तेलुगु भाषा और साहित्य की समग्र झाँकी  : गोपाल शर्मा

01-08-2019

तेलुगु भाषा और साहित्य की समग्र झाँकी  : गोपाल शर्मा

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

समीक्षित पुस्तक : तेलुगू साहित्य : एक अंतर्यात्रा
लेखिका : गुर्रमकोंडा नीरजा
समीक्षक : प्रो.गोपाल शर्मा 
संस्करण : 2016
प्रकाशक/वितरक : श्रीसाहिती प्रकाशन, 304 मेधा टावर्स, राधाकृष्ण नगर, अत्तापुर रिंगरोड, हैदराबाद (9849986346)
पृष्ठ संख्या : 231
मूल्य : 80 रु. 


प्रख्यात जर्मन दार्शनिक हेगेल (जिन्हें हिंदी वाले प्यार से हीगल कहते हैं) कहा करते थे कि पुस्तक की भूमिका स्वरूप लिखे गए उनके वक्तव्य को गंभीरता से न लिया जाए क्योंकि मुख्य है उनकी कृति। लेकिन उनके विपरीत फ्रेंच दार्शनिक जाक देरिदा ने कहा कि भूमिका-लेखन कृति के पाठ के पश्चात तैयार किया गया वक्तव्य है जो कृति से पहले पढ़ा जाता है। उन्होंने भूमिका-लेखन से परहेज़ किया और माना कि प्रस्तुत कृति उनकी अगली कृति की भूमिका है और उनका समस्त लेखन भूमिकाओं की एक अखंड शृंखला। गुर्रमकोंडा नीरजा की इस कृति ‘तेलुगु साहित्य : एक अंतर्यात्रा’ के प्रथम पाठ से ये दो विचारक और उनके विचार अनायास सामने आते हैं। 

इस कृति में लेखिका द्वारा दी गई कोई भूमिका नहीं है किंतु समस्त टेक्स्ट उस भूमिका का साधिकार और समर्थ निर्वाह है। भूमिका स्वरूप चार विद्वानों - प्रो. राज मणि शर्मा, प्रो. देवराज, प्रो. योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’ और प्रो. एम. वेंकटेश्वर - के अभिमत और पाठ हैं जिनसे एक और पाठकीय पाठ तैयार हो सकता है। प्रो. ऋषभदेव शर्मा की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर उन्हें यह कृति सादर भेंट की गई है। लेखिका ने इस दशक में ही दर्जन भर ग्रंथों का लेखन, संपादन और अनुवाद करके अपनी प्रांजल प्रतिभा से अमित पहचान बनाई है। इतने ही पुरस्कार प्राप्त करके यश भी कमाया है। हिंदी और तेलुगु भाषियों के बीच की अपरिचय की गोल-गाँठ को ढीला किया है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय से प्राप्त वित्तीय अनुदान से (प्रकाशित और निदेशालय के ‘हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार द्वारा पुरस्कृत भी) इस पुस्तक में हिंदी भाषा के माध्यम से दक्षिण भारत की एक महत्वपूर्ण भाषा के साहित्य और साहित्यकारों से परिचय तो प्राप्त होता ही है, कई रचनाकारों के प्रति जिज्ञासा, भक्ति और प्रेम भी उत्पन्न हो जाता है। यह इस रचना का प्रभाव है। 

सात खंडों में निबद्ध इस टेक्स्ट में पहला खंड तेलुगु भाषा और साहित्य का प्रामाणिक परिचय देता है और अंतिम खंड इस भाषा के प्रमुख रचनाकारों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है। इन दोनों खंडों के बीच तेलुगु साहित्य का मानो समस्त संसार ही हस्तामलकवत प्रस्तुत है। हिंदी के आम पाठक को इस कृति के पाठ से अहसासे कमतरी (inferioirty complex) होगा जैसा मुझे भी हुआ। कितना कम जानते हैं हम अपने ही देश के रचनाकारों को! महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बहुत साल पहले इंग्लिश और संस्कृत से ही नहीं, भारत की अन्यान्य भाषाओं से ‘ज्ञान रत्न’ लेने की अनुशंसा की थी। तुलनात्मक अध्ययन तथा अनुवाद के माध्यम से बहुत कुछ सुलभ है भी। हमें इस प्रकार के ग्रंथों से बहुत कुछ एक स्थान पर मिल जाता है। इसलिए इस कृति का दोगुना महत्व है। शोधरथी और शोधार्थी दोनों को इसमें अनेक शोधकार्यों की प्रेरणा मिलेगी। तुलनात्मक अध्ययन और साहित्य के अनुवाद में लगे विद्वानों का मन इसमें रमेगा। आम पाठक को तेलुगु साहित्य, भाषा और भाषाविज्ञान का सहज बोध होगा। 

