तारा चिब्ब कढ

19-12-2019

तारा चिब्ब कढ

सुरजीत सिंह वरवाल

मूल लेखक : गुरमीत कडीयावली
अनुवाद : सुरजीत सिंह वरवाल 

 

तारा चन्द उर्फ तारा चिब्ब कढ ने बस स्टैंड में आ गयी बस में से उतरते ही घड़ी की तरफ नज़र डाली, छोटी सुई नौ पर और बड़ी सुई छ: पर पहुँच चुकी थी। उसने अफसोस से सिर हिलाया। उसको रोडवेज़ की बस पर गुस्सा भी आया जो रास्ते में ही खराब हो गई थी, जिसके कारण वह कम से कम एक घण्टा लेट हो गया था, नहीं तो वह साढे आठ बजे ही अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता।

अब क्या फायदा? तारे ने अपने आप से कहा था। बस ने तो सारा प्रोग्राम ही मिट्टी में मिला दिया था। अब तक तो रवेल डयुटी पर और बच्चे स्कूल चले गए होंगे। अगर बस लेट ना होती तो सभी को घर में ही मिल लेता लेकिन अब घर पर क्या लेने जाउँ? इन्दु तो सीधे मुँह बुलाती ही नहीं। सारे सांसार की शिकन उसके मस्तक पर डेरा डाले बैठे रहती हैं। तारा कोई बच्चा तो था नहीं, सब बातें समझता था। उसने दुनिया देखी थी। इन्दु नहीं चाहती थी कि गाँव से उन्हें कोई मिलने आए। न ही वह खुद गाँव जाती थी। बच्चों को भी गाँव नहीं जाने देती थी। केवल रवेल ही साल छ: महीने में सुबह या शाम के समय स्कूटर पर मिलने आ जाया करता था। तारा का मन बहू और बेटे की तरफ से टूट चुका था।

तारे को रवेल की दूसरी जाति में शादी करने से ऐतराज़ नहीं था, ऐतराज़ तो इन्दु के स्वभाव से था जो हर समय अपने महारानी स्वभाव से तंग करती थी। अब तक वह केवल एक बार ही गाँव आई थी, वह भी सिर्फ एक घण्टे के लिए। इतनी देर भी उसको बैठना मुश्किल हो गया था। नाक और मुँह को रूमाल से ढंक रखा था। बात-बात पर वह अपने घरवाले और बच्चों को डाँट फटकार रही थी इसलिए उसको अपनी बहू से मिलना अच्छा नहीं लगता था। अच्छा तो उसको पत्नी के सामने जी-जी करता रवेल भी नहीं लगता था। लेकिन पोता-पोती से मिलने की इच्छा उसको हर महीने-दो महीने बाद शहर खींच लाती थी। माँ की घूरती हुई आँखों से बचने के लिए बच्चे तारा की टाँगों से आकर लिपट जाते थे। बच्चों को ना मिल सकने के बारे में सोचते ही तारा का मन अत्यधिक उदास हो गया। उसको बच्चों से मिलने की लालसा व्याकुल कर रही थी। वैसे अपनी हालत पर हैरानी भी हुई कि सारी उम्र अक्खड़ स्वभाव से रहने वाला तारा अन्दर से इतना नरम कैसे हो सकता है?

बच्चों को बिना मिले वापिस जाने को उसका दिल नहीं किया। बच्चों के स्कूल से आने तक रवेल से मिलने का फैसला किया। यह बात सोचते ही उसने शहर के बाहर बनी बड़ी कचहरी के बीच बने उसके दफतर जाने के लिए, ऑटो रिक्शे का इन्तज़ार करने लगा।

सालग राम जब अपनी बिरादरी के कई परिवारों सहित राजस्थान के जिला अलवर में अपने पुस्तेनी गाँव कोलगढ़ को छोड़कर पंजाब के लिए रवाना हुआ था, तब तारा आठ वर्ष का था। राजस्थान के बीच का शुष्क मरूस्थल प्रदेश उनके परिवार को भर पेट भोजन नहीं दे पा रहा था। तीन वर्ष तक लगातार पड़े अकाल ने लोगों का जीना दूश्वर कर दिया था। जब ज़मीन वाले लोगों को भी भूखे मरने की नौबत आ गई थी तो ज़मीन पर निर्भर रहने वाले सालग राम की बिरादरी के लोग तब क्या करते? उनके पास तो सिर्फ एक ही रास्ता बचा था कि वह धीरे-धीरे पंजाब की तरफ निकल जाए। ज़मीन वाले तो वहाँ बँधे हुए थे, ज़मीन छोड़कर कहाँ जाते। सालग राम और उसकी बिरादरी की कोई ऐसी ऐसी मजबूरी नहीं थी। उनके परिवार के पास तो सिर्फ गधा था जिसको वे साथ लेकर चल सकते थे। बिरादरी के बहुत से लोग धीरे-धीरे अपने पुश्तैनी गाँव छोड़ कुछ बठिण्डा, जैतो मण्डी और कोटकपूरा के गाँवों में दिन काटने लग गए थे। सालगराम ने भी जैतो मण्डी में कुछ समय पहले आकर डेरा जमाये बैठे दूर-दराज के रिश्तेदारों के पास रहन-बसेरा किया। जल्दी ही उसने यह महसूस किया कि छोटी सी मंडी के आस-पास के टीलों में बसे गाँव उसका और उसकी बिरादरी के सभी परिवारों का पेट नहीं भर सकते, इसलिए वह गधे को हाँकते हुए आगे चल दिया था। आठ साल के तारे को उसने गधे की पीठ पर बिठा दिया था।

