समय

डॉ. अर्चना गुप्ता (अंक: 175, फरवरी द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

क्या परिस्थितियाँ आ गयी हैं? समय बड़ा बलवान है, यह सुना तो था अक़्सर मैंने अपने बड़ों से, मगर उसका चेहरा आज देखने को मिल रहा है। जीवन की कश्मकश कभी इतनी विचित्र तो न थी जितनी आज दिखाई पड़ती है। 

 कुछ सवाल हैं जिनके उत्तर तो शायद समय ही दे सकता है। अपने आस-पास पैर पसारती विषमताओं को देखती हूँ तो जैसे मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है। क्या इसी इक्कीसवीं सदी का स्वप्न हमने देखा था। अपनी संस्कृति, परम्पराओं और विचारों को आधुनिकता की आग में झोंकते हम कहाँ आ पहुँचे हैं यह शायद अब हमें समझ आ जाये। इस वैश्विक महामारी के चलते लोग बेघर हुए। ग़रीब, मज़दूर और कृषक तो जैसे कोरोना की तलवार की नोंक पे टँगा है। 

घर की दीवारों की बेड़ियाँ अब सुकून देने लगी हैं और बाहर से आने वाला हर शख़्स अपने बग़ल में कोरोना नाम की छुरी दबाये दीखता है। न जाने कब नज़र हटी, बुद्धिमानी घटी और कोरोना की छुरी हम पर चली। एक आश्चर्यजनक अलगाव और खिंचाव सा दिखाई देता है लोगों में। न कोई रिश्तेदार है, न सगा सम्बन्धी। हर रिश्ते की जैसे हमने वाट लगा रखी है। 

सामने पड़े मृत शरीरों को न छू पाने की कश्मकश, अपने ही प्रियजनों को खोने का डर जो शरीर में सिहरन और कम्पन पैदा कर देता है। क्यों कोई अलादीन के चराग़ का जिन्न नहीं है जो इस सबको नियंत्रित कर दे। हे ईश्वर तूने तो कहा था - "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः, अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहं"- अर्थात जब-जब तेरी आवश्यकता तेरे ही बनाये इस संसार में होगी और जब-जब धर्म की हानि होगी, तब तू जन्म लेगा धर्म की स्थापना के लिए। फिर कहाँ है आज तेरा सुदर्शन चक्र जो आकर इस महामारी से सबको निजात नहीं दिलाता। क्या तू आज भी उस गीतोपदेश को देना चाहता है जो वर्षों पहले तूने अर्जुन को दिया? इस महामारी से लड़ने को प्रेरित कर रहा है तू बिना फल की परवाह किये। परन्तु क्या सब अर्जुन हैं यहाँ? और अगर सब अर्जुन हैं तो कहाँ हैं कृष्ण जो अपने सारथि को गीता का उपदेश दें। शायद समय बहुत कठिन है और सामने रास्ता कुछ सूझ नहीं रहा। झकझोर रहा है भीतर ही भीतर कुछ न कह पाने की चुभन और कुछ न कर पाने की असमर्थता। दोनों ही अपने चरम पर पहुँच रही हैं। 

इन सब परिस्थितियों के बीच ही एक बड़ी गाज गिरी है टीचर्स पर। मैनेजर्स के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं ये। कभी टीम्स पर क्लास लेते हैं तो कभी गूगल मीट पर वर्चुअल मीटिंग। ज़ूम तो कुछ झूम के छाया हुआ है। हो भी क्यों न आखिर नेशनल और इंटरनेशनल हर तरीक़े के वेबिनार का मालिक जो बना हुआ है। और तो और फ़ैमिली गेट टुगेदर, वर्चुअल कम्पीटीशन्स, बर्थडे सेलिब्रेशन, गेम्स, और अन्य महत्वपूर्ण इवेंट्स सब के सब ऑनलाइन ही अपना डंका पीट रहे हैं। लेकिन क्या कभी कोई टीचर्स से पूछता है कि उन्हें किन-किन चुनौतियों से गुज़रना पड़ रहा है। हमारे देश के भावी नागरिकों की डोर आज उनके हाथ में है। ये टीचर्स ही हैं जिनकी वज़ह से ऐसे हालातों के बीच में स्टूडेंट्स के ऐकडेमिक करियर में ब्रेक लगने की बजाय सारी चीज़ें सुचारु रूप से चल रही हैं। परन्तु क्या टीचर्स को उचित सम्मान मिल रहा है? "गुरुः ब्रह्मा गुरुः विष्णु गुरुः देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः" का कांसेप्ट तो आज के स्टूडेंट्स की लाइफ़ से कोसों दूर दिखायी देता है। क्या यही वो भारत है जहाँ गुरु द्रोणाचार्य जैसे आचार्य हुए हैं और अर्जुन जैसा विद्यार्थी? क्या यही वो भारत है जहाँ एकलव्य जैसे विद्यार्थी ने गुरु दक्षिणा में अपना अँगूठा काट कर दे दिया? "गुरु गोबिंद दोउ खड़े काको लागे पाऊँ, बलिहारी गुरु आपने गोबिंद दियो बताय" जैसी मान्यता रखने वाला हमारा देश विदेशी सभ्यता की शिक्षा प्रणाली की पद्धति पर चलते-चलते कहीं अपनी ही संस्कृति की विशेषताओं से दूर तो नहीं होता जा रहा है? विषय बड़ा विचारणीय है परन्तु यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि शायद आज उन परम्पराओं की कोई बात नहीं करता। कहीं टीचर्स निकाले जा रहे हैं तो कहीं डिजिटल प्लेटफार्म की चक्की में पिस रहे हैं। सोचने वाली बात ये है कि क्या मानसिक तौर पर हम इसके लिए तैयार थे। शायद नहीं। तो फिर क्या इन्हें सहयोग और सहानभूति की आवश्यकता नहीं है? इन सब चुनौतियों के बीच कहीं तो वो अपनी ६०-७० बच्चों की क्लास में उन्हें सँभालते हैं तो कहीं घर पर १६-१८ घंटे हो रही अपने बच्चों की धमाचौकड़ी से निपटते हैं। इस पर भी चैन न पड़े तो कुछ लोग वर्चुअल क्लासरूम में निगरानी के लिए चक्कर भी लगा लेते हैं। आख़िर मानसिक तनाव थोड़ा कम जो है। परदे के पीछे से झाँकती दो आँखें उस लाल बटन में दिखाई पड़ती हैं जो आपकी उपस्थिति का अहसास कराती हैं। मानो किसी ने निशाना साध रखा है, तुम चूँकि, ये धाँय से गोली चली और तुम वहीं ढेर। 

