तरु बिन सूनी धरा 

01-03-2020

तरु बिन सूनी धरा 

कुन्दन कुमार बहरदार  (अंक: 151, मार्च प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

तरु है तो हम हैं,
तरु बिन सूनी धरा।
ये हरियाली तभी तक है,
जब तक नहीं है तरु मरा॥


इस चमन में जो बहार है,
तरु बिन है वो भी अधूरा।
क्यों निष्ठुर हम बन गए हैं,
उपल है भाल पर पड़ा॥


खोकर अपने अहंकार में,
भूल गए हैं कर्त्तव्य सारा।
बो रहे हैं बीज विनाश का,
जो लाएगा काला अँधेरा॥


तांडव आने से पहले ही,
कुछ लक्षण है दिख रहा।
तरु है तो हम हैं,
तरु बिन सूनी धरा॥


नीर बिन व्याकुल हैं नदियाँ, 
जंगल शहरों में सिमट रहा।
कण-कण में जो विष घोला,
वो किस्तों में है बँट रहा॥


रोज़ नई-नई बीमारियाँ,
भू तल पर है पनप रही।
कटते देख अपने सपूत को,
माँ बिलख बिलख रो रही॥


जागो हे! जनमानस जागो,
एक-एक वृक्ष माँ माँग रही है।
अभी बहुत देर नहीं हुई है ,
सँभलने को प्रकृति कह रही॥


देखों तीनों चरों में कैसे??
हाहाकार अभी से है मच रहा।
तरु है तो हम हैं,
तरु बिन सूनी धरा॥

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