साँवले सजन- एक प्रेम कथा

25-09-2018

साँवले सजन- एक प्रेम कथा

शंकर सिंह सेन 'निलय'

सेठ नागमणि के बँगले से महाकाल के रुद्राभिषेक के उठते कई लयात्मक स्वर एक साथ हवा में तैरकर, मन को भाव-विभोर कर रहे थे। इस महाभक्ति में सेठ नागमणि के सारे नाते-रिश्तेदार तो एकत्रित हुए ही थे, गेंदा, गुलाब से सुसज्जित दोनों प्रवेश द्वार भी हर जन के लिए किसी मन्दिर के गर्भगृह की तरह खुले हुए थे और लोग आ-आकर उस प्रासाद की मंगल बेला का हिस्सा बन रहे थे। पूरा बँगला शानदार तोरण पताकाओं से झिलमिला कर अनुपम अनुभूति प्रदान कर रहा था। बँगले के भीतर जहाँ महाकाल का आसन, कमल, बेला, चमेली, गेंदा, गुलाब की दमक से सभी को सराबोर कर रहा था, वहीं बाहर चौक से उठती तरह-तरह के पकवानों की महक, हर जन को अपनी ओर खींचे जा रही थी। सेठ नागमणि काफ़ी प्रसन्न मुद्रा में थे, आख़िर वर्षों की मुराद आज इस भव्य रूप से पूरित हो रही थी, जो कभी सूखे हाथ सुरमे की नगरी से आकर नवाबों की नगरी के चौक क्षेत्र में बसे थे और अब शहर में चिकन के साथ-साथ फ़र्नीचर के भी नामी व्यवसायी थे। पूजा लगभग समाप्ति की ओर थी कि एकाएक नौकर दौड़ते हुए आकर उनके कान में कुछ बुदबुदाया और वे द्वार की ओर सरपट लपक पड़े। देखा एक ब्रह्म-तेज स्वरूप महात्मा द्वार पर पधारे हैं। उचित आसन, स्वागत-सत्कार ग्रहण करने की विनती पर वे नागमणि से हल्का खीझकर बोले- "राजन! रास्ता रोककर खड़े हो… फिर कैसे विराजने की बात करते हो?"

नागमणि ने एकाएक अपनी भूल सुधारते हुए दोनों हाथ स्वागत हेतु बढ़ा दिये। परन्तु महात्मा द्वार से आगे नहीं बढ़े और पुनः बोले, "राजन! धरती पर वही इन्सान श्रेष्ठ है, जो कथनी और करनी को एक कर दे, फिर चाहे वो लुटेरा हो या महात्मा, ज्ञान दोनों से लिया जा सकता है। तुमने शिवार्चना समाप्ति से पूर्व आसन तज कर ये पूजा खण्डित कर ली है… इसका प्रतिफल तुम्हें मिले न मिले, किन्तु मुझे तुम्हारे माथे की रेखाएँ स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि तुम्हारा ये धन-धान्य से भरा वैभव, तुम्हारे पूर्व जन्म के सत्कर्मों का फल है, लेकिन तुम्हारा पुत्र, नृत्य कर्म को अपनाकर तुम्हारे कर्म का अनुसरण नहीं कर पायेगा, जो घर में बड़े कलह का कारण बनेगा और इसका कारण एक विजातीय कन्या होगी।"

भयग्रस्त नागमणि जब तक पसीना पोंछकर उनसे कुछ उपाय पूछने को हुए, महात्मा अपना चिमटा चिंघाड़ते हुए मुड़ गये। फिर तो शंकित सेठ नागमणि का तन-मन इस आयोजित महाभक्ति में तो क्या, सामान्य जीवन में भी ठीक से नहीं रमा। लेकिन उन्होंने इस बात को घर-बाहर कहीं भी उजागर नहीं किया। अपने व्यथित मन से जब उन्होंने बडे़ होते पुत्र के विवाह की बात घर पर छेड़ी तो पत्नी ने बदलते ज़माने के साथ, कम-से-कम अठारह साल पार करने के पक्ष में होकर उन्हें वो ताने मारे कि वे फिर विवाह की बात भुला ही बैठे। बस मन की तसल्ली के लिए जब-तब पुत्र के मन को किसी बहाने से टटोलकर जानने की कोशिश में ज़रूर लगे रहते, "क्यों… आगे जीवन चलाने के लिए क्या करना है… मेरा ही ये कारोबार सँभालोगे… या कुछ और? ...आजकल गाने बहुत सुन रहे हो… क्या कुछ नया करने का इरादा है?" इत्यादि। परन्तु पुत्र के मुँह से घर का ही कारोबार सँभालने की बात सुनकर वे बड़े प्रसन्न हो जाते। अन्दर ही अन्दर उन्हें ऐसा महसूस होता- इसमेें नृत्य तो बहुत दूर, उसकी सोच तक नहीं है। ये कहाँ और कैसे सच हो सकता है? कभी-कभी तो पुत्र झुँझलाकर जवाब दे जाता, "पिताजी! मुझे देखते ही एकाएक ये आप क्या पूछने लगते हैं… क्या… इण्टर के बाद आगे नहीं पढ़ रहा हूँ.… घर में खाली बैठा हूँ, इसलिए?"

