श्रीमद्भगवद्गीता: समाज में प्रचलित व्याख्या तथा मूल भावार्थ

01-09-2020

श्रीमद्भगवद्गीता: समाज में प्रचलित व्याख्या तथा मूल भावार्थ

गजेंद्र कुमार (अंक: 163, सितम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

श्रीमद्भगवद्गीता संसार का सर्वोत्कृष्ट गूढ़ ज्ञान का ग्रंथ है । इसे पंचम वेद भी कहते हैं। वेदों के मूल सार को संक्षिप्त समग्र एवं सारगर्भित रूप से समझाया गया है। ५००० वर्ष पूर्व भगवान योगेश्वर कृष्ण ने अपने श्रीमुख से कुंती पुत्र अर्जुन जोकि सांसारिक मोह माया की आसक्ति से विचलित होकर कर्म से विमुख हो रहा था, को सांख्य योग एवं कर्म योग का उपदेश दिया, जिसमें ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग बताए हैं। जो भी व्यक्ति श्रीमद्भगवद्गीता को समझ लेता है तथा आत्मसात कर लेता है उसका जीवन दैदीप्यमान ज्ञान रूपी प्रकाशमय हो जाता है। कोई भी व्यक्ति सच्ची श्रद्धा से इसका अध्ययन करता  है तथा जीवन को भगवत गीता में दी गई शिक्षा के अनुरूप ढाल लेता है तो उसके लिए ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, अतः भगवत गीता मोक्ष कारिणी कही गयी है। श्रीमद्भागवत गीता अत्यंत सूक्ष्म और अनुपम ग्रंथ है। इसे समझने के लिए समग्र चिंतन की आवश्यकता होती है अतः मार्गदर्शक या गुरु के सानिध्य में सरलता से समझा जा सकता है। मार्गदर्शक के बिना इसे समझना या तो प्रारब्ध से संभव है अथवा स्वयं भगवत कृपा से।

वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में  यदि देखा जाए तो बहुत से लोग विभिन्न संस्थानों या सामाजिक कार्यक्रमों में अपने द्वारा दिए जाने वाले भाषणों को अधिक सुंदर तथा आकर्षक बनाने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों का सहारा लेते हैं परंतु भ्रम वश तथा मूल भावार्थ की जानकारी के अभाव में ग़लत व्याख्या कर देते हैं।

कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो किन्हीं कारणवश अपने  पूर्वाग्रह के आधार पर ग्रन्थों की ग़लत व्याख्या करते हैं तथा उसे अपने समर्थकों द्वारा बहुत ही सुसंगठित तरीक़े से समाज में प्रसारित करते हैं जो कि सामाजिक हित में नहीं होता है। कभी-कभी तो समाज में वैमनस्य जैसी विकट स्थिति भी खड़ी हो जाती है। जैसे कि कुछ लोग कहते हैं, गीता भूमि विवाद के कारण स्वजनों के साथ युद्ध करने के लिए प्रेरित करता है। इसलिए यह ग्रंथ समाज के लिए हितकारी नहीं है। इस प्रकार के अपने कुतर्कों के साथ लोग इस ग्रंथ के लिए अशोभनीय भाषा का उपयोग भी करते हैं। ऐसे में जिनकी गीता मे अगाध श्रद्धा होती है, उनके साथ मनमुटाव हो जाते हैं, ऐसी अनेक घटनाओं का मैं साक्ष्य बना हूँ। परंतु संपूर्ण भगवत गीता में कहीं पर भी भूमि विवाद की बात नहीं हुई है, यह उनकी अत्यंत संकुचित तथा सीमित बुद्धि को परिलक्षित करता है।

श्रीमद्भगवद्गीता गीता के कुछ श्लोक हैं जिनका अपभ्रंश अथवा विकृत अनुवाद समाज में प्रचलित है, उनमें से दो श्लोकों का मूल भावार्थ सहित संक्षिप्त व्याख्या करने का यहाँ पर प्रयास करूँगा।

(1) कर्मण्येवाधिकारस्ते................ते संगोऽस्त्वकर्मण॥  (श्लोक ४७, अध्याय २) 

समाज में प्रचलित अनुवाद है कि कर्म करते जाओ और फल की इच्छा मत करो, यह भ्रामक अनुवाद है।

यथार्थ अनुवाद गीताप्रेस गोरखपुर के अनुसार भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, "कर्म करने पर तेरा अधिकार है फल पर नहीं। तू स्वयं को कर्मों का हेतु मत समझ तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति ना हो"।


श्री कृष्ण-संदेश  पुस्तक की व्याख्या के अनुसार भगवान कह रहे हैं, "तुम्हारा कर्म पर ही अधिकार है परंतु उसके फल पर नहीं, फल देना तो ईश्वर का अधिकार है"।

शंकराचार्य जी द्वारा रचित शंकरभाष्य में शंकराचार्य जी कहते हैं, "जब कर्म पर तेरा अधिकार है परंतु फल पर नहीं, अत: इस अवस्था में कर्म फलों की इच्छा भी नहीं होनी चाहिए"।

यहाँ जो मूलभूत बात कही गयी है वह है कि कर्म के फल की इच्छा नहीं होनी चाहिए क्योंकि फल तो सर्वशक्तिमान ईश्वर द्वारा व्यक्ति के प्रारब्ध के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं। अतः जब फल हमारे द्वारा निर्धारित ही नहीं किए जाते उसका सीधा तात्पर्य है कि हम फल की इच्छा के अधिकारी नहीं है। जब हम फल के अधिकारी नहीं हैं तो हमें कर्म फलों की इच्छा भी नहीं करनी चाहिए। यदि हम कर्मफल में आसक्ति रखते हैं तो वही हमारे सुख-दु:ख का कारण बन जाता है और हम कर्मफल चक्र के बंधन में बँध जाते हैं। प्राय संसार में लोग ऐसा ही करते हैं।