मोगा मंडी के पास बसे एक छोटे से कस्बे में आकर उसने अपना तम्बू गाड़ दिया था। लेकिन कई दिन उसको अजनबी सा महसूस होता रहा। अलग तरह की भाषा, अलग वेषभूषा। उसके समस्त परिवार को रहन-सहन वेषभूषा काफी अलग तरह की लगती रहती। सालगराम का मन करता कि कोई व्यक्ति आकर उससे उसकी भाषा में बात करे। कई बार तो वह इस जगह से इतना ऊब जाता सोचता कि यहाँ पर तिलमिलाकर मरने से अच्छा अपने पुश्तैनी गाँव में जाकर मरना हैं। लेकिन जब उसे भूख से रोते हुए बच्चे नज़र आते तो वह तिलमिला जाता। उसको ऐसा महसूस होता जैसे वह गहरे नर्क से निकलकर स्वर्ग में आ गया है।

सालग राम के परिवार का काम कुछ ही दिनो में प्रगति करने लगा था। इतनी जल्दी पैर लगने की उम्मीद ही नहीं थी। सालगाराम के दोनों गधे सारा दिन कस्बे के बाहर तलाब के किनारे से काली और लाल मिट्टी ढोते रहते। उसका सारा परिवार मिट्टी से मिट्टी हुआ रहता था। पहले तो मिट्टी को अच्छी तरह सुखाते और फिर वह सूखी मिट्टी को डण्डे से पीट-पीटकर बारीक करते थे। उसके पश्चात पतले दुपटे से छानते। जब मिट्टी पूरी तरह से तैयार हो जाती तो उसमे पानी डालकर आटे की तरह गूँधते। उसके बाद बड़े-बड़े पेड़े बना कर रख लेते। तारा और बड़ी लड़की उसको उठा-उठा कर सालगराम को पकड़ाते और सालगराम उसे ‘चाक’ पर चढ़ा देता। सालगराम के पिंजर हुए शरीर में पता नहीं इतनी शक्ति कहाँ से आ जाती कि वह चाक को बड़ी तेज़ी से घुमाता था। अपने नन्हें हाथों से मिट्टी के पेड़े पकड़ाते हुए तारा को ऐसा महसूस होता कि जैसे समस्त धरती भी घूम रही हो। उसके देखते ही देखते मिट्टी का पेड़ा प्रतिदिन काम में आने वाले बर्तन का रूप धारण कर लेता। सालगराम सरकण्डे से बर्तन के किनारे मुलायम करता और बारीक और मज़बूत धागे से उसको चीर कर चाक से अलग कर देता था। सालगराम लगातार ‘चाक’ पर चढ़ाकर मिट्टी को मनमानी का रूप देता जाता। तारा की माँ छामली बैठे हुए तैयार बर्तनों को उचित रूप देने के लिए उसको थापी से ठोकती और फिर बड़ी सफाई के साथ पीली या काली मिट्टी का पोचा फेरती थी। इतनी मेहनत के पश्चात बनाए बर्तनों को देखकर ख़ुश होने की बजाए, समस्त परिवार के चेहरों पर चिन्ताओं की गहरी रेखाएँ छा जातीं। परिवार की इस चिन्ता का कारण तारा को बड़ा होकर ही समझ आया था।

दिन रात मिट्टी के साथ मिट्टी होकर तैयार हुए बर्तनों को ‘आवी’ में डाला जाता। छामली और सालग बड़े चौक्कने होकर बर्तनों को ‘आवी’ में रखने के बाद प्रसाद बाँटते थे। नगर कोट वाली देवी माता का जगराता करवाने की मन्नत भी मानते थे। अपने पैतृक देवों का भी ध्यान करते। ‘आवी’ से बर्तन सकुशल निकाल आने के लिए वह भैरों को बकरा देने की मन्नत भी माँगते थे।

‘आवी’ से बर्तन सलामत निकल आने का पक्का यकीन नहीं होता था। यदि आग का सेक थोड़ा सा ज़्यादा लग जाता तो बर्तन टेढ़े हो जाते और अगर आग की गर्मी कम लगती तो वह पीले हो जाते। कभी बरसात तो कभी अन्धेरी। कई-कई बार तो सारी की सारी आवी ही ख़राब हो जाती। एक भी बर्तन सही सलामत नहीं निकलता। ये देख छामली अपना मस्तक पकड़कर बैठ जाती। समस्त परिवार के चेहरों पर कालिख सी पुत जाती थी। सालगराम तो बच्चों की तरह से रोने लग जाता। छामली और बच्चों पर गुस्से से चिल्लाता, जैसे ‘आवी’ के ख़राब होने के वही ज़िम्मेदार हो। जब कभी सारी ‘आवी’ सकुशल निकल आती तो छामली और सालग के चेहरे पर आलौकिक नूर आ जाता था। वह देवी माता का चिराग करते और प्रसाद बाँटते। सालगराम बीड़ी पर बीड़ी फूँकता। शाम के समय मुँह भी कड़वा करता। तारा हैरान होता कि लड़की को हर समय डाँटने वाला बाप उस समय लड़कियों को गोद में लेकर ढेर सारा प्यार करता था।