माँ बीच में बोल पड़ती, "ऐसा नहीं है पुत्र... मुझे आजकल तुम्हारे पिता जी का कुछ मानसिक सन्तुलन ठीक नहीं लग रहा है।" फिर पति से तुनककर बोलती, "किसी डॉक्टर से अपना इलाज करवायेंगे कि हम लोगों को भी साथ में बीमार करेंगे। ख़बरदार, जो आइन्दा घर का रेडियो बन्द किया और मेरे पुत्र से दोबारा ये सब पूछा तो, वरना… आजीवन मायके में ही रहकर दम तोड़ूँगी। अरे वैसे ही सिर दर्द के मारे मरी रहती हूँ... कुछ राहत विविध-भारती से मिलती है, तो वो भी तुम बन्द कर देते हो।" एकाएक घर का माहौल कुछ देर बदल जाता और फिर सभी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो जाते।

कभी होनी और अनहोनी आपस में संसार भर का फ़ासला लिये रहती हैं, तो कभी क़दम भर का भी नहीं। सारी सुख-सुविधाओं में पला सेठ नागमणि का इकलौता पुत्र देवकर्ण यूँ तो किसी बुरी आदत का लती नहीं था, पर एक रोज़ केसर बाग की गलियों से होकर निकलते समय उसके कानों में ऐसी मधुर झंकार पड़ी कि वह बरबस उसी ओर मुड़ता चला गया और एक कथक प्रषिक्षु के रूप-रंग, उसकी नाज़ो-अदाओं का अपने पर ऐसा नशा चढ़ा गया कि फिर महीनों केसर बाग की दरों-दीवारों में उस केसर को अपना बनाने का जुनून सिर पर लिये ढूँढ़ता रह गया और किसी तरह इतना पता लगाने में कामयाब हो गया कि वह उसी परिसर के अन्दर गुरु के साथ रहती है। परन्तु उसका बाहर निकलना ना के बराबर ही रहता है। अब वह क्या कर सकता था? जिस तालाब को उसने बड़ी तन्मयता से खोज निकाला, उसका जल ही उसके नसीब में नहीं। हद तो तब हो गयी, जब किसी सूरते-हाल काम न बनता देख वह अपने पैरों में भी पाजेब चढ़ा लेने की ठान, अपने दोनों हाथों में पाजेब, पुष्प अर्पण-सा भाव लिये, थामे, गुरु के पास जाकर नतमस्तक हो गया। लेकिन गुरु ने उसे स्पष्ट कह दिया कि तालीम को दो महीने बीत चुके हैं, ऐसे में अब यह कदापि सम्भव नहीं… हाँ यदि तुम में थोड़ी क़ाबलियत है… तुम वाकई समर्पित हो, तो मेरी एक छोटी-सी तालीम पर ही तुम्हें मंचीय परीक्षा में सफल होना पड़ेगा; तब कुछ सम्भव हो सकता है। उसने फ़ौरन हामी भर दी। वह काफ़ी प्रसन्न था। आख़िर उस परी से मिलने की आशा की कोई तो किरण फूट आयी थी। फिर उसने तालीम और अपनी मेहनत के बल पर कुछ पारंगत साथियों के साथ मंच पर कथक की ताल में वो भाव बिखेरे कि स्वयं गुरु ने भी चकित होकर उसे अपना कंठहार बना लिया, जो अपने बचपन में, लखनऊ घराने के विश्वप्रसिद्ध कथकाचार्य की उत्तम शिष्या रही थीं। अब तो उस रूपमन्त्रा से उसका रोज़ का ही मिलना था। फिर उसी ने ही उसे पाजेब बाँधना और नृत्य से पूर्व की सभी आवश्यक क्रियाएँ गुरु की आज्ञा पर सिखायी थीं। दोनों में दोस्ती हुई और ख़ूब हुई, जो धीरे-धीरे विश्वास में भी बदलती गई। उसका नाम नरगिस था।

एक शाम कक्षा में गुरु के आने से पहले आपसी परिचय बढ़ाते हुए जब देवकर्ण ने उससे कुछ पूछा, तो उसने बताया कि उसकी अम्मी और गुरु माँ आपस में बहुत अच्छी सहेलियाँ थीं, किन्तु एक रोज़ न जाने किस हत्यारे ने कौन से जन्म का बदला लेकर मेरे अम्मी-अब्बा दोनों को इस दुनिया से रुख़सत कर दिया और मैं गुरु माँ के साथ बाराबंकी से यहाँ लखनऊ आ गयी। अब वे ही मेरी सब कुछ हैं। देवकर्ण अपने परिचय में अभी मुस्कुराकर धीरे से इतना ही बोल पाया था- कि आपकी चाहत ही हमें ये नृत्य का शौक़ लगा गयी है, गुरु माँ ने दरवाज़े पर से- ता थेई तत थेई... धातक थूंगा....थुं थुं नातिटेता कहते हुए आकर सबको सावधान कर दिया और सभी हड़बड़ाकर तालीम में व्यस्त हो गये।

