संघर्ष ’एक आवाज़’ - 2

22-03-2016

संघर्ष ’एक आवाज़’ - 2

सुरजीत सिंह वरवाल

सत्य घटना पर आधारित

 दोपहर का समय था, अभी एक बजने में पाँच मिनट बाक़ी थे। तेज सिंह ने अपनी घड़ी की सुई देखी और उसी क्षण बादलों की तरफ देखने लगा। सत्तर की वृद्ध अवस्था में भी आशा की चमक आँखों में थी। एक क्षण में न जाने कितने विचार उसके मन में आए और बिना हरकत किए चले गए। परमात्मा जाने क्या सोच कर दोबारा विराट आसमान की तरफ़ देखने लगा। देखते-देखते आँखों से आँसू बहने लगे और अपनी आत्मा से वार्तलाप करने लगा।... न जाने हमें कब सुख का स्वर्ग मिलेगा। सारा जीवन इन खेतों में काट दिया सिर्फ़ इसलिए कि हमारे भाई बन्धुओं को खाने के लिए सामग्री प्राप्त हो जाए। समय-समय पर उनकी हर ज़रूरत को पूरा किया। लेकिन जब हमारा बुरा समय आया तो इन्हीं शहरों में बैठे हुए नेताओं ने, बनियों ने, दिल्ली में बैठे हुए राक्षसों ने कभी साथ नहीं दिया। साथ तो दूर बल्कि हमारी बोटी-बोटी को नोचने पर उतारू हो गए। कभी सरकार बदलने का हवाला दिया गया तो कभी पूर्व की सरकार को दोषी बताया गया। आए दिन सुर्ख़ियों में हमारा चीरहरण होता रहा। कभी गिरगिटिया नीतिओं से छला गया तो कभी पानी की कमी बतलाई गई। क्या था यह सब......हूँ...हूँ....क्या था ....क्या था ....यह सब .....अनायास ही मुख से आवेश में चीख़ निकल गई। धीरे-धीरे.....अपने रुँधे गले को सांत्वना देते हुए ....अपनी आत्मा को दिलासा देने लगा। वे भोले मनुख ....इन्हें क्या पता की एक किसान की क्या-क्या मजबूरियाँ होती हैं?....वह किस प्रकार रात-दिन, सर्दी-गर्मी, तूफानों में किस प्रकार से मेहनत करके आप सब को सुखमय जीवन प्रदान करता है।

हे...मेरे वाहेगुरू ..जदों जदों इस धरती ते अन्याय दा काला सम्राज्य छाया ओदों ओदों तू किसे न किसे रूप विच आया ....हे अकाल पुरख आज तेरी लोड़ है इस धरत माता नूं ....

तेज सिंह इतना विचारमग्न स्थिति में बैठा था कि उसे अपने आस-पास का भी स्मरण नहीं था उसकी ख़ामोशी को लखा सिंह ने तोड़ा।

"सत श्री अकाल...भाई तेज...।....की हाल चाल ने....?...ऐनी दोपहर ते तू इस सूकी जिही किकरी थले बैठा है....कि गाल्ल है ...?... सब खैरियत ता है या कुड़ी दे व्याह दी चिंता लगी होई है?"

तेज सिंह को जैसे ही आवाज़ सुनाई दी, मानों उसे किसी ने स्वप्न से जगा दिया हो।

"सत श्री अकाल वीर...."

"की गाल्ल है, बड़े डूंगे विचारा विच खुब्या नजर आ रिहा है।....अक्खा विचों अखरु की गाल्ल है दस वीर..."

"....कुछ नहीं वीर...क्या बताऊँ...अपनी जिन्दगी में हर एक किसान का जीवन देख रहा हूँ, महसूस कर रहा हूँ हमारी मजबूरियों को, गरीबी को, रोज जीने की इच्छा को, कोस रहा हूँ इस सृष्टि के निर्माता को...क्या जीवन दिया है...?....अगर दे भी दिया तो हमें हमारे ही अधिकारों से क्यों वंचित किया जा रहा है...क्यों हम लोगों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं ? क्या...आखिर क्यों ....?"

कुछ देर ख़ामोशी छा जाती है ऐसा भेद होने लगा जैसी सारी सृष्टि संताप में हो। ऐसा ज्ञात होने लगा जैसे इस ख़ामोशी में एक चिंगारी धधक रही हो.....

"की करिए वीर जी रब ने ता साडा नसीब ही कच्ची कलम नाल लिखिया है। चाह के वी असी कुछ नहीं कर सकदे। कदी सरकार ने आपनी हरी-भरी फसला विच मैन्स ला के फसलां नूं नष्ट किता....ते कदी पानी दी कमी दिखा के। तेनू याद है वीर....जदों बोडर ते साडी फसलां विच मैन्स बिछाई गई ता ओदों एक विगे पीछे पंज- दस हजार दे के साडे जख्मा ते मरहम लगा दिता...पुच्छन वाला होवें की साडी रात-दिन दी कमाई दी कीमत एक एकड़ विचो 5-10 हजार ही है।"

दोनों की आँखें मिलती हैं मानों उनकी आँखों में चिंगारी नहीं बल्कि अग्नि की ज्वाला भड़क रही हो।