"देवी माँ की कृपा होसी....इव बारे ब्याह की कोनी चिन्ता नाही। सारी बिरादरी मा दिखा छोड्यो .....घणी धूम से ब्याह करें स थ्योरो," सालग राम नशे की लोर में यह शब्द कहता। बच्चों के लिए जलेबियाँ लाई जातीं। उस समय समस्त परिवार ही नशे में लगता था। सालगराम एक-एक बर्तन को हाथ की उँगलियों से टुनक-टुनकाकर देखता था। बर्तनों से निकलती अवाज़ तारा को बड़ी प्यारी लगती थी।

जैसे ही काम अच्छा चलने लगा तो सालगराम ने बदलू, नेते और हरियो को भी गाँव से बुला लिया। धीर-धीरे उसके कई चाचे-ताऊ और बिरादरी के और भी कई सारे परिवार आकर बस गए थे। लोग इस मोहल्ले को ‘घुमारों का मोहल्ला’ ही कहकर पुकारने लग गये थे। बिरादरी वालों के गधे खाली समय में श्यामलाट पड़ी ज़मीन में लेटते रहते थे। मोहल्ले के कई शरारती बच्चे गधों पर सवारी करने की कोशिश करते लेकिन वह सवारी की बजाय गधों से लातें ही खाते थे। कई बच्चे तो गधों से गिरकर अपनी बाजू तुड़वा चुके थे। धीरे-धीरे सालगराम और उसकी बिरादरी के लोगों को यह कस्बा अपना लगने लगा था। वैसे तो उनके पास कोई खाली समय ही नहीं था लेकिन अगर समय मिल भी जाता तो सालगराम और उसकी बिरादरी के बुर्जुग इकट्ठे बैठकर बातें करते और बीड़ी पर बीड़ी फूँकते जाते। कई तो हुक्के को मुँह में डालकर गुड़गुड़ करते रहते थे। उनको ऐसा लगता जैसे वे थाना के कोट में नहीं राजस्थान के अपने गाँव कोलागढ़ की चौपाल में बैठे हों।

सालगराम और उसकी बिरादरी के लोग अपने गधों पर बर्तन लाधकर दूर-दूर तक बेचने चले जाते थे। उनके बने हुए बर्तन दूर-दूर तक के गाँवों तक पहुँचने लगे थे।

खरीफ और रवी के दिनों में सालगराम को अपनी पिछली छ: माही में हुई उधार वापिस आने की उम्मीद बनी रहती थी। वे काम में आने वाले बर्तनों को लेकर खेत खलिहानों की तरफ निकल जाते थे। जट्ट पानी के लिए घड़ा या काम में आने वाला कोई और बर्तन लेकर बदले में गेहूँ और चने दे देते थे। तारा देखता, पिता सालगराम झुकझुककर सरदार जी – सरदार जी करता हुआ मिन्नत सी करता। इस तरह सरदार जी - सरदार जी करने पर किसान ख़ुश होकर उसे और भी ज़्यादा अनाज दे देते थे। सालग्राम की आँखें गेहूँ देने वाले किसान के प्रति प्रेमभाव से भर जाती थी। लेकिन तारा अपने पिता की इस गुलामी की अवस्था से काफी हैरान होता। तलाब से मिट्टी लाकर बर्तन बनाने तक की सारी प्रक्रिया तारा की आँखों के सामने घूम जाती थी। वह सोचता मिट्टी में मिट्टी होकर कितनी कड़ी मेहनत करके हमने बर्तन तैयार किए लेकिन उनको बेचने के लिए इस तरह की गुलामी करने की क्या आवश्कता है। तारा अपने पिता की आँखों में वह चमक देखना चाहता था, जो चमक ‘आवी’ से बर्तन सकुशल निकल आने पर उसकी आँखों में पैदा हुई थी। उसके दिमाग पर चाचा नेतराम के वह शब्द छा जाते जिसमें उसने कहा था कि आदमी के अन्दर से पीले बर्तन के समान फुस–फुस नहीं बल्कि कठोर बर्तन के समान टन–टन की अवाज़ आनी चाहिए।

तारा अपने चाचा नेतराम की तरह अक्खड़ ही निकला था। स्वभाव भी उसी के समान गया था। वह मुँह का कड़वा लेकिन दिल से एकदम निर्मल। किसी के भी अहम भाव को स्वीकार नहीं करने वाला। तारा के स्वभाव के कारण ही उसका नाम चिब्ब कढ रख दिया था। तारा बाप के साथ भी नराज़ हो जाता था। बात-बात पर हाथ जोड़कर बर्तन बेचने वाले ज़्यादा पैसे लेने के लिए मिन्नते निकालने वाले लोग उसको ज़हर के समान लगते थे।