उनकी तालीम ऐसी कड़क थी कि किसी को पसीना पोंछने तक का समय न मिलता। फिर उस पर उनकी दो आँखें, हज़ार आँखों की तरह हर वक़्त एक-एक पर ही टिकी रहतीं। ऐसे में और कक्षा के उस सीमित समय में देवकर्ण के लिए यह भी ध्यान में रखकर सारी बात कर लेना कि कहीं से भी उसे ज़रा भी बुरा न लगे, यह सम्भव न था। उसके मन की असल बात मन कि मन में दबी जा रही थी और वह बेकार नृत्य में पारंगत हुए जा रहा था। धीरे-धीरे वह घर पर गुमसुम-सा रहने लगा। किन्तु माँ के लाख पूछने पर भी उसने अपने इस कृत्य से घर पर भारी भूचाल लाने का साहस नहीं जुटाया था। घर से तो वह रोज़ यह कहकर निकलता था कि मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग लेने जा रहा हूँ और वापसी में डर के मारे अपने पाजेब तक उसी के पास छोड़ आता था। चिन्तित माँ उसकी यह दशा देखकर, सुबह-शाम दूध, फल-फ्रूट के साथ सूखे मेवे घी में भिगो-भिगोकर खिलाने लगी और पिता उसे कारोबार की नसीहत देकर ये सब “फ़ालतू के शारीरिक काम” छोड़ने की सलाह देते। पर उसे इसकी परवाह थी कहाँ! वह तो उस गुलाबी रंग में ही ख़ुद क़ुर्बान हो गया था, जिसके आगे अन्य रंग मानो धूल-सा खा गये थे।

एक रोज़ वह कक्षा में ना जाकर उसी परिसर में स्थित दूसरे भवन की छत के एक कंगूरे के नीचे बैठ उसके नाम का एक खुला पत्र यह लिखा - “मुझे आपका साथ बहुत अच्छा लगता है, पर हमारा यह साथ इतना कम होता है कि अलग होकर कहीं भी मन नहीं लगता है। फिर अब माता-पिता को भी धोखे में रखना अच्छा नहीं लग रहा है। क्या आप मुझसे मिलने आ सकती हैं? अपनी तबीयत का कुछ बहाना बनाकर ही सही... मैं पीछे वाले भवन की छत के पीछे की तरफ़ एक कंगूरे के नीचे बैठा हूँ। पर मैं आपका थोड़ी ही देर इंतज़ार करूँगा… शायद फिर कभी हमारा मिलना न हो।” वह पत्र अपने दोस्त के हाथों उसे भिजवाकर उदास बैठ गया। वो प्रेयसी भी कम कहाँ निकली? पत्र पढ़ते ही उसे छिपाकर अपने को अचेत ऐसे गिराया कि फिर गुरु माँ से - “घर जाकर आराम करने की छूट” लेकर ही उठी। चिन्तित गुरु माँ ने दो लड़कियाँ, उसके मना करने पर भी, साथ में घर तक छोड़ने के लिए भेज दीं, जो बाहर पैर धरते ही वापस लौट आयीं और ख़ामोशी से आकर अपनी तालीम में जुट गयीं। न जाने उन्हें क्या पाठ पढ़या था उसने! फिर गुरु माँ ने भी उनसे कुछ नहीं पूछा था।

नरगिस लपककर भवन की छत पर पहुँच गयी और कुछ दूरी पर से देवकर्ण को मुरझायी-सी हालत में बैठा देख, धीरे से बोली, "क्या हुआ तबीयत तो ठीक है?"

देवकर्ण एक क्षण शान्त ही रहा। फिर दूसरी तरफ़ नज़रें घुमाकर उसने जवाब दिया, "हाँ… पर इसे आप नहीं समझ पायेंगी।"

"तो मुझे यहाँ बुलाया ही क्यों… चिट्ठी तो बड़ी लम्बी-चौड़ी लिखे थे।"

"आप ज़रा-सी बात पर नाराज़ होने लगती हैं, यही देख रहा था कि आप मेरे हृदय की गहराइयों से निकली बात को महत्त्व देती हैं या नहीं… या मेरा मज़ाक उड़ाकर चली जाती हैं।"

"हृदय मैं भी रखती हूँ और कान भी… आप बतायेंगे? इतना वादा ज़रूर करती हूँ... अगर मेरे हाथ में कोई समस्या का हल है, तो मैं आपको राहत हर हाल दूँगी।"

देवकर्ण उसकी इस मज़बूती को देख धीरे से बोला, "मेरा पागलपन, अब मेरे घर पर जी का जंजाल बनता जा रहा है।"

नरगिस ने बैठते हुए धीमे स्वर से पूछा, "कैसा पागलपन?"

देवकर्ण एक क्षण उसके चेहरे की तरफ़ देख, फिर उससे नज़रें चुराकर बड़े ही धीमे स्वर से बोल पड़ा, "आपसे प्रेम हो गया है हमें। और ये अभी से नहीं, उस दिन से है, जब हमने पहली बार आपको नृत्य करते देखा था। सच कहूँ... आपको पाने की चाहत में ही हमने अपने पैरों में ये पाजेब बाँधी हैं।"

"आपने बताया तो था… पर, शायद आपको हमारी क़ौम का ध्यान नहीं रहा… ऐसा हो पाना नामुमकिन है," फिर एक लम्बी चुप्पी के साथ ही वह खड़ी हो गयी।

"क़ौम... क्या इन्सानियत नाम की कोई क़ौम नहीं.… जहाँ इन्सानों में कोई भेद-भाव न हो। सच कहूँ तो, जो क़ौमें हम ढो रहे हैं, वो हम पर पैदा होते ही लादी गयी हैं, जिस पर इन्सान, इन्सानियत को भूलकर उस थोपी क़ौम के लिए ख़ून-ख़राबा तक करने को आमादा हो जाता है, जो जीवित है ही नहीं।"

