सुकून! (आरती ’पाखी’)

15-09-2020

सुकून! (आरती ’पाखी’)

आरती 'पाखी' (अंक: 164, सितम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

रात के क़रीब दस बजने को थे। आज मौसम ने अचानक ही करवट बदल ली। आसमान में बिजलियाँ कड़क रही थीं। जिस वज़ह से बारिश होने के पूरे आसार थे। हाथ में शराब की बोतल लिए एक निजी कंपनी में काम करने वाला संदीप लड़खड़ाता हुआ अपने घर को जा रहा था। वह हमेशा ऐसे ही शराब के नशे में धुत होकर अपने घर जाता था। बस स्टॉप पर वह शाम को जल्दी ही उतर जाता। किंतु उसके बाद वह एक ठेके पर शराब पीने ठहर जाता। वह तब तक पीता रहता जब तक वो ठेका बंद नहीं हो जाता था। आज भी वह हमेशा की तरह एक हाथ में शराब की बोतल लिए और दूसरे से सिगरेट का कश खींचते हुए बढ़ रहा था। दारू कुछ ज़्यादा ही चढ़ गई थी। इस कारण वह लड़खड़ाते हुए क़दमों से बढ़ रहा था। कुछ ही देर में जैसे ही उसने अपने घर की चौखट को पार किया उसकी पत्नी हीना की नज़र उस पर पड़ी। वह अपने छः माह के बच्चे को दूध पिला रही थी। अपने पति को शराब के नशे में धुत देखकर वह अपने आपको बोलने से रोक ना सकी।

"आ...आज फिर आप नशा करके आए‌‌ हो! कितनी बार कहा है....दूर रहा करो इन सबसे। मिलता क्या है, आपको?"

"चुप कर! तू मुझे कभी नहीं समझ सकती। अपने काम से मतलब रखा रखो। ज़्यादा बकबक करने की ज़रूरत ना है। "

"अच्छा, ना बोलूँ...पति हो आप‌ मेरे। पता है न आपको यह सब आपकी सेहत के लिए कितना हानिकारक है!"

"एक बार कहा तो समझ नहीं आता तेरे...। तू ऐसे नहीं मानेगी? रुक तू आज... त.. तुझे बताता हूँ।"

उसने अपना चमड़े की बेल्ट निकाल ली और लड़खड़ाते हुए क़दमों से वह हीना की ओर बढ़ा। वह डर के मारे सिहर गई। उसने जैसे ही बेल्ट से हीना पर प्रहार करना चाहा; उसके क़दम लड़खड़ा गए। क्योंकि शराब का प्रभाव शारीरिक बल से कहीं अधिक था। हाथ उठे तो मारने को थे...लेकिन शरीर को ना सम्भाल पाने के कारण सहारे की माँग करते हुए वह ज़मीन पर धराशायी हो गया।। वह डर के मारे चौंक गई। अपने पति को मुँह के बल फ़र्श पर गिरा हुआ देखकर वह दौड़कर उसको उठाने उसके पास गई। उसने आहिस्ता से उसके हाथों को पकड़ा और पलंग की और घसीटा। क्योंकि उसे उठा पाने जितनी क्षमता हीना में नहीं थी। जैसे-तैसे करके उसने उसे पलंग पर लिटाया और जूते उतार दिए। पति महाशय अब भी बेहोश थे। लेकिन फिर भी डर के मारे हीना का बदन काँप रहा था कि क्या पता वह कब वापस खड़ा हो जाए और उसे पीटने लगे। लेकिन कुछ ही देर में उसे आभास हो गया कि वह अब शायद ही उठे! उसके कपड़ों से शराब की बू आ रही थी। जो सिगरेट वह पी रहा था वह अब भी फ़र्श पर पड़ी जल रही थी। शीघ्र ही आकाशीय बिजलियों की गड़गड़ाहट के साथ बारिश शुरू हो गई। उसका पति संदीप बिस्तर पर पड़ा खर्राटे लेने लगा। लेकिन हीना का नींद से दूर-दूर तक नाता नहीं जुड़ा। वह घंटे भर पलंग के बगल में घुटनों में सिर देकर रोती रही। उसे बख़ूबी याद था उसका वो बचपन जिसमें वह अल्हड़ अठखेलियाँ करती थी। वो यौवन भी याद था, जिसकी चरम सीमा पर होने के बावजूद भी वह कॉलेज में किसी भी लड़के की मित्र तक नहीं बनी। वक़्त बीता और उसकी संदीप के साथ शादी हो गई। शादी से पूर्व संदीप के बारे में उसने अच्छा ही सुन रखा था। लेकिन उसकी ज़मीनी हक़ीक़त का पता उसे तब चला जब वह पहली बार घर पर शराब पीकर आया और उसने हीना पर हाथ उठाया। तब से अब तक चार साल का वक़्त बीता गया लेकिन शायद ही ऐसा कोई दिन रहा हो जिस दिन संदीप ने हीना की पिटाई ना की हो। और हीना... उसने अपने पिता की इज़्ज़त रखने के लिए एक भी बार अपने घरवालों को संदीप के बारे में नहीं बताया। 

वैसे भी कितना आसान होता है... एक मर्द होना... किसी ऐसे पर हुकूमत करना, जिसने अपना सब कुछ दे डाला हो। ‌मर्द होने से लाख गुना तो मुश्किल होता है एक स्त्री होना। अपने मुख को किसी अनदेखे धागे से सी लेना। कई बार समाज के डर से तो कई बार परिवार के डर से।