"ये साली कोई ज़िन्दगी है? हर समय घुट-घुट कर जीना और मिन्नत निकाल- निकाल कर ज़िन्दगी काटनी बहन...तारे से ऐसी ज़िन्दगी नहीं काटी जायेगी।"

"म्हारी तो रोजी-रोटी उनके आसरे ही चाले। सरदार के आगे हाथ जोड़त, कोई मोत न आवत।"
"हम जी कहा रहे हैं....हम तो गुलामी झेल रहे हैं। जब हम ग्राहक को बर्तन टुनकाकर देते हैं तो पैसे भी टुनक कर ही लेंगे....नहीं तो मैं नहीं जाऊॅंगा साथ।"
"म्हारे साथ क्यू जावत....तन्ने तो नेतराम का पूंछ पकड़ रखा है। थारी तो धौन मा किल्ला गाढ रखा हैं नेतराम ने। जब देखा नेतराम – नेतराम.....?"
"आदमी के पास गर्दन ही तो होती है....अगर ये भी तन कर नहीं रही तो वह आदमी आदमी नहीं।

तारा की इस बात का जवाब सालगराम के पास नहीं था। सालग राम के अनुसार तारे के बिगड़ने का कारण उसका चाचा नेतराम था। उधर तारा की सबसे ज़्यादा उसके चाचा से ही पटती थी।

वैसे तो तारा के हाथ की सफाई अपने बाप से भी ज़्यादा थी। उसके बनाये हुए बर्तन अत्याधिक सुन्दर होते थे। तारा ने शराब निकालने की भट्टी अपने चाचा नेतराम से ही बनानी सीखी थी। वह भट्टी बनाना हर किसी के बस की बात नहीं थी। भट्टी के एक दम बीचों-बीच गोल मुँह निकालना होता था। तारा इस काम में पूरा माहिर हो गया था। नेतराम के देखते-देखते तारा भी शराब निकालना सीख गया था। तारा के हाथ से निकली हुई शराब उसके बर्तन बनाने वाली कला के समान ही मशहूर हो गई थी। एक गाँव से दूसरे गाँव में उसकी शराब बहुत तेज़ी से बिकने लगी। वह दूसरे शराब बेचने वालों की तरह शराब तीखी और जल्दी बनाने के लिए नौशादर नहीं डालता था। लाहन में अंगूर, संतरे, सेब, हींग, इलायची, और आँवला डाल देता जिससे उसकी शराब-शराब न रहकर दवाई बन जाती।

तारे की जेब पैसे से काफी भारी रहने लगी थी। पहले तो सारा दिन मिट्टी से मिट्टी होकर भी दो वक्त की रोटी ही बड़ी मुश्किल से बना पाता था। लेकिन जब से तारा की शराब पास के गाँवों में बिकने लगी थी, तारा के पास पैसों की कोई कमी नहीं आई। उसे अपनी बनाई चीज़ के मुँह माँगी कीमत मिलती थी। गाँवों में शादियों के अवसर पर लोग तारे की शराब बड़ी ख़ुशी के साथ पीते। तारा गरीब परिवारो की शादियों में बड़े सस्ते दामों में ही अपनी शराब बेच देता था। कई बार तो बहुत गरीब परिवारों को दस-बीस बोतल मुफ्त में ही दे देता था। गाँव की चौपाल में तारा की चर्चा बड़ी खूब होने लगी थी।

तारा का नाम तो पुलिस की फाईलों में भी बोलने लगा था। उसकी पुलिस के साथ चूहे बिल्ली का खेल शुरू हो गया था। बड़ी संख्या में पुलिस वाले तारा के घर छापा मारते लेकिन तारा कभी हाथ नहीं आया। पुलिस वाले तारा को इधर-उधर ढूँढकर वापस चले जाते लेकिन पता नहीं तारा को धरती माता का क्या कौन सा वरदान था कि वह कभी उनके हाथ नहीं आया। पुलिस के हाथ पर हाथ मार भागा तारा किसी को न मिलता। लोग तारा को घोड़ा भी कहते थे। एक दिन अचानक तारा को रँगे हाथों पकड़ने की कोशिश की तब तारा ने हवलदार के हाथ पर हाथ मारा और आदमी के कद से ऊँची दीवार फाँद कर भाग गया। इस बार पुलिस वाले तारा को हर हाल में काबू करने की सोच कर आए थे। तारा को चारों ओर से घेर लिया गया। तारा दौड़कर गाँव के तालाब में घुस गया। ऊपर से सर्दी का मौसम था। बर्फ बना ठंडा पानी। ऊपर से शीत लहर चल रही थी। तलाब के बीचों-बीच जाकर तारा ज़ोर-ज़ोर से पुलिस वालों को ललकारने लगा।

"आ जाओ ....आगे आ .......जिसने भी अपनी सगी माँ का दूध पिया है। आ जाओ पकड़ लो मेरे पुत्रो। बीचो-बीच गोते दूँगा....जो भी आगे आया।" तारा को देखने आई भीड़ ने सीटियाँ बजाकर और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर आसमान सिर पर उठा लिया।