नरगिस समय अधिक होता देख, जाने को तैयार होने लगी, "आपके इरादे नेक तो हैं, पर हमें कुछ समय चाहिए... जवाब देने के लिए। लेकिन आपसे गुज़ारिश है कि आप ये नृत्य तालीम किसी भी हाल में नहीं छोड़ेंगे।"

एक दिन कक्षा में जब गुरु माँ ने तालीम की समाप्ति पर अचानक देवकर्ण को रोक लिया, तो उसका चेहरा किसी बड़ी आशंका में डूबकर पीला ही पड़ गया और वह अपराधी-सा आकर उनके सामने सिर झुकाये खड़ा हो गया।

"शुरूआत में तो तुमने बड़ी ग़रीबी दिखायी थी। सुना है अब स्कूटर छोड़कर कार से आ रहे हो।" गुरु माँ के मुँह से यह बात सुनते ही मानो उसके अटके प्राण वापस आ गये। वह कुछ बोलता, इससे पहले वे पुनः बोलीं, "कल रविवार है... दोपहर में गाड़ी लेकर आओ, ज़रा मुझे अमीनाबाद तक जाना है। ध्यान रखना सवा बारह बजे तक पहुँच जाना।" गुरु माँ पूरे अधिकार स्वरूप बोलीं थीं, जिसे देवकर्ण तन-मन से स्वीकार कर लिया। परन्तु रविवार को घर से गाड़ी निकाल ले आना इतना आसान कहाँ था? उससे तो पिताजी साथ में चलकर कुछ चिकन के माल का हिसाब-किताब को भी समझने का क़रार पहले ही कर चुके थे। दरअसल, वे प्रत्येक रविवार को ही चिकन के जमा माल का भुगतान और निरीक्षण किया करतेे थे और इस कार्य में उन्हें लगभग पूरा दिन लग जाता था। बाक़ी दिनों वे फ़र्नीचर के व्यवसाय में ही व्यस्त रहते। देवकर्ण उन्हें छोड़ भी आता और शाम को लौटते समय साथ में ले भी आता। अब वह क्या कहकर गाड़ी ले जाए कि गुरु की आज्ञा का पालन कर सके? बड़ी दुविधा के साथ आख़िरकार किसी तरह उसने माँ से तो इज़ाज़त ले ली। परन्तु पिता के सामने उसका सारा बहाना जलकर पानी ही माँग उठा। वे शराब पिलाये घोड़े-सा ऐसा बिदके की अब शान्त होंगे तब शान्त होंगे की आस टूट गई और माँ को आख़िर पानी डालना ही पड़ गया। उस नोंक-झोंक में माँ की ऐसी जमी कि चाबी देवकर्ण के हाथ में आ ही गयी। सुबह नागमणि स्कूटर को ही अपनी क़िस्मत मान उसे स्टार्ट करके अभी बैठे ही थे कि सहसा देवकर्ण के मुँह से- मैं रोज़ की तरह आज भी आपको लेते आऊँगा की बात सुनकर पुनः कुछ क्षण गमक पडे़ और फिर पत्नी को घूरती निगाहों से देख रवाना हो गये।

अब शानो-शौक़त से घिरे लखनऊ के नवाब, अपना हाथी घोड़ा छोड़, खच्चर से चलेंगे तो भला किस मूरख के दाँत नहीं खुलेंगे। पूरा दिन ही जैसे लोगों की हँसती आँखों में कट गया था उनका। उधर देवकर्ण की आज्ञाकारिता पर गुरुमाता जितनी प्रसन्न थी उससे कहीं अधिक प्रसन्न था देवकर्ण, क्योंकि गुरु माँ के साथ कार में नरगिस भी अमीनाबाद की सैर पर जो निकली थी। अमीनाबाद जैसी तंग गलियों में गाड़ी से उतरकर कभी गुरु माँ पैदल आगे-आगे होतीं तो कभी वे दोनों। कभी गुरु माँ सामने की दूकान की सीढ़ियाँ, उन्हें गाड़ी में ही रोककर, चढ़ जातीं और देवकर्ण बातों की झड़ी-सी लगा देता, पर बातें थीं कि ख़्त्म ही नहीं होती थीं। एक जगह पर तो जब गुरु माँ के पीछे नरगिस कार से उतरी, तो उसका मलमल का दुपट्टा दरवाज़ा बन्द करते समय उसमें न जाने कैसे फँस गया? इसका पता उसे तब चला, जब वह आगे बढ़ने को हुई। फँसे दुपट्टे से वह अचानक ऐसी खिंची कि उसके मुँह से एक भयानक चीख निकल गई। फिर देवकर्ण द्वारा बड़ी जतन से निकाल लेने पर भी दुपट्टे के उस स्थान पर दो-तीन छेद हो ही गये थे। गुरु माँ लरजते हुए बोलीं, "इस लड़की को तो अपना दुपट्टा तक सँभालने का सउर नहीं... देवकर्ण! तुम पकड़ कर चलो।" नरगिस अपनी आँखें बेचैन हिरनी-सी तन गईं और देवकर्ण को हँसी छूट गई। कुछ क्षण पश्चात इसका एहसास होने पर वे ख़ुद ही लजाई-सी हँस पड़ीं।

