सरकारी आँकड़े
अनिल खन्नाकल रात...
फिर किसी वहशी के
बिस्तर में
एक मासूम
लुट गई।
आज सुबह...
अखबार की सुर्ख़ियों में
ज़िंदा दफ़न
हो गई।
कुछ दिन...
टी. वी. चैनल्स में
वाद-विवाद का विषय
बन गई।
भाषणों के
खोखले शब्दों में
खो गई।
समाजिक विरोध के
नारों में
दब गई।
मज़हब की
सुलगती आग में
जल गई।
आख़िर एक दिन...
सरकारी खाते में
महज़
एक आँकड़ा
बन कर
रह गई ।
2 टिप्पणियाँ
-
Thanks DP
-
Very succinct and very telling!! Keep it up, Anil!!