अगर ऐसे ही बेक़द्री होती रही टीचर्स की, तो क्या जाने कौन काल का ग्रास बन जाए। इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है कि क्या हमारा मस्तिष्क ये तापमान झेल पाने कि अवस्था में है? सदियों से चली आ रही हमारी व्यवस्थाएँ और संस्कृति जिनमें गुरु को प्रभु माना गया है– आने वाले समय में टीचर को फ़ैसिलिटेटर को रूप में क्या स्वीकार कर पाएँगी? क्योंकि स्टूडेंट तो टेक्नोलॉजी से लबरेज़ हैं, जिन्हें चुटकी बजाते सारी जानकारी एक बटन प्रेस करते ही मिल जाती है। चलिए टीचर्स तो अपनी प्रकृति से ही मजबूर हैं कि वो अपने स्टूडेंट्स को शिक्षित करने को प्रणबद्ध हैं। वो सारी चुनौतियों का सामना करने को निश्चय ही अपने को तैयार कर रहे हैं। परन्तु इन चुनौतियों से लड़ने की उन्हें हिम्मत देना और उनके हौंसले को बनाये रखना ज़्यादा महत्वपूर्ण है या फिर उनके काम का जस्टिफ़िकेशन माँगते रहना। उन्हें मानसिक तौर पर स्वस्थ माहौल देना ताकि वो स्वछंद विचारों के साथ इन चुनौतियों का सामना कर सकें या फिर दिन-रात इस मानसिक दबाव के बोझ तले जीना की उनका टीचिंग करियर अब कुछ दिनों का मेहमान है? क्या ऐसा दबाव उन्हें कुछ नया सीखने के लिए प्रोत्साहित करेगा या फिर हतोत्साहित? ये निर्णय तो हमें ही करना है और वो भी वक़्त रहते अन्यथा कोई अनर्थ न हो जाये। 

अब हमारे सामने दो सवाल हैं– या तो ग्रंथों पुराणों और महाकाव्यों में विस्तृत गुरुकुल की और लौटें या फिर आधुनिकीकरण और तकनीकीकरण की चरम सीमा पर पहुँचें। किसी वायरस के संक्रमण की तरह बढ़ते टेक्नोलॉजी का प्रयोग या तो हमें आगे बढ़ाएगा या फिर कोई नया संक्रमण लेकर आएगा? अगर हमारे मूल संस्कार और पद्धितियाँ इतने ही प्रभावहीन हो गए हैं तो क्यों बार-बार हम जाते हैं अपनी जड़ों की ओर। क्यों एक वृक्ष फलने-फूलने के लिए अपनी जड़ों पे निर्भर करता है। जिस दिन उसकी जड़ों में कमी हो गयी उस दिन वो सूख जाता है। ये हम नहीं समझते। वास्तव में हमें ये समय कुछ सिखाने आया था। प्रकृति का महत्व, संस्कारों का महत्व, योग और पौराणिक कथाओं का महत्व। परन्तु लगता हैं एक बार फिर हम ग्लोबलाइज़ेशन की इस होड़ में अपनी जड़ों की तरफ जाना भूल गए। समय है अभी भी स्वयं को पहचानने का। इस वक़्त में एक दूसरे को वक़्त देने का। उससे भी ज़्यादा किसी कम्पटीशन से पीछे हटकर एक नए समाज के निर्माण की आवश्यकता को पहचानने का वक़्त है ये। जहाँ हम जागरूक हों और दूसरे को गिराकर स्वयं को उठाने की बजाय स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने का सोचें।

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