घर वापसी पर नरगिस को आगे बैठना पड़ गया। गुरु माँ कुछ सामान दूकान पर ही भूल आयी थीं, जिसकी बिजली, घर पर सामान उतारते समय गिरी और उन्होंने देवकर्ण को फ़ौरन वापिस जाकर पीछे छूटा सामान ले आने का आदेश भी सुना दिया। परन्तु चतुर देवकर्ण बात बनाकर बोला, "उस समय तो नरगिस आपके साथ थीं। इन्हें पता होगा... साथ भेज दीजिए तो ले आयें… मुझे उस दूकान का कुछ ध्यान नहीं।"

गुरु माँ ने, न चाहते हुए भी हामी भर दी और कार आसमानी जहाज़ बनकर पूरी रफ़्तार पकड़ गयी। वक़्त हसीन तो तभी लगता है, जब दिल में किसी के लिए प्यार पनप रहा होता है और हर पल मिलने की आरज़ू, बल-खाये सिर चढ़ी रहती है। कहाँ पनसारी की दूकान में कुछ रखा था! वह तो उस छैलवा के कारस्तानी दिमाग़ का ही कुछ किया धरा था, जो कार उसकी आँखों के इशारे पर सम्मोहित-सी होकर भूल-भुलैया, बेलीगारद (रेजिडेन्सी) की मनभावन फिज़ा की ओर खिंच गई। वह ऐसा गद्‌गद था कि मानो उसे यह साथ हमेशा के लिए मिल गया हो। कहीं उन दोनों ने गोलगप्पे उड़ाये तो कहीं घूमते-फिरते ख़ूब हँसी-ठिठोली की। नरगिस उसके साथ जितनी प्रसन्न लग रही थी उससे पहले कभी नहीं रही थी। वह जब से लखनऊ आयी थी, बस उसी नृत्य केन्द्र के अन्दर बन्धक-सी होकर रह गयी थी। परन्तु देवकर्ण के साथ, लखनऊ की मनभावन ख़ूबसूरती उसके पोर-पोर को चहकाकर उसे नयी दहलीज़ के रंग-बिरंगे झोंको से मानो लपेट-सी गयी थी। वह प्रसन्न इतनी थी, कि भूल-भुलैया की छत के एक कंगूरे पर खड़ी होकर जब अपने दोनों हाथ पंख से फैलाकर ख़ूब आसमान की ओर उसने निहारा, तो एकाएक हल्का-सा चक्कर खाकर देवकर्ण की ओर झुक आने पर भी उसे दोहराने से न रुकी। शायद वह इस आज़ादी से जितनी प्रसन्न थी, उससे कहीं अधिक अपने को उसके साथ सुरक्षित महसूस भी कर रही थी। घबराये देवकर्ण को उसे ऐसा करने में फिर अपना सहारा देना पड़ गया। अब साथ भी देवकर्ण के हाथ में था और हाथ भी। माहौल था उन दरों, मेहराबों में लिपटी अथाह मोहब्बत की उड़ती सुगन्ध का। देवकर्ण का हृदय इस क़रीबी में थरथराते-सा हिलकर भार शून्य हो उठा और एक मीठी-सी सरसराहट ने उसके पोर-पोर को रिक्त कर, फिर उसमें ज़माने भर की हसीन ख़ुशियों का प्रबल संचार करके, उसे रोमानियत से भर दिया। ऐसे में न जाने कब देवकर्ण का सिर उसके कन्धे पर टिक गया, ये उसे भी तब पता चला, जब वह नीचे उतरने को हुई और उसने अपना सिर झटके से हटाया था। फिर एक पल लजाते-सा बिताकर वह धीरे से विनती स्वरूप बोल उठा, "कभी घर पर आइये ना।"

नरगिस मुस्कुराते हुए मज़किया लहज़े से बोली, "आपकी शादी पर?"

वह भी कहाँ कम था, उसी के अन्दाज़ में तपाक से उत्तर दिया, "तब तो आप हमेशा के लिए आयेंगी… ज़रा इस बीच का तो बताइये?"

एक क्षण लजाते हुए-सा होकर वह फिर एकाएक बात बदलते हुए बोली, "कहाँ... गुरु माँ मुझे बाहर जाने की इज़ाज़त देती हैं?"

"वो सब मुझ पर छोड़ दीजिए, आप हाँ तो करिये...।"

उसने पुनः बातों की दीवार चढ़ा दी, "आपके माता-पिता जी क्या कहेंगे?"

"क्या कहेंगे... कुछ नहीं... आप आइये तो।"

एकाएक वह कुछ याद-सा आकर आश्चर्य से बोल उठी, "अरे! परसों तो हमारा जन्म दिन है।" देवकर्ण मुस्कुराकर बोला, "तब तो आपको आना ही पड़ेगा।"

पर क्या गुरु माँ से आज्ञा ले पाना इतना आसान था... वो भी किसी को घर दिखाने के लिए? फिर, वार्षिक समारोह की तिथि नज़दीक देख, वे सभी को, सब कुछ भूलकर अधिक-से-अधिक अपनी तालीम में ध्यान देने का कड़ा आदेश पहले ही सुना चुकी थीं।