पति ही परमेश्वर है, यही तो सिखाया गया था उसकी माँ के द्वारा, उसकी दादी के द्वारा। और परमेश्वर को पूर्ण अधिकार होता है कि वह अपने भक्त के साथ जैसा चाहे वैसा व्यवहार करे! और पत्नी... उसका क्या... वो तो ख़्वाब भी न देखे... क्योंकि वह तो केवल पति के पैरों की जूती है।‌ जिसे पुरुष के द्वारा तब तक पहनना पसंद किया जाता है...जब तक वह नई हो... उसके बाद या तो वो जूती की तरह रगड़ खाती रहती है... या फिर किसी नए जूते के आ जाने से सौत कहलाती है। 

पलंग के बगल में बैठे-बैठे यही सब तो वह सोच रही थी। लेकिन अचानक उसकी नज़र उस जलती हुई सिगरेट पर पड़ी। न जाने क्या सोच कर वह उठी। एक बार अपने छह माह के बेटे को निहारा और उसके माथे को चूमा। लेकिन नज़रें अभी भी उस सिगरेट पर ही थीं। उसने एक बार अपने बेहोश पति को भी देखा और सिगरेट की ओर बढ़ी। 

उसने हौले से बिना अपने पति की परवाह किए उस जलती हुई सिगरेट को अपने होठों से लगाया और  एक कश लिया...

उहू...उहू... 

खाँसी का दौरा उठ गया ... 

"ये क्या है.. इससे तो साँस भी ढंग से नहीं आ रही है..."

वह बुदबुदाई। 

लेकिन इसमें ऐसा क्या है जो इसे मेरे पति पीते हैं?

यह सोचते हुए उसने दूसरा कश लिया। सालों पुराने दर्द अब उस हवा और खाँसी के साथ उड़ते हुए नज़र आने लगे। पाँच-छह कश के बाद तो सब बदल सा गया। उसे ऐसा लगा मानो उसने कोई बड़ी जंग जीत ली हो। 

उसे एक अलग ही सुकून मिल रहा था। लेकिन अभी इतने से कहाँ कुछ होने वाला था। अब हीना ने अपनी ललचाई आँखों से उस शराब की बोतल की तरफ़ देखा जो उसके पति के हाथ से छूटने के बाद लुढ़ककर टेबल के नीचे चली गई थी। उसने उसे उठाया तो उसमे से अजीब सी बदबू आ रही थी। ठीक वैसी ही जैसी उसके पति के कपड़ों से अक़्सर आती थी। उसने एक बार फिर अपने बेटे की तरफ़ देखा और फिर अपने पति की ओर। लेकिन डरने की बजाय वह मुस्कुराई। 

शीघ्र ही उसने बोतल को खोलकर शराब को एक काँच के गिलास में उड़ेल दि‌या। सोचा था पतिदेव की तरह एक ही साँस में गट-गट पी जाएगी। लेकिन छि: वह बेहद कड़वी थी। उसे ऐसा महसूस हो रहा था, मानो उसका गला जल रहा है। सिर्फ़ उसे गला जलते हुए ही नहीं बल्कि वह एक-एक बूँद को अपने गले से नीचे उतरते हुए भी महसूस कर पा रही थी। लेकिन आँख बंद करने पर उसे सुकून मिला। एक ऐसा सुकून जिसकी तलाश उसे कब से थी। वो यही तो था। फिर क्या था, एक पर एक पैग बनते गए... और वह अपने गले में उड़ेलती गई। उसका पति तो शराब पीते वक़्त पानी या सोडा भी इस्तेमाल करता था लेकिन उसके गले को वह कड़वा ज़हर अब रास आने लगा था। धीरे-धीरे शराब का असर होना शुरू हुआ और वह फ़र्श पर ही ढेर हो गई। 

"हीना, ओ हीना! होश में आओ। मुन्ना कबसे रो रहा है। सुबह के दस बजने को है। तुमने शराब पी? शर्म नही आई निर्लज्ज!"

उसके पति ने हीना को क्रोधित होकर झंझोड़ा। शायद उसका पति भी मुन्ने की आवाज़ सुनकर जागा था। उसने आँखें खोलकर अपने पति की ओर देखा। उनकी गोद में मुन्ना था। वह लड़खड़ाते हुए क़दमों से हिम्मत करके उठी और आलमारी के कपड़ों के ढेर के बीच में से अबतक पति की जेब से बचाए पैसे लेकर लौटी और कहा -

"जान...एक बोतल मुन्ना के लिए और दो..दो बोतल अपने और मेरे लिए ले आओ। कल रात शराब पीने के बाद मुझे वो सुकून मिला जिसकी मुझे बरसों से तलाश थी। मैं चाहती हूँ...हम सबको वही सुकून मिले..."

"ये क्या कह रही हो तुम.... गृहस्थी ऐसे चलती है क्या?"

"श्श्श..! चुप रहें! गृहस्थी कैसे चलती है? वो मैं कल रात को सीख चुकी हूँ। आप जाएँ। समय नष्ट न करें," उसने अपने पति को हौले से बाहर धक्का देते हुए कहा। 

वह किसी पत्थर की मूरत बने खड़ा था। मुन्ना अभी भी रो रहा था। लेकिन वर्षों बाद किसी को सुकून मिल रहा था... तो वहीं किसी को पश्चाताप।

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