली बरसा रही हो। आधे घंटे के अंदर भीड़ छँट चुकी थी। तड़प रहे घायलों को पुलिस बेरहमी के साथ घसीट-घसीटकर वैन वाहनों में भेड़-बकरियों की तरह भर रही थी। घटना स्थल पर पड़े शवों को उठा कर जवान पुलिस वैनों में लोड करते जा रहे थे।

इस घटना के बाद पुलिस ने आस-पास के गाँवों में हमलावरों की तलाश करनी शुरू की। पुलिसिया दमन के कारण लोग गाँव छोड़ कर जहाँ-तहाँ भागने लगे। पूरा गाँव दहशत में था। मारे आतंक व भय से पुरुषों और महिलाओं ने अपने रिश्तेदारों के यहाँ शरण ले ली।

रात्रि में गश्त के दौरान पुलिस गाँवों में पहुँच जाती और मन चाहे घर को तोड़ अंदर घुस जाती। कोने में दुबकी औरतों व युवतियों से अश्लील हरकत करती। विरोध करने वाली महिलाओं का झोंटा पकड़ घसीटते हुए थाने ले जाती। थाने में उनके साथ तरह-तरह की अमानवीय यातनाएँ दी जातीं। उनके कोमल अंगों पर डंडे बरसाये जाते, जिसे वे मारे शर्म के अपनों से भी कुछ नहीं बता पाती।

गाँव में बची कुछ भूखी-प्यासी महिलाएँ पुलिस के भय से घरों में ही दुबकी रहती। पंचायतों के मुखिया, सरपंचों का ज़ोर भी न के बराबर था। पुलिसिया शोषण, अत्याचार और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों पर झूठा केस लाद दिया जा रहा था। महिलाओं को लगता कि पुरुष प्रधान इस समाज में स्त्रियों का कोई अस्तित्व ही नहीं है। उनकी व्यथा व तकलीफ़ों को सुनने वाला कोई नहीं था। गाँव पंचायत तो दूर प्रखंड में भी कोई महिला संगठन सशक्त नहीं था, जो पुलिसिया ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सके।

घटना के बाद भी पूरे थाना क्षेत्र में सन्नाटा पसरा हुआ था। कर्फ़्यु जैसी स्थिति थी। पुलिस का दमनात्मक रवैया आकाश छू रहा था। अस्पतालों में इलाजरत युवकों और घायलों को भी नहीं बख़्शा गया। एक रात उन्हें भी पुलिस थाने उठा ले गई। गाँव के बूढ़ों पर भी ज़ुल्म कम नहीं था। पुलिस उनसे भी सख़्ती के साथ किसी मामले में निबटती थी। घर से भागे हुए पुरुषों के बारे में उनसे जानकारी माँगी जाती, सही उत्तर नहीं मिलने पर पुलिस उन्हें फजीहत करती थी।

गाँवों में बूढ़ों का रहना भी मुश्किल हो गया था। वे अक्सर सोचा करते थे कि इतनी जलालत भरी ज़िंदगी तो अंग्रेज़ी हुकूमत में भी नहीं थी। आज़ाद भारत की पुलिस इतनी क्रूर और निर्दयी हो जायेगी, कभी सपने में भी नहीं सोचा था। पूरे देश में तनाशाह नेताओं व ज़ालिम पुलिस का कब्ज़ा बढ़ता जा रहा है। चाह कर भी आम आदमी उनका मुक़ाबला नहीं कर पाता। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अन्ना हजारे का आंदोलन शुरू हुआ तो गाँवों में एक उम्मीद की किरण फूटी थी। लेकिन आंदोलन से जुड़े लोग एक-एक कर अलग-थलग पड़ने लगे तो मीडिया भी उन्हें उछालना बंद कर दिया। आज नैतिकता से परे हर जगह स्वार्थी तत्व मौजूद हैं।

गोली कांड के दूसरे दिन अख़बारों में सात लोगों के मरने, बीस के घायल होने और तीस लोगों के गिरफ़्तार होने की सूचना छपी थी।

समाचार पढ़ने के बाद लोग हतप्रभ थे। घटना में सात लोगों के मरने की संख्या लोगों के समझ से परे थी। क्योंकि दर्जनों लोग गायब थे। घटना के बाद से न तो अपने घर पहुँचे थे न किसी रिश्तेदार के पास ही थे। पुलिस पर शवों को गायब करने का लाँछन लगाया जा रहा था। कुछ लोग तो उन्हें अस्पताल, जेल में भी ढूँढ़ कर थक चुके थे। उनका कहीं सुराग नहीं मिल पा रहा था। पुलिस ने सड़क जाम करने वाले हेमंत व बसंत सहित पच्चीस लोगों को नामजद और दो सौ अनाम लोगों पर पत्थरबाज़ी करने, तोड़फोड़ करने और आग लगाने का मामला दर्ज किया था। 50 आर्म्स एक्ट के आरोपी भी शामिल थे। पुलिस का कहना था कि रोड जाम में नक्सली थे। जिन्होंने भीड़ व पुलिस पर गोली चलाई थी।

राज्य सरकार ने मृतकों के परिजनों को नौकरी और एक-एक लाख रुपये मुआवज़ा देने की घोषणा कर दी थी। वहीं घायलों को पचास से पच्चीस हज़ार रुपये तक मिलना तय था।

घोषणा के बाद से बिचौलियों की बाँछें खिल उठी थी। वे नियोजन व मुआवज़े का फ़ॉर्म लिए गाँव-गाँव घूम रहे थे। पीड़ितों का आवेदन लिखते और मुआवजे का फ़ॉर्म भरते। फिर उस कार्य के लिए उनसे पचास सौ रुपये ऐंठ लेते थे। ग्रामीणों को समझाते कि प्रखंड कार्यलय में घोर भ्रष्टाचार है। अधिकारी बिना पैसा लिए फ़ाइल आगे नहीं बढ़ाते हैं। आप सबको किसी कार्यालय का चक्कर लगाना नहीं पड़ेगा। आप बेफ़िक्र होकर हमारे संपर्क में रहें।

घटना को बीते एक सप्ताह से ज़्यादा बीत गये थे। फिर भी ढांढ़स बँधाने वाले नेताओं का दौरा जारी था। वे गाँवों में पीड़ितों के घर जाते और घड़ियाली आँसू बहा कर चले जाते।

पुलिस कप्तान आरके शर्मा ने भी घटना निरीक्षण के बाद जामकर्ताओं में नक्सलियों के होने की बात स्वीकारी थी।

एसपी के आदेश के बाद ही अन्य लोगों के साथ मेरी भी गिरफ़्तारी हुई थी। मैं जेल में बंद सोच रहा था कि गुलाम भारत में भगत सिंह ने हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी तो उन्हें जेल दे दी गयी थी। उनके क्रांतिकारी साथियों ने बचाने की काफ़ी कोशिश की थी। लेकिन हुकूमत का तानाशाह रवैया मनमानी करता रहा। आखिर में भगत सिंह ने हँसते हँसते फाँसी के फंदे को चूम लिया। क्या देश को आज़ादी दिलाने वाले नेता उन्हें बचा नहीं सकते थ़े? आज़ादी के इतने साल बाद भी देश में कुछ नहीं बदला है, वही अंग्रेज़ों का कानून और फ़रमान देश के नेताओं व पुलिस महकमे पर हावी है। ऐसे में निष्पक्ष न्याय की आशा कैसी की जा सकती है भला। फ़िल्म "शोले" का एक डायलॉग था, "तेरा क्या होगा रे कालिया…" उसे याद कर मेरा मन भी यो ही व्यथित था।

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