दुर्भाग्य से संयोग भी ठीक तीसरे दिन ऐसा बना कि सारे प्रषिक्षुओं ने कक्षा में अपनी शैतानियों से उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ा दिया और वे बे-तरतीब चीख उठीं, "अरे! घामड़ो... तुम लोग यहाँ शास्त्रीय नृत्य सीखने आते हो कि भड़भुट्टा ही करने आते हो?" उनके इस तीखे स्वर के साथ ही कक्षा में वर्षा के बाद-सा सन्नाटा पसर गया। हालाँकि अगले ही पल एक लड़के ने मासूमियत से पूछकर, माहौल थोड़ा सरल भी बना दिया- "ये घामड़ो और भड़भुट्टा क्या होता है गुरु माँ?” उसके बोलते ही गुरु माँ सहित सभी के दाँत खिस्स से दमक उठे। परन्तु अगले ही क्षण उन्होंने सभी को शान्त कराकर, तत्काल उसे बाहर निकल जाने का कड़ा आदेश भी उग्र रूप से सुना दिया। वह बाहर जाते-जाते पुनः उसी तरह बोल पड़ा, "बताइये… ऐसा क्या पूछ लिया हमने?… जब नहीं पता था तभी तो पूछा था।" फिर एकाएक गुरु माँ से वापस अपनी जगह बैठने का आदेश सुन, वह जैसे ही पीछे मुड़ा और अपनी जगह किसी दूसरे को बैठा देखा, तो हल्का-सा खीझ उठा- "कहाँ बैठें... देखिये सब तो मुझे बाहर करने पर तुले हुए हैं।" पुनः सभी के होंठ फैल गये। तभी दरवाजे़ पर से एकाएक आवाज़ आयी- “साहब ऑफिस में कोई अभिभावक आपसे मिलने आये हैं।” वे सभी को तबला मास्टर की निगरानी में एक नृत्य स्टेप सौंप, अपने कक्ष में पहुँच गयीं। परन्तु वहाँ किसी अभिभावक को न पाकर, जब वापस लौटने को हुईं, तो अचानक एक प्रषिक्षु लड़की तेज़ी से आकर, अस्पताल में भर्ती अपने चाचा की ख़ैर-ख़बर लेने के लिए उनसे छुट्टी दे देने की घोर विनती करने लगी, जिसे उन्होंने तात्कालिक मंजूरी भी दे दी। किन्तु जब उसने पैदल, रिक्षा इत्यादि से पहुँचने में देरी का हवाला गिनाकर धीरे से देवकर्ण की बात कही तो, वो बिदक पड़ीं, "अब तुम लोग भी उस बेचारे का ख़ून चूसो… गेट तक भी पैदल नहीं चल पा रहे हैं क्या तुम्हारे पाँव?" फिर उसकी मरी-सी सूरत और चुप्पी देख, उन्होंने आज्ञा दे ही दी। लेकिन वह पलकें नीची किये बड़ी चतुराई से पुनः धीमे स्वर से बोली, "गुरु माँ! इस देरी पर भी वह तो मेरे साथ अकेले जाने से रहा… अगर…आप...आज्ञा... दें तो, उसके साथ… नरगिस को भी... ले जाएँ... साथ भी हो जायेगा और घरवालों को कुछ बुरा भी नहीं लगेगा।"

गुरु माँ की आँखें एक क्षण पीले कद्दू-सी चौड़ी हो गयीं, पर ऐसा-वैसा कुछ न बोलकर वे हिदायत के साथ तीखे स्वर सिर्फ़ इतना ही बोलीं, "जाओ, लेकिन वापसी में जो देर हुई, तो समझ लेना।"

कार उस महाअभिनयी लड़की को ठीक उसकी बतायी गयी जगह पर उतार, सर्र से चौक की ओर मुड़ गयी और फिर एक बड़े से गेट के सामने जाकर खड़ी हो गयी। देवकर्ण अपनी इस सफल चाल पर जितना प्रसन्न था नरगिस उतनी ही असहज-सी थी और यह असहजपन मौन रूप में भी उसके हाव-भाव से पूरा झलक रहा था। धीरे-धीरे वह देवकर्ण के पीछे उस विशाल घर के अन्दर कई घुमावदार रास्तों से होते हुए एक कक्ष में प्रवेश कर गयी और कक्ष की सुन्दर सजावट देख एकाएक ऐसी मुग्ध हो गयी कि नौकर द्वारा प्रस्तुत किये गये नींबू शरबत को, देवकर्ण के आग्रह पर भी छोड़, कक्ष को ही निहारती रही।

दीवट पर जलता एक बड़ा दीया शाम की अँगड़ाइयों को अपने लहकते प्रकाश से जवां कर रहा था। कमरे के चारों कोनों में क़रीने से रखे हुए अलग-अलग फूलदानों के सुन्दर आर्टिफ़िशियल खिले-अधखिले फूल घनी हरी पत्तियों के साथ उस पतित बेला में सितम ढा रहे थे। बीच में एक क़ीमती आरामदायक सोफ़ा एक प्लास्टिक बुनी कुर्सी के साथ एक गोल टेबल, जिस पर रखे ताजे़ फूलों के गुलदस्ते की उड़ती महक, मानो किसी को भी अपनी ओर खींच लेने को आतुर-सी थी। दीवार पर टँगी एक आदमक़द श्वेत-श्याम तस्वीर का शीशा दीवट की प्रतिच्छाया उकेरकर अपनी तरह के प्रकाश से पूरे कमरे को भरमा रहा था। एक छोटी खिड़की जो दरवाजे़ के ठीक सामने थी, बन्द थी और उसमें डले कामदानी रेशमी परदों के बीच-बीच में पड़ी कई चमकदार लड़ियाँ सितारे-सी झिल-मिलाकर कमरे की ख़ूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे। इस कक्ष की सुन्दर सजावट देवकर्ण ने एक इन्टीरियर डिज़ाइनर से कम-से-कम समय में पूरी करवायी थी।