"...हा बाई अब तो जो हमारे क्षेत्र को पानी दिया जाता था, उसमें सरकार ने कमी दिखलाकर आगे की भूमि आवंटित कर दिया है। बस बाई यहीं सरकार के पैसे की चकाचौंध ने हमारे को आज ये दिन देखने को मजबूर कर दिया है। हमारे बसे-बसाए घर को उजाड़ कर रख दिया है।....वीर एक बात समझ नहीं आती हमारे जैसे न जाने कितने किसान वर्ग त्रासदी झेल रहें हैं। क्यों सरकार इनको अनदेखा कर रही है। मेरे दूर के रिश्तेदार जो दिल्ली से बहुत आगे रहते है बता रहे थे हमारी तो पूरी खेती ही परमात्मा भरोसे हैं। कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि। जब सरकार को वोटरशिप चाहिये होती है तो इनके गिदड़ पूछ हिलाते हुए इधर-उधर रोटी मांगते है।....कैसा है अभिशाप इस किसान वर्ग को .....?"

...देखते-देखते लू अपना प्रकोप दिखाने लगी और आंधी के साथ-साथ गर्म ज्वाला धधकने लगी...मानों यह लू की ज्वाला किसी भी मनुष्य जाति की छाती चीर देने वाली हो...ऐसा ज्ञात हो रहा था जैसे इस लू में से कोई आवाज़ उन्हें जागृति का सन्देश दे रही हो......

"...सूरज सिर पर आ गया है लख्याँ...।....आज तो राजबीर भी घर नहीं...।"

"किथे गया.....?"

"कड़ी मेहनत के बाद उसका दाखिला विश्विद्यालय में हुआ है...बस भगवान से यहीं दुआ है कि पढ़ाई पूरी करके अपने पैरों पर खड़ा हो जाए....."

बाते करते-करते लू को चीरते हुए टीलों के ऊपर से गाँव 22.एम.एल.डी. की तरफ चलने लगे। अभी कुछ दूर ही गए थे कि लू ने तूफ़ान का रूप ले लिया। तूफ़ान इतना तेज़ था कि कुछ मरलों पर भी रास्ता साफ़ दिखाई नहीं देता था...।

मानों तूफ़ान उन्हें रोककर कोई सन्देश दे रहा हो। इतनें में एक खेजड़ी के नीचे खड़े हो गए। तेजा ने अचानक लखा की तरफ देखते हुए अपनी काँपती आवाज़ में बोला ...

"...देख वीर यह वही तूफान है जो एक चुप्पी के बाद आता है, हाँ....हाँ ....हमें ऐसे तूफान की ही आवश्यकता थी। यह ऐसे प्रतीत हो रहा है जैसे हमारें पैरों को, कंधों को, सीने को, झकझोर रहा हो। यह आवाज़ सुनों रररर श्स्स्स ....रररर श्ह्ह्ह , सुनों महसूस करो इसको...मानों यह हमसे कुछ कह रही हो।

"हाँ..हाँ बाई ऐह आवाज़ है ...."

"भाई देखो आज 21वीं सदी आ गई है। अख़बार में लिखा था लोग मंगल पर पहुँच गए हैं। एक नया अमीरों का देश बनने जा रहा है। लोगों के घर बनाने के आडर्र भी ले लिए गए है। और एक हम...अभी तक सोए हुए है। हम्रारे से तो यह तूफान ही अच्छा है, कम से कम इसे रोकने वाला तो कोई नहीं...।"

संताप से तेजा अपना सर नीचे झुका लेता है...।

लखा सिंह करुणा से उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला...

"वीर भरोसा रख उस सच्चे परमात्मा ते जदों-जदों जुल्म करन वाले राक्षस हौए ओउदो उस सतगुरु ने ओउना दा वक्त पैन ते हरण वी किता। मैंनू विश्वास है एक न एक दिन जो तेरे अन्दर चिंगारी सुलग रही है, अग्नि जरूर बनेगी। बल्कि एक तेरी ही नहीं इस संसार ते हर एक किसान वर्ग, युवा वर्ग, विद्यार्थी वर्ग, दा तूफान एहों आंधी तरहा होउगा। जिन्हूँ भ्रष्ट नेता कि सरकार वी नहीं रोक सकूगी। वीर एह सब ओह दारू ने जो नशा इको करदियाँ ने बस बोतल बदली जान्दियाँ ने...।"

"हाँ वीर तुम सही बोल रहे हो। वैसे भी इन नेताओं ने हर आम आदमी को कीड़ा समझ रखा है। वोटों के समय हमारे तलवे चाटने पर उतारू हो जाते है। लेकिन ज्यों ही समय निकल जाता है हमें अपना भयावह चेहरा भी नहीं दिखाते। इन्होंने अपनी गिरगिटिया नीतिओं से कभी विद्यार्थी वर्ग को छकाया तो कभी युवा वर्ग को नौकरी का झूठा लालच देकर लाखो पैसा ऐठा। अपने स्वार्थों के लिए क्या कुछ नहीं किया..कभी धर्म को हथियार बनाया तो कभी जाति के जहर घोल कर पिलाया...।"

दोनों की नज़रें मिली...विस्मित होकर देखने लगे जैसे किसी गंभीर सागर मंथन में लिप्त हो।

"भाई आज यह तूफान नहीं रुकेगा हमे घर चलना चाहिए...."

"हाँ ...हाँ वीर चलो ...।"

दोनों टीलों के ऊपर से धीरे-धीरे चलने लगते है...और इस तूफान की धूल में लोप हो जाते हैं .....।

- क्रमशः

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