मुफ्त में मिले मुर्गे खा-खाकर, मुफ्त की शराब पी-पीकर, मटकों की तरह बड़े पेट वालों की हिम्मत नहीं पड़ रही थी की तारा को आगे जाकर पकड़ ले। हर पुलिस वाला उसके पास जाने से डरता था। क्या पता बीच में गोता दे देवे। शाम होने तक पुलिस वाले तारा के तलाब से बाहर आने का इन्तज़ार करते रहे। तारा तलाब के बीचो-बीच खड़ा होकर लगातार ललकारता रहा।

"हवलदार.....मैं बहन चो.......तारा ्चिब्ब कढ। ये खड़ा भेज अपने किसी शूरवीर को......... तारा को आकर पकड़ ले........यह तेरे गीदड़ों जैसे सिपाहियों के बस की बात नहीं हैं कि तारा को आ कर पकड़ लें....... शेर जैसा दिल चाहिए तारा को पकड़ने के लिए। ऐसे नहीं आता किसी के हाथ....तारा ्चिब्ब कढ ऐसे हाथ नहीं आता।"

भीड़ हू-हल्ला करती रही। आखिर में पुलिस वाले भी थक हारकर अपना समूह लेकर वापिस चले गए। उनके जाने के बाद तारा विजेता पहलवान के समान गर्दन ऊँची करके तलाब से बाहर आ गया था।

तारा को पकड़ने के लिए पुलिस दूसरे तीसरे दिन ही छापा मारने लगी थी। उन्होंने अपने ख़ुफ़िया आदमी भी तारा के पीछे लगा दिए थे। आखिर एक दिन पड़ोस से हुई मुखबरी से पुलिस के धक्के चढ़ ही गया। थाने जाते ही तारा ने अपनी कमीज़ उतारकर एक तरफ रख दी।

"पीटना तो आपने मुझे है ही, कम से कम कपड़े तो नहीं फटेगें," यह कहते हुए तारा ने अपना शरीर पुलिस के आगे कर दिया दिया।

"मेरी एक बात ध्यान से सुन लेना ...... आपके हाथ तो आ गया हूँ.......मारो चाहे छोड़ो लेकिन मुझे गाली-गलोच और बुरा मत बोलना...।" तारा की हुंकार अब भी धीमी नहीं पड़ी थी।

तारा से माल बरामद करवाने के लिए सिपाहियों ने उसको फर्श पर उल्टा लिटा दिया। पुलिस उसे पशुओं की तरह पीटने लगी। तारा पता नहीं किस मिट्टी का बना था, जुबान तक नहीं खोली। उसको पीटने वाले थक कर चूर हो गए थे लेकिन तारा चकनाचूर नहीं हुआ था।

"बस इतना ही पीटना था। अगर कोई कसर बाकी रह गई हो तो वह भी निकल लो.... दिल का अरमान अधूरा न रह जाए।" तारा पुलिस वालों की तरफ देखकर हल्का-हल्का मुस्करा रहा था।

"मेरे बाप.......तेरे आगे हाथ जोड़ते हैं। हमने तेरे से क्या टिंडे लेने हैं। जो तेरे दिल में आता है वो कर। लेकिन हमारी तरफ भी टुकडा दो टुकडे फेंका कर। हम भी बच्चे वाले हैं। तनख्वाह से तो घर का चूल्हा भी नहीं चलता.......हमारा भी थोड़ा ध्यान रखा कर," थानेदार की आँखों में एक लचारी सी नज़र आ रही थी। तारा को थानेदार की इस लाचारी में अपने बाप सालगराम की झलक दिखाई दे रही थी।

"बस इतनी सी बात थी?.....लेकिन आज के बाद हमारे घर की तरफ आँख उठाकर भी मत देखना," तारा ने एक बात से ही सारा झंझट समाप्त कर दिया था।

जैसे ही थानेदार के हाथ तारा के हाथ मिले, तारा शहर की पुलिस से बेखौफ़ हो गया था। अब उसे डर था तो सिर्फ जिले की पुलिस का जिनका तारा कुछ नहीं लगता था। अगर जासूसी ना हो तो तारा किसी के हाथ नहीं आने वाला था। अब तारा ट्रक की बड़ी ट्यूब शराब से भरकर, उसे घोड़ी पर लादकर दूर-दूर तक गाँवों में बेचने जाने लगा था।

स्थानीय थाने की पुलिस तो अब तारे की हवा की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखती थी। लेकिन जिले की पुलिस तारे को पकड़ने के लिए चक्कर काटने लगी थी। घुड़सवार पुलिस वाले तारा का हमेशा पीछा करते। पुलिस वालों के समान उनके घोड़े भी जल्दी ही हाँफने लग जाते थे। तारा की घोड़ी हवा के साथ बातें करती। रफ़्तार से छलाँग मारकर कस्सी पार कर जाती पुलिस वालों के घोड़े दोनों टाँगे जोड़ खड़े हो जाते और हाँफने लगते। देखते ही देखते तारा और उसकी घोड़ी क्हीं आलोप हो जाती थी।

पुलिस और तारा का यह चूहे बिल्ली का खेल कितने ही वर्ष चलता रहा था। यह खेल तब तक चलता रहा जब तक तारा ने स्वयं नहीं छोड़ दिया। तारा के फैसले से घरवालों ने राहत के साँस ली।