समाज में जो प्रचलित व्याख्या, "कर्म करो परंतु फल की इच्छा मत करो" जो कि मूल भावार्थ "कर्मफल की इच्छा नहीं होनी चाहिए", के विरोधाभासी है। क्योंकि इच्छा मत करो आदेशात्मक तथा निषेधात्मक है, जिसका तात्पर्य है कि हम ऐसा कार्य कर सकने में तो सक्षम हैं परंतु हमें कर्मफल की इच्छा नहीं करने का आदेश दिया जा रहा है परंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या हम वास्तव मे कर्मफल के अधिकारी हैं? क्या कर्मफल हमारे द्वारा ही निर्धारित किए जाते हैं? यदि ऐसा है तो क्या इच्छा मात्र से फल की प्राप्ति हो जाएगी? अवश्य ही इनके उत्तर नकारात्मक ही आएगा। 

अत: इसकी सही व्याख्या है जो कि शंकराचार्यजी अपने भाष्य में कहते हैं कि कर्म तो करो परंतु कर्मफलों की इच्छा ही नहीं होनी चाहिए क्योंकि जब हम कर्मफलों के अधिकारी नहीं हैं तो कर्मफल की इच्छा भी नहीं होनी चाहिए। प्राय: लोग सामान्य इच्छा तथा कर्मफल इच्छा प्रायः लोग भ्रमित हो जाते हैं! हम कर्मफल इच्छा के अधिकारी तो है परंतु इच्छा नहीं होनी चाहिए ये व्यक्ति के लिए श्रेष्ठकर है, इससे व्यक्ति में कर्मफल आसक्ति नहीं आयेगी और सुख दुःख का कारण भी नहीं रहेगा।

उपर्युक्त श्लोक में चूँकि कर्मफल इच्छा न करने के लिए कहा गया है, तब सामान्य बुद्धि में प्रश्न उठता है कि जब फल पर हमारा अधिकार ही नहीं है तथा फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए तब हम कर्म ही क्यों करें? इसी क्रम में श्लोक की अगली पंक्ति में श्री भगवान कहते हैं कि स्वयं को कर्मों का हेतु मत समझ तथा कर्म न रखने की भी आसक्ति ना रख। श्लोक का सार है कि कर्म करने अथवा नही करने मे आसक्ति नही होती चाहिए।

2) बुद्धियुक्तो जहाती....................योग: कर्मसु कौशलम्|| (श्लोक ५०, अध्याय २)

समाज में प्रचलित व्याख्या है कि कर्म की कुशलता ही दक्षता है और कर्मों कि दक्षता ही योग है। सन 2015 से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के प्रारम्भ के साथ उपरोक्त श्लोक को, योग को परिभाषित करने के लिए प्रयोग किया जा रहा है। सामान्यतः लोग योगासन करके अपने प्रचार हेतु सोशल मीडिया पर अपने छायाचित्र  के साथ लिखते हैं "योग: कर्मसु कौशलम्"। उनका मानना है कि कर्म कि कुशलता ही योग है। अर्थात्‌ योग ही सर्वश्रेष्ठ कर्म है।

परन्तु श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार तात्पर्य है, समभाव से किया गया कार्य ही योग है। योग की सबसे सटीक परिभाषा महर्षि पतंजलिजी द्वारा दी गई है – "योग: चित्तवृत्ति निरोध:, अर्थात्‌ चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण ही योग है”। 

उपरोक्त श्लोक का यथार्थ अनुवाद गीता प्रेस गोरखपुर में इस प्रकार दिया गया है कि समबुद्धि युक्त व्यक्ति पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अर्थात्‌ मुक्त हो जाता है। इसलिए हे अर्जुन तू समभाव रूपी योग में लग जा। समत्व भाव से किया गया कर्म ही कुशलता है और कर्म बंधन से छूटने का उपाय है अर्थात्‌ समत्वबुद्धि से कर्म किया जाता है तब कर्मफल नहीं चढ़ते हैं, न ही पाप और पुण्य लगता है। 

समत्व से यहाँ तात्पर्य है, जो भी कर्म किया जाए उसके पूर्ण होने अथवा न होने, साथ ही उसके फल भाव में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए। अर्थात्‌ सभी परिस्थितियों में एक ही भाव 'समभाव' हो, उसे समत्व कहते हैं। 

अर्जुन को शंका थी कि युद्ध करूँ या ना करूँ। वह स्वजनों को मारकर राज्य का भोग नहीं करना चाहता था। स्वयं को इस दोष का भागी नहीं बनाना चाहता था इसलिए वह कर्तव्य से विमुख हो रहा था। अतः भगवान उससे कहते हैं कि तू समबुद्धि युक्त योग से  कर्म में लग जा, यही कार्य में कुशलता है। 

कुशलता से तात्पर्य है, समत्व भाव रूपी योग तथा ईश्वरार्पण से कर्म करना, बंधन से परे रहना एवं कर्म की आसक्ति में न रहना। यदि व्यक्ति समभाव बुद्धि वाला नहीं है तो वह अवश्य ही कर्मफल आसक्ति में पड़ जाएगा तथा लाभ-हानि में स्वयं को स्थिर नहीं रख पाएगा और  विचलित हो जाएगा। अंततोगत्वा वह कर्म बंधन के चक्र अर्थात्‌ कर्म से फल और फल से कर्म के चक्र में फँस जाएगा इसलिए इस बंधन चक्र से दूर रहने के लिए समबुद्धि योग से कर्म ही कर्म में कुशलता कहा गया है। समत्वभाव ही योग हैं इसे समग्र चिंतन के साथ हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। 

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