सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में उत्तर आधुनिकता बोध

01-02-2015

सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में उत्तर आधुनिकता बोध

डॉ. गोपीराम शर्मा

हिन्दी नाट्य साहित्य की लम्बी यात्रा के बाद सुरेन्द्र वर्मा के रूप में ऐसा नाटककार सामने आया है, जिन्होंने ऐतिहासिक-पौराणिक कथानकों को आधार बनाकर ऐसे नाटकों की रचना की है जिनमें जहाँ युग के नये भाव बोध और जीवन मूल्य अभिव्यक्त हुए हैं वहीं मूल्यों की निस्सारता भी प्रस्तुत हुई है।

उत्तर आधुनिकता ने आधुनिकता की क्षमता को अस्वीकार कर दिया है। पूर्वाधुनिक और आधुनिक दोनों प्रकार की अवधारणाओं को इसने चुनौती दी है। इसने आधुनिकता के कमाये सत्यों पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। हिन्दी की अन्य विधाओं की तरह हिन्दी नाटकों में भी अब उत्तर आधुनिकता के प्रभावों को लक्षित किया जा रहा है। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में इतिहास के अंत, साम्प्रदायिकता के उफान, सत्ता शीर्ष पर दलितों की उपस्थिति, नारी स्वातंत्र्य की उद्घोषणा, आर्थिक उदारीकरण की चर्चा आदि के मूल में उत्तर आधुनिकता ही है।

सुरेन्द्र वर्मा के नाटक ऐतिहासिक कथावस्तु में इसी बदलते समाज और युग को चित्रित करते हैं। इन नाटकों में परिवर्तित होते जीवन मूल्य, समसामयिक भावबोध उद्धाटित होते ही हैं, प्रचलित मान्यताएँ टूटती हैं, वर्जनाएँ निस्सार होती हैं। इन कृतियों में जहाँ अन्तर्द्वन्द्व है, समकालीन राजनीति है, कलाकार की अस्मिता का प्रश्न है, स्त्री-पुरुष सम्बंध है, नियतिवाद है, मध्यमवर्गीय जीवन एवं व्यक्तित्व की खोज है; वहीं मुक्त जीवन की लीलामयी एवं उपभोगपरक दृष्टि उद्घाटित है। इनमें मूल्यों की तलाष या टूटन नहीं, मूल्यों की नाकामी है। मर्यादा-परम्परा व्यर्थ है, केवल काम कुँठाएँ या यौन भावनाएँ हैं। ये प्रवृत्तियाँ इन नाटकों को उत्तर आधुनिकता तक ले जाती हैं।

‘सेतुबंध’ नाटक नायक चन्द्रगुप्त की महत्त्वाकांक्षाओं का बिम्ब है। यह उत्तर आधुनिक संदर्भ है कि अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए धर्म, नीति, यहाँ तक की पुत्री की भी बलि दी जा सकती है। इसके साथ इस नाटक में कालिदास और प्रभावती के गुरु-शिष्या सम्बंध होने के बावजूद प्रेम सम्बन्धों की बात की गई है। कालिदास का अपनी शिष्या के प्रति प्रेम भाव भारतीय मूल्यों का विखंडन है। बेटे द्वारा माँ के प्रेम और शारीरिक सम्बंधों के बारे में पूछना, जानना भी परम्परागत मूल्यों को ध्वस्त करने वाला है। पुत्र द्वारा माँ के प्रणय के विषय में सोचने की भाषा उत्तर आधुनिक है - "...अन्तरंग के कितने ही उद्गार... अनुभवों की साझेदारी की कितनी ही व्यंजनाएँ.... तन मन के उद्वेलन के कितने ही शब्द चित्र।"1 प्रवरसेन द्वारा अपनी माँ के प्रेम सम्बंधों की बारीकी से छानबीन करना, बीते जीवन की परतें उघाड़ना तथा माता-पिता के प्रति सम्मान की अपेक्षा प्रश्नवाचक दृष्टि डालना आदि ऐसे संदर्भ हैं जो आधुनिकता को पीछे छोड़ते हैं।

‘द्रौपदी’ नाटक आधुनिक जीवन की आपाधापी, तनाव, संघर्ष, मन की टूटन, पारिवारिक विघटन, कुंठा आदि का वर्णन करता ही है साथ ही इसमें उत्तर आधुनिक जीवन की बहुलता, आंतरिक संघर्ष से विक्षिप्त व्यक्तित्व, परिवर्तित रिश्ते और सम्बंध, नवीन प्रेम सम्बंध, यौनाचार, पैसे और पावर का प्रभाव आदि का वर्णन है। इसमें उत्तर आधुनिक रिश्ते अभिव्यक्त हैं। भाई-बहिन, माता-पुत्री, पिता-पुत्री सम्बंधों का नया रूप है। पिता बेटे के यौन सम्बंधों पर नाराज़गी व्यक्त नहीं करता, बल्कि वह तो चितिंत है कि बात आगे नहीं बढ़ सकी-