लेकिन तारे की आवाजाही इतनी जल्दी ख़त्म नहीं होने वाली थी। आये दिन उसको पुलिस थाने बुलाकर जलील किया जाता था। थाने वालों को तारा का यह काम छोड़ना अच्छा नहीं लगा था।

"तारा सिंह.......आदमी यह काम अपनी मर्जी से शुरू करता है, लेकिन छोड़ने का फैसला पुलिस वालों की मर्जी से होता है," थानेदार ने उसको थाने बुलाकर शराब का धन्धा दुबारा शुरू करने को कहा।

"जनाब तारे का फैसला पानी की लकीर के समान नहीं," तारा के इस उतर से थानेदार की भौहें तन गयी थीं।

"घाटा खायेगा," थानेदार ने तारा को कहा।

"जनाब सभी कामों में कभी मुनाफ़ा होता है? और तारा जब फैसला करता है नफा नुकसान नहीं देखता।"

तारा का ये उतर थानेदार को अपने कन्धे पर लगे स्टारों की तौहीन लगी। वह अन्दर ही अन्दर विष घोल रहा था।

"अभी दिन हैं.....एक बार फिर से सोच लेना," थानेदार ने अपने गुस्से पर काबू करते हुए काफी नरम अवाज़ से कहा था।

तारा तो फैसला कर चुका था, फिर और किस बात पर विचार करता?

इन दिनों चुनावों की गर्मा गर्मी शुरू हो गयी थी। तारा को फिर से थाने बुला लिया गया था।
“ओये पता है....सुरजीत सिंह पुलिस का आदमी ......अपना खास यार है। उसकी मदद करनी है," थानेदार की चूहे जैसे मूँछ फड़की।

"पुलिस के दलालों से तारा ्चिब्ब कढ की क्या दोस्ती। अभी तो उसको पहले का हिसाब भी चुकता करना है," सुरजीत सिंह जिसको लोग सीता घोरी कहते थे उसकी जासूसी के कारण ही तारा पुलिस के हाथ चढ़ा था।

"एक जट्ट.........पर से थानेदार और फिर भी तू उसका अपमान कर रहा है। अपने फैसले पर फिर से विचार कर ले तारा," थानेदार की मूँछें गुस्से से फड़कने लगी थीं।

"जनाब, ्चिब्ब कढ के फैसले पत्थर पर लकीर होते हैं," यह कहकर तारा थाने से बाहर चला गया।

चुनाव में सीता घोरी की हार से थानेदार का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था। थानेदार ने रात को ही तारा को घर से उठा लिया था।

"साला गधे चराने वाला.....हराम की औलाद....लड़की देने वाला.....," थानेदार पागलों की तरह तारा की पिटाई करने लगा।-गाली गलौच पर आ गया था।

"थानेदार.......मैं बहन.....तारा ्चिब्ब कढ। तुमने तारा चिब्ब कढ को लडकी की गाली दी है.......पीट लेता जितनी तेरी मरजी पर गाली नहीं देनी थी। अच्छा नहीं किया......भुगतना पड़ेगा तुझे," .....तारा मार खाता ही ललकारता रहा।

थानेदार ने तारा को हवालात में बद कर दिया। तारा को मिलने वाले ने थानेदार की मिन्नतें कीं। तारा गुस्से में लाल-पीला हो गया।

"तारा ्चिब्ब कढ....इस घमण्डी जट्ट की खुशामद करे...... इस भिखारी की। चिब्ब कढ से नहीं जी-जी होती ...... लगा दे जो फाँसी लगानी है।"

तारा को फाँसी तो नहीं लगाई गयी गया लेकिन चोरी के झूठे इल्जाम में छ: महीने की सज़ा सुना दी गयी। छः महीने के बाद जब तारा जेल से बाहर आया तो उसके दिल में बदले की भावना सुलग रही थी।

तारा ने थानेदार का पता मालूम किया। अब वह शहर के बड़े थानेदार की कुर्सी पर बैठ गया था। तारा ने अपने जानकार हलवाई से एक लोहे का डिब्बा लेकर उसमें शराब डालकर उपर से अच्छी तरह से ढक्कन बन्द कर दिया। शहर के अन्दर जाते ही तारा ने डिब्बे के अन्दर समान की चुंगी कटवा ली। शराब वाला डिब्बा हाथ में उठाकर उसने थाने के आगे तीन चार चक्कर काटे। अचानक ही थानेदार की नज़रें तारा पर पड़ीं। तारा को देखते ही उसके होंठ खिल उठे। उसने सिपाहियों को भेज कर तारे को बुला लिया।

तारा ने जैसे ही शराब का डिब्बा थाने में रखा, बदबू सारे थाने में फैल गयी।

"कुत्ते की पूँछ अभी तक सीधी नहीं हुई?" थानेदार कड़क कर बोला था।

"जब तेरी सीधी नहीं हुई.... तो तारा की कहाँ से होगी," तारा ने थानेदार को उसी के लहजे से उतर दिया। उसका मकसद थानेदार का चिढ़ाना था। थानेदार ने उसके साथ और कोई बात करना व्यर्थ समझा। उसी वक्त चलान काटकर जज को भेज दिया। जल्दबाजी में उसने पकड़ी गयी शराब का ब्यौरा भी थाने के आगे ही दे दिया था। थानेदार तबदिश के लिए खुद ही जज के सामने पेश हुआ था।

सब दलीलें सुनने के बाद जज ने थानेदार से एक प्रश्न किया।

"कितनी मात्रा में एल्कोहल पकड़ी है?"

