श्वेत सुंदरी

15-01-2020

श्वेत सुंदरी

जनकदेव जनक (अंक: 148, जनवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

मैं जब भी बाज़ार जाता, अपने मित्र श्याम नारायण पांडेय की जनरल दुकान पर अवश्य बैठता। शाम होते ही गाँव जवार के लोग बाजार में पहुँचते थे। थोड़ी देर में ही अच्छी-ख़ासी भीड़ हो जाती। कुछ मित्रों से भेंट मुलाक़ात हो भी जाती थी; पांडेय जी साहित्यिक व्यक्ति थे। अक्सर उनकी दुकान पर विद्वानों की जुटान होती थी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कथा, कहानी, कविता, लेख, आलेख, साक्षात्कार, परिचर्चा और संगोष्ठियों पर चर्चा होती रहती थी। वहाँ आने वालों में प्रो. शिवजन्म पांडेय भी हुआ करते थे। वे जब भी आते पांडेय जी के कान के पास अपना मुँह सटाकर कहते, “ मेरे लिए श्वेत सुंदरी का प्रबंध कर दीजिएगा। बाज़ार कर लौटता हूँ तो साथ में लेते जाऊँगा।”

इतना कहने के बाद वे बाज़ार में ख़रीदारी करने निकल जाते थे। उस दिन भी उन्होंने पांडेय जी से यही बात दुहराई थी। एक घंटा बाद वे झोला में आलू, प्याज़, टमाटर, गोभी, धनिया पत्ता आदि लेकर लौटे और पांडेय जी से अपने सामान का तगादा किया। तब अचानक श्यामनारायण पांडेय चौंके। कहा, “गुरुवर आपकी फ़रमाईश तो पूरी नहीं कर सका। धैर्य रखें। आपका सामान आपके दलान पर पहुँच जाएगा।” 

इस आश्वासन के बाद वे चले गए। मैं उनकी बातों पर कभी ग़ौर नहीं किया था। लेकिन उस दिन प्रोफ़ेसर साहब की व्यग्रता को देखकर हैरान रह गया। सोचने लगा कि ‘श्वेत सुंदरी’ पांडेय जी कहाँ से मँगवाएँगे! क्या दोनों ख़ूबसूरत लड़कियों की तिजारत करते हैं? यह तो सबसे अमर्यादित बात है। उनकी बातों ने मेरे अंत:करण में हलचल सी पैदाकर दी थी। सोच रहा था कि ये दोनों समाज के अग्रणीय और सम्मानित व्यक्ति हैं। गाँव के सभी समुदाय के लोग उनका इज़्ज़त-सत्कार करते हैं। शादी-विवाह और पर्व-त्योहारों के मौक़े पर उन्हें बुलाते हैं। जब लोगों को दोनों की असलियत मालूम होगी तो कितनी भद्द पिटेगी। यह सोच-सोचकर मेरा मन दोनों के प्रति घृणा से भर उठा। मेरे मन ने कहा कि इस दुकान पर बैठना अपनी प्रतिष्ठा गँवाने के बराबर है। उठकर वहाँ से जाने लगा तो पांडेय जी ने टोका और ठहरने का आग्रह किया। उनके आग्रह से मेरे अंदर की ज्वाला और भभक उठी और आक्रोश में बोल पड़ा, "श्वेत सुंदरी के चक्कर में एक दिन आप दोनों मुझे भी जेल साथ ले जाएँगे. . ."

मेरी बातों को सुनकर पांडेय जी ज़ोर-ज़ोर से ठहाका मारकर हँसने लगे और दुकान से बाहर निकले। मुझे अपनी अंकवाड़ी में पकड़े हुए पास की एक दुकान पर ले गये, जहाँ अंडा बिक रहा था, और दुकानदार से कहा, "भई, एक दर्जन श्वेत सुंदरी देना!"

दुकानदार ने उनकी कोड भाषा को समझते हुए तुरंत एक ठोंगे में एक दर्जन अंडे भर कर दे दिये। यह देखकर मेरे चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।

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