"मन मोहन: लड़का निहायत ही बेवकूफ है।
सुरेखा: (देखती रह जाती है) क्यों?
मनमोहन: छह महीनों से सिर्फ बलाउज के बटनों तक पहुँच सका।"2

पैसा, सत्ता, पावर, जिस्मानी सम्बंध यही रिश्ते हैं जो उत्तर आधुनिक युग की देन हैं, इसी के लिए इस नाटक के पात्र भागते हैं।

‘सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ स्त्री-पुरुष सम्बंधों की उत्तर-आधुनिक व्यंजना है। यौन को उत्तर आधुनिक युग में एक ‘वस्तु’ माना गया है। शीलवती जो पहले पराये पुरुष से शारीरिक सम्बंध बनाने में हिचकती है, वही बाद में प्रगल्भ होकर यौन सुख को महिमा मंडित करती है- "कितने मूर्ख हैं आप! महामूर्ख! मूर्खों के सम्राट शयन कक्ष की यह समझ है आपको? नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं है, महामात्य! है केवल पुरुष के संयोग के इस सुख में।"3 इस नाटक की भाषा और वर्णन में उत्तर आधुनिक प्रोर्नोग्राफी के संकेत मिलते हैं-

"मैं उसे अपनी बाहों में लेता। उसकी कजरारी आँखें, उसके लाल होंठ, होंठों के फड़कते हुए कोने, चुम्बनों की अटूट कड़ियाँ, मैं काँपती उँगलियों से उसके वक्ष से अंशुक हटाता, मैं उत्तेजित साँसों के साथ उसका नीवी बंधन खोलता, उसका युवा शरीर, उसका नग्न शरीर, मैं अपने होठों से उसके उभारों को चूमता।"4 यह नाटक आधुनिक सैद्धान्तिकी को चुनौती देता है। काम सम्बंधों के खुले वर्णन, संतान और यौन सुख सम्बंधी धारणा आदि इसमें नये दर्शन प्रस्तुत हैं।

‘आठवां सर्ग’ सुरेन्द्र वर्मा ने कालिदास की पैरवी और पक्षधरता के बहाने से स्वयं अपने नाटकों के नर-नारी सम्बंधों और उनकी विलास क्रियाओं की तर्क सम्मत और विश्वसनीय व्याख्या प्रस्तुत की है। यह नाटक उत्तर आधुनिक विशेषताओं से युक्त है। उत्तर आधुनिकता प्रार्नोग्राफी को महत्त्व देती है और उसका साहित्य में चित्रण करती है। यह नाटक कला स्वातंत्र्य के नाम पर अश्लीलता की तरफदारी करता है। कीर्ति भट्ट कहता है- "इस सर्ग में वह है प्रियम्वदे, कि युवक सुने तो उत्तेजित हो जाएँ और युवतियाँ सुने तो उन्मत्त। यह काव्य नहीं, मदिरा का चषक है, सुन्दरी।"5 इस नाटक में यश प्राप्ति के लिए भाग-दौड़ और पदलिप्सा तत्त्व उद्घाटित हुए हैं। चन्द्रगुप्त ने अपनी सत्ता के प्रभाव से कला को खरीदा है। उत्तर आधुनिक युग में साहित्य और कला भी पण्य है, बिकाऊ है। "उत्तर आधुनिक साहित्य और कला का समाज से सम्बंध बुनियादी रूप से बदल जाता है। वह शाश्वत नहीं, शुद्ध नहीं व्यावसायिक हो जाती है।"6

‘छोटे सैयद बड़े सैयद’ में तत्कालीन राजनीति, राजकीय कुचक्र, दावपेंच, हिंसा, घृणा, गठबंधन, रक्तपात, कुटिल चालों का वर्णन है। इस नाटक की भाषा में यौन संदर्भ और अश्लीलता परोसी गई है। यथा-

"रत्नचंदः (डपटकर)... किसी ने ज्यादा चूँ चपड़ की तो चूतड़ों पर दस-दस डँडे लगाऊँगा। ...जो उल्लू का पट्ठा ज्यादा तेहा दिखाये न, उसे फौरन उसकी माँ की...।"7 इस नाटक में वर्णित राजनीति उत्तर आधुनिक कालीन है जो मूल्यों, नैतिकता, आदर्शों का विखंडन करती है। हर रिश्ते को गौण बनाती है।