निश्चय ही इस पुस्तक के लेखन में एक दशक लगा होगा। तेलुगु गद्य–पद्य का अनुवाद प्रस्तुत करना, समुचित संदर्भ देकर अपनी बात को प्रमाण सहित प्रस्तुत करना, रचनाओं और रचनाकारों के वैविध्य को रेखांकित करते हुए चलना, साहित्य के विभिन्न आंदोलनों और विमर्शों को स्थापित करना लेखिका का साध्य रहा है। साधन रहा है तेलुगु भाषा के माध्यम से किया गया सृजनात्मक लेखन - विपुल लेखन। पता चलता है कि तेलुगु साहित्य और संवेदना का विकास भी उसी प्रकार हुआ है जैसे हिंदी और भारत की अन्य भाषाओं का। यह जानकर उत्साहित पाठक इस पुस्तक को कई बार पढ़ता है। जैसे दूध का भरा कटोरा और उसके ऊपर सरस मलाई, वैसा है – खंड एक । और दूध के घूँट जैसे अन्य आलेख – किसी को भी गटको; कंठ तर होगा। मैं ‘न. गोपि’ के खंड को कई बार पढ़कर सोचने लगा था – यह अलग से ही एक पुस्तक हो सकती थी। कई प्रकरण पुस्तकों की रूपरेखाओं से कम नहीं। 

कई विद्वान दूसरों की रचनाएँ नहीं पढ़ते और इसे वे गर्व से स्वीकार भी करते हैं। उत्तर आधुनिक काल में यह दंभ नहीं, मूर्खता है। यदि आप इस कृति का एक से अधिक बार पारायण करते हैं तो कम से कम एक दर्जन पुस्तकों के लिए आधार वक्तव्य मिल जाएगा और इतने ही शोध के उपयुक्त विषय भी। अनेक सूक्तियाँ मिलेंगी जो आपको किसी ‘सेल्फ़-हेल्प’ बुक में भी न मिल सकेंगी। एक उदाहरण देता हूँ – पत्नी की बातों में आकर भाई-भाई लड़कर / एक दूसरे से जुदा होने वाले मूर्ख हैं / कुत्ते की पूँछ को पकड़कर गोदावरी को पार करना क्या संभव है?/ (विश्वदाभिराम सुन रे वेमा)। आप यहाँ उन रचनाकारों को भी हिंदी में पढ़ सकते हैं जिनकी कृति को पढ़ना ‘शैतानिक वर्सिज’ पढ़ने जैसा तलवार की धार पर दौड़ना है। वरवर राव की कविता हो या अली की बेबसी ( – मेरा नाम अली जानकर / रद्दी कागज के समान / फेंक दिया करते हैं –) सब यहाँ हैं।

एक साथ सैकड़ों रचनाकार। पर यह इतिहास नहीं। समीक्षा या आलोचना भी नहीं। टेक्स्ट है, पाठ है, अनुवाद है, विश्लेषण और विवेचन है। एक यात्रा है जिसे आपका ‘अंतरगत’ अवश्य सराहेगा। और हाँ, ख़रीदकर पढ़ने योग्य – मूल्य लागत मात्र। पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी।

    • प्रो. गोपाल शर्मा 
प्रोफेसर, अरबा मिंच विश्वविद्यालय, 
अरबा मिंच, इथियोपिया 
profgopalsharma@gmail.com

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