"कमरा तो ख़ूब अच्छा सजाया है आपने। ऐसा लग रहा है, जैसे चाँद-सितारों की रोशनी में गहन निशा, साँवली होकर रह गयी हो... हर एक चीज़ स्पष्ट न होते हुए भी अपनी स्पष्टता का आभास, आकार के साथ कितनी सुन्दर सघन छाया के साथ करा रही हैं। बहुत अच्छा लग रहा है यहाँ... वो बड़ी-सी तस्वीर किसकी है?" वह पूछते ही उसी ओर बढ़ गयी।

देवकर्ण ने धीरे से उत्तर दिया, "जिन्हें हम बहुत चाहते हैं।"

वह चौंक उठी, "अरे! ये तो हमारी है... कहाँ से बनवा ली...इसे उतारिये... आपके माता-पिता क्या कहेंगे?"

देवकर्ण मुस्कुरा उठा, "उन्हें क्या मालूम कि ये आप हैं।"

वह फिर वापस आते हुए बोली, "कहाँ हैं वे?… अभी तक तो मिलवाया भी नहीं उनसे आपने।" देवकर्ण ने धीरे से उत्तर दिया, "वो पूर्णागिरी दर्शन पर गये हैं।"

सुनते ही एकपल मानो वह ठगी-सी खड़ी की खड़ी रह गयी। उसकी सारी प्रसन्नता मौन रूप में ही जैसे चकनाचूर होकर ज़मीन में धँस गयी, लेकिन उसकी आँखें इस अन्तर्द्वंद्व की उठा-पटक को स्पष्टता से दृष्यांकित कर उठीं, जिस पर देवकर्ण ने अपनी पूरी सफ़ायी प्रस्तुत कर, फिर उससे कुर्सी पर बैठ जाने की बड़ी याचना के साथ ही एकाएक नौकर को आवाज़ दी। धीरे-धीरे वह फिर देवकर्ण के बात-व्यवहार में घुलती चली गयी।

नौकर, टेबल पर केक लगाकर चला गया।

"जी बताइयेगा… कितनी मोमबत्तियाँ लगायें… चौदह कि बीस? देवकर्ण ने धीरे से बड़े ही अपनत्व भाव में छिपे मज़ाकिया लहज़े से पूछा तो उसको हल्की हँसी छूट गई और वह मुस्कुराते हुए बोली, "जी नहीं... सोलह।"

केक कट जाने के बाद, जब मुबारकबाद के साथ देवकर्ण ने उसे केक का टुकड़ा अपने हाथों खिलाना चाहा, तो उसने संकुचाकर उसे अपने ही हाथ में ले लिया और वह अनमना-सा होकर एक पल उसकी ख़ूबसूरती को बेहद क़रीब से निहारने लगा। उसके कपोलों पर ऐसी ग़ज़ब की लालिमा छायी थी कि मानो वे उसी के गुलाबी दुपट्टे का रंग चुरा गयी हों और दीये की झिलमिलाती रोशनी उस रंग को बड़ी ख़ूबी से बिखेर रही हो। उसका बायाँ हाथ देवकर्ण के हाथ में आ गया था, जिसे उसने छुड़ाने की नाकाम कोशिश भी की थी और दायें हाथ में वह केक थामे थी। कुछ क्षण पश्चात जब उसने एकाएक झुकी पलकें देवकर्ण की ओर धीरे से उठायीं, तो वह उसे किसी राजकुमार से कम न दिखा था। रूपवान तो देवकर्ण भी ग़ज़ब का था ही। फिर उस पल उसकी कुटिल मुस्कान ऐसी थी कि शर्माते हुए उसने अपना हाथ झटककर छुड़ा ही लिया और देवकर्ण उसी मुस्कान के साथ धीरे से बोला, "कुछ सोचा आपने हमारी बात पर?"

नरगिस ने लजाते हुए एक क्षण पश्चात् उत्तर दिया, "सोचा तो है… पर इसे अभी जैसे का तैसा ही छोड़ दीजिए... कहीं ऐसा न हो कि घरवालों के साथ-साथ बाहर भी हमारी बात महत्त्वहीन हो जाए। थोड़ा सोच-समझकर क़दम उठायें तो बेहतर होगा।"