‘एक-दूनी-एक’ में अकेले रहने वाले स्त्री-पुरुषों की स्थिति वर्णित की गई है। इसमें यह उद्घाटित है कि उत्तर आधुनिकता के दौर में नारी-पुरुष में एक ही सम्बंध सच्चा हो सकता है, वह यौन सम्बंध। इसमें आदमी और औरत के वार्तालाप से काम सम्बंधों, यौन बिम्बों और यौन शब्दावली वाली भाषा के दर्शन होते हैं। उत्तर आधुनिकता ने सभी पुरानी मान्यताओं का खंडन कर दिया है। प्रेम केवल ‘एडजस्टमेंट’ है। इस नाटक में प्रेम के नाम पर दैहिक सम्बंधों को ही तरजीह दी गई है।

‘शकुंतला की अंगूठी’ में स्पष्ट हुआ है कि व्यवसाय कला से अधिक महत्त्वपूर्ण है। उत्तर आधुनिक युग में कला पैसे की सामने बौनी है। मैनेजर का कथन है - "माना कि आप बड़े आर्टिस्ट हैं। अखबार में आपका फोटो छपता है, लेकिन कम्पनी ने आपको यह नट, बोल्ट और स्क्रू की बिक्री के हिसाब से रखा है। शकुंतला की खोयी अंगूठी ढूँढने के लिए नहीं।"8 नाटक में नील कनक से प्रेम नहीं करता, पर शारीरिक सम्बंध बनाने में नहीं हिचकता। शादी नहीं करना चाहता। ये विखंडन, यौन सन्दर्भ, अन्तर्पाठीयता उत्तर आधुनिक संदर्भ हैं।

‘कैद-ए-हयात’ में भी ‘अर्थ’ की महत्ता को रेखांकित किया गया है। वर्तमान समय में पैसा हर कला, हर हुनर, हर आदर्श से बड़ा है। भौतिकता के इसी प्रभाव के कारण परवेज कला को त्याग देता है - "जी हाँ, अब मैं शेर नहीं कहता। परवेज की परवाज खत्म हो गई।"9

सुरेन्द्र वर्मा का नाटक ‘नायक खलनायक विदूषक’ हो या एकांकी संग्रह ‘नींद क्यों रात आ नही आती’ सबमें सम्बंधों के नाम पर यौन सम्बंध हैं। नैतिकता के नाम पर मूल्य विखंडन है तो आदर्श के नाम पर पैसे का महत्त्व। इन नाटकों की भाषा उत्तर संरचनावादी है। नाटकों के संवादों में अन्तर्पाठीयता, अनेकार्थता देखी जा सकती है। इन नाटकों में स्त्री केन्द्रिक भाषा का पाठ मिलता है। भाषा के द्वारा यौन संकेत उभारे गए हैं - थ्योरी, प्रैक्टिकल, ब्लाउज के बटन, वो चीज, कहाँ तक, पाँच मिनट का सवाल, तुम्हें कुछ नहीं होगा आदि। नाटकों में पैरोडी का प्रयोग दिख जाता है।

कृष्णदत्त पालीवाल लिखते हैं- "विकेन्द्रीयता की प्रवृत्ति उभर रही है। दमित, दलित, नारी, अल्पसंख्यक जो कभी हाशिए पर थे, केन्द्र में आ रहे हैं। उत्तर आधुनिकता में आधुनिकतावाद के पूरे चिंतन को चुनौती दी जा रही है।"10

सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में यह विकेन्द्रीयता उभरी है। नाटकों के केन्द्र में नारी, नपुंसक आदि आये हैं। इन नाटकों की नारियाँ अपने अस्तित्व के प्रति कुछ अधिक ही सजग हैं। अपने यौन सम्बंधों के लिए पूरी समर्पित हैं। वे किसी बहकावे में आकर या परिस्थितियों के विवश होकर नहीं, अपनी ज़रूरतों के लिए सम्बंध बनाती हैं।

वर्मा जी के नाटकों के अध्ययन से स्पष्ट है कि इन नाटकों में अनेकार्थता, विकेन्द्रीयता, अन्तर्निर्भरता, अन्तर्पाठीयता, खुलेपन की माँग, प्रेम की नयी परिभाषाएँ, सत्ता और अर्थ का महत्त्व, स्त्री देह की कथा, यौन स्वच्छंदता, बहुलतावाद, आधुनिकता का नाकार आदि उत्तर आधुनिक विशेषताएँ प्रकट होती है। इन नाटकों का पाठ उपर्युक्त विशेषताओं के आधार पर ही किया जा सकता है।

सन्दर्भः-

1. तीन नाटक - सुरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 26
2. तीन नाटक - सुरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 84
3. सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 75
4. सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक - सुरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 75
5. आठवां सर्ग - सुरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 19
6. उत्तर आधुनिकता साहित्यिक विमर्श – सुधीश पचौरी, पृष्ठ - 23
7. छोटे सैयद बड़े सैयद - सुरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 75
8. शकुंतला की अंगूठी - सुरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 19
9. कैद ए हयात - सुरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ - 59
10. उत्तर आधुनिकता और दलित साहित्य - कृष्णदत्त पालीवाल, पृष्ठ - 36

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