"जी, 10 लीटर होगी?"

"बर्तन?"

"जी लोहे का डिब्बा हैं जनाब।"

"दिखाओ।"

थानेदार के इशारे पर सिपाही ने अदालत के बाहर रखा हुआ डिब्बा लाकर जज के सामने रख दिया।

“राईट," जज ने अपनी कलम से कागज़ पर कुछ लिखा।

"एल्कोहल कहाँ से पकड़ी है?"

"जी सर, थाने के सामने से।"

तारा बड़ा ही मासूम और भोला बनकर हाथ जोड़कर खड़ा हुआ था।

"क्या नाम हैं तेरा?"

"जनाब, तारा..... तारा चन्द पुत्र सालगराम।"

"क्या काम करते हो?"

"जनाब, गरीबों का कौन सा कारोबार होता है......जाति के कुम्हार हैं जी। घड़े, गमले, बढली, के बर्तन आदि बनाते हैं।"

"शराब भी बेचते हो?"

"मायी बाप..........शराब और मैं........हमारी तो सात पीढ़ियों में किसी ने शराब को छुआ तक नहीं। स्वाद भी नहीं देखा इस रतन का....माई बाप आप बेचने की बात करते हैं," तारा ने इतनी मासूमियत से जवाब दिया था, जज को उसकी बात पर यकीन हो गया था।

"यह डिब्बा?"

"मेरा हैं जनाब।"

"अगर यह तेरा है.....शराब को तू हाथ नहीं लगाता क्या कहानी है?"

"कहानी ये है जनाब डिब्बा मेरा है लेकिन अन्दर जो शराब हैं वो मेरी नहीं हैं।"

"ये क्या कहानी में कहानी डाल रहे हो तारा चंद?"

यह बात जज की समझ से बाहर थी।

"जनाब मैं जो भी बोल रहा हू सच बोल रहा हूँ। ये डिब्बा मेरा है लेकिन शराब मेरी नहीं है। इस डिब्बे के अन्दर पंजीरी थी। जिसे बेचने के लिए मैं शहर लाया था। शहर के मोहल्लों में पहले भी बेचता हूँ। महाजनियाँ बड़े चाव से खाती हैं जी। देसी घी और शक्कर से बनी पंजीरी को शहर में काफी पसन्द करते हैं। सर्दी में सेहत के लिए अच्छी होती है। इसके अन्दर मेथी डाली जाती है। जो घुट्नों के दर्द के लिए अच्छी होती है। जनाब का हुकम हो तो ला कर दूँ।"

"तेरी पंजीरी का स्वाद भी कभी देखेंगे........अब आगे बताओ क्या बात हुई थी," सरकारी वकील ने बोला था।

"मायी बाप ये देखो इस डिब्बे की मैने चुंगी भी कटवा ली थी।" तारे ने चुंगी की पर्ची निकलाकर जज के सामने पेश कर दी। जज ने परची को ध्यान से देखा और कागज पर कलम से कुछ लिखा।

"जनाब... कोई नजायज शराब की भी चुंगी भी कटवाता है?" जज पर अपनी बात का प्रभाव देखकर तारा ने बात को आगे बढ़ाया।

"जनाब, अगर मेरे पास शराब होती तो मैं थाने के सामने से क्यों गुजरता......मायी बाप दरअसल बात यह है कि.......थानेदार मेरे पर लाँछन लगाता है। किसी समय ये हमारे इलाके में रह चुका है। चोरी के झूठे केस में मुझे फँसाकर सज़ा भी करवा चुका है। चुनाव के समय से ही मेरे पीछे पड़ा है। गलत आदमी को वोट डालने के लिए मुझको मजबूर करता था। जनाब जी मैं नहीं माना....बस यही सारी कहानी है जी।" तारा हाथ जोडकर जज के सामने खड़ा हो गया।

"सर....यह आदमी झूठ बोलता है। यह हमारा पुराना मुजरिम हैं सर," बोलते हुए थानेदार को जज ने हाथ के इशारे से चुप करवा दिया। दरअसल इस थानेदार की इमेज जज के सामने इतनी अच्छी नहीं थी। शरीफ आदमियो को झूठे केस में फँसाना इस थानेदार की फितरत थी जिसके लिए जज ने पहले भी कई बार चेतावनी दी थी।

जज का बदलता हुआ मूड देखकर कड़ाके की सर्दी में भी थानेदार का पसीना छूटने लगा और कन्धे पर लगे स्टार काँपने लग गए थे।

जज अपनी नज़रें नीची करके अपनी फाईल पर कुच्छ लिखता रहा और इसके साथ-साथ बायें हाथ की उँगलियों से अपना सिर पकड़ कर दबा रहा था।

तारे को बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया। एक शरीफ नागरिक को झूठे केस में फँसाने की साज़िश के जुर्म में जज ने थानेदार को १५ दिन की सज़ा सुनाई थी।

तारा गर्दन ऊँची करके और अपनी मूँछों पर ताव देता हुआ, कितनी देर ही बेमतलब थाने के सामने चक्कर काटता रहा।

"रवेल का दफ्तर यही है?" उसने गेट के बहार बैंच पर बैठे एक आदमी से पूछा था।

"कौन रवेल?"

"रवेल चन्द। खान कोट वाला।"

"चन्द- चुंद तो है नहीं, हाँ एक सरदार रवेल सिंह हैं। सरदार रवेल सिंह बाजवा।"

यह बात सुनकर तारा को धक्का सा लगा था। “साला सरदार रवेल सिंह का।" उसने मन ही मन गाली निकाली थी।

"हाँ यही यही ....।"

"यही बरामदे से निकलकर, दायें हाथ के कमरे में बैठते हैं। काम क्या है?" सेवादार ने अपने दफ्तर में आयी एक नयी सामी को सिर से पैरो तक बड़े गौर से देखा था।

"काम-वाम कुछ नहीं... बस मिलना है," रूखे से लहज़े में बात करता हुआ तारा आगे बढ़ गया। सेवादार का पूछना उसे बेमतलब लगा।

बाप को दफ्तर में देखकर रवेल आश्चर्यचकित हो गया था। उसने असंमजस की स्थिति में अपना दायाँ कन्धा अपने पिता के सामने झुका दिया था। तारा ने अपना हाथ उसके कन्धे पर रख दिया था। तारा को देखते ही दफ्तर वालों ने तारा को सत श्री अकाल बुलाई।

"बस थोड़ा सा काम बाकी है निपटा कर घर चलते हैं। ये दो-चार आदमी बैठे हैं। इनका काम निपटाना दूँ," चपरासी ने चाय लाकर दे दी थी। चाय पीने के बाद रवेल ने उसको पास बिठाने की बजाये दूसरे कमरे में पड़ी कुर्सी पर बिठा दिया था। तारा को बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। वह खाली बैठा हुआ हाथ और पैर की उँगुलियों के कड़ाके निकाल रहा था।

तारा ने खिड़की के शीशे से रवेल की तरफ देखा तो उसको इस तरह से लगा कि रवेल सामने खड़े आदमी के आगे लचारी सी प्रकट कर रहा हो। वही लचारी जो बचपन में उसने अपने बाप की आँखों में देखी थी। तारा को रवेल से घृणा सी हुई। तारा ने उस आदमी को अपनी जेब से ३-४ नोट निकलाकर रवेल को पकड़ाते हुए देखा। रवेल ने आस-पास थोड़ा सा देखकर जल्दी से वो नोट अपनी जेब में डाल लिए और एक कागज़ उस आदमी को पकड़ा दिया। वह आदमी कागज़ लेकर जैसे ही बाहर निकला तो तारा उसके पीछे ही चल दिया।

"इस काग़ज में क्या चीज़ ह.......बेटा?"

"मेरे बाप की मृत्यु का प्रमाण पत्र है। मुझे नौकरी के लिए इसकी ज़रूरत थी," उस नौजवान आदमी ने तारा को उसकी बात का उतर दिया।

"सरदार क्या कह रहा था? कोई अड़चन डाल रहा था?" तारा ने एक साथ कई प्रश्न कर दिये थे।

"कहना क्या था............लचारी सी प्रकट कर रहा था। बोला चाये पानी दे जाओ अपनी ख़ुशी से........पूछने वाला हो ख़ुशी किस बात की। मैं अपने बाप की मृत्यु का प्रमाण पत्र लेने आया हूँ इसमें ख़ुशी की क्या बात। गाँधी वाले तीन नोट देकर बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाया है।" तारा के शरीर पर किसी ने उबलता हुआ पानी डाल दिया हो। वह जितनी तेज़ी से बाहर गया था उतनी तेज़ी से अन्दर आया।

"ओए हराम के बीज......मेरा बीज तो है नहीं तू.... मेरा बीज इतनी जल्दी नहीं गिरता......... धत तेरी की," तारे की आँखों में खून सवार हो गया था। दफ्तर के सारे कर्मचारी भी उसकी अवाज़ सुनकर इक्टठे हो गए थे।

"तेरे अन्दर आदमी वाली कोई बात नहीं है.......... बिल्कुल पीला कच्चा बर्तन निकला तू.......... आदमी के अन्दर पक्के बर्तन के समान टन-टन की अवाज होनी चहिये। तू तारा ्चिब्ब कढ की औलाद नहीं है.......!" सारे दफ्तर के कर्मचारी हतप्रभ से होकर तारे के मुँह की तरफ देख रहे थे।

"दफ्तर वालो..... यह कुर्सी पर बेठा हुआ सरदार रवेल सिंह बाजवा.....मेरी चोट नहीं.....थाना कोट वाले तारा ्चिब्ब कढ की औलाद नहीं है......हराम की औलाद है........"

तारा उॅंची अवाज में बोलता-बोलता दफ्तर से बाहर चला गया था।

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