धीरे-धीरे वे दोनों ढेर सारी बातों में कहीं गुम से हो गये। एक तरफ़ दोनों की चाहत कुलाँचे भर रही थी तो दूसरी तरफ़ घर-परिवार के क्रोध की ठोकर और धर्म का जाल उन्हें भयभीत करा रहे थे। देवकर्ण घर से बग़ावत करने को तैयार था। पर नरगिस ने उसे घरवालों को विश्वास में लेकर बात करने की सलाह दी, जिसे देवकर्ण स्वीकार कर लिया। लेकिन यह इतना आसान कहाँ था? ख़ासकर हर-हर भजो… नागमणि भवन में! बात उसके गले तक आते-आते ही रुक रही थी। उसकी इस करनी से न जाने घर में कब भूचाल आता, पर इससे पहले ही नागमणि के एक मित्र ने वार्षिकोत्सव में देवकर्ण को नृत्य करते देखा। कभी नागमणि ने उसकी पुत्री के नृत्य कर्म पर भारी उपहास किया था। बदले का ये उत्तम अवसर पाकर, उन्होंने उसी दम, एक बडे़ विचित्र अन्दाज़ में छम-छमाते घुँघरुओं को अपने पैरों में बाँध और उनका शोर लिए धम्म से नागमणि भवन पधार, भूचाल के साथ कोहराम भी मचा दिया। वह अपनी चोट पर ख़ूब मलहम रगड़कर, जाते-जाते पैरों से घुँघरू उतार, सेठ नागमणि की ओर, बेटी की तरफ़ से उसके बेटे के लिए उपहार कहकर उछाल चले गये। देवकर्ण के आगे खाई तो थी ही पीछे गहरा कुआँ भी ख़ुद गया, लेकिन यह सारा कृत्य उसकी अनुपस्थिति में घटित हुआ। जब वह लौटा, तो कुछ निश्चय किये था कि अब किसी तरह पिताजी से सब कुछ कह दूँगा। पर उस अनजान को कहाँ ज्ञात था कि उसका लालिमा लुप्त चेहरा एकाएक पिता के कठोर दण्ड का भारी जाल देख, गहरा पीला पड़कर उसे भयानक यन्त्रणा ही देगा।

एक खम्बे पर उसकी लम्बाई के बराबर में दो घुँघरू लटके थे और खम्बे की बगल में उसी की क़द-काठी का एक युवक मार्शल आर्ट की वेश-भूषा में सीना ताने किसी गुर्राये सैनिक-सा मोर्चा लिये खड़ा था। उसी से कुछ दूर और देवकर्ण के ठीक दायें तरफ़ कुछ दूरी पर सेठ नागमणि हाथ में रायफ़ल उसकी तरफ़ ताने गम्भीर मुद्रा में गरजते आकर खड़े हो गये।

"नालायक़! आज मुझे यक़ीन हो गया कि तुम सेठ नागमणि की ये मणि बेचकर खा जाओगे। अच्छा हो ऐसे कुलदीपक को जलने से पहले ही बुझा दिया जाए," उनका निशाना बड़ा अचूक था। एक घुँघरू छन्न की आवाज़ के साथ नीचे गिर पड़ा। देवकर्ण डरे-सहमे स्वर में धीरे से बोल उठा, "ये सब क्या है पिता जी?"

सेठ नागमणि ने पुनः आग उगली, "जो तुम्हारे सामने परीक्षा बनकर खड़े दिख रहे हैं... इन दोनों में से अगर तुमने घुँघरू चुने, तुम्हारी मौत निश्चित है। यदि लड़का चुना और इससे मार्शल आर्ट में हार गये, तो भी तुम्हारी मौत निश्चित है। मगर चुनना तुम्हें एक को हर हाल में है।"

माँ के हज़ार घर सिर पर उठा लेने पर भी वे फिर टस से मस नहीं हुए और माँ भी आख़िर उनके महाक्रोध की ज्वाला देख सहमी-सी शान्त खड़ी हो गयी।

एकाएक वह अपने में साहस बटोरकर देवकर्ण धीरे से बोल पड़ा, "जब आपके हाथों मौत आ ही रही है, तो मुझे इससे कोई भय नहीं पिता जी! भय है, तो केवल किसी से अपना वादा पूरा न कर पाने का।"

उसके ऐसे व्यवहार पर सेठ नागमणि का क्रोध मानो आसमान छू गया, "तुम चाहे जिसे चुनो... मौत तुम्हारी निश्चित है।"

देवकर्ण ने भी अब अपनी वाणी को मज़बूत कर पूछा, "तो फिर ये परीक्षा क्यों?"

"मैं देखूँ तो, तुम्हारी बज्जात हरकतों में कितना साहस है।" उन्होंने रायफ़ल को दोनों हाथों में थाम शान से पेट और कन्धे के बीच तिरछा खड़ा किया लिया।

देवकर्ण उनकी इस करनी पर उन्हीं को घेर उठा, "तो ये मेरा भाग्य और आपका दुर्भाग्य होगा पिताजी… कि एक पिता के कन्धे पर पुत्र की शव यात्रा निकलेगी।" फिर एक क्षण रुककर वह बड़े अप्रतिम साहस से पुनः बोला, "मैं ये घुँघरू चुनूँगा पिताजी... मैंने एक मुस्लिम लड़की से विवाह का वचन कर लिया है।"

नागमणि सुनते ही बाण लगे हिरन-सा छटपटा उठे, "क्या....?....हे राम... अरे! कुल घातक… कुल कलंक... अधर्मी… तेरी मृत्यु क्यों नहीं जन्म लेते हो गयी थी... आहा… हो ही गयी उस महात्मा की एक-एक वाणी सत्य।" वे मूर्च्छित-से हो गए और न जाने कैसे रायफ़ल से एक गोली छूटकर बेहद डरावनी आवाज़ के साथ छत में धँस गयी। लेकिन यह भय एक पल के लिए ऐसा जान पड़ा कि जैसे उन्होंने स्वयं को गोली मार ली हो। सभी ने उन्हें घेर लिया।

अब लोक-लाज तज चुके इन्सान से मान-मर्यादा की उम्मीद क्या करनी! फिर इन्सान किसी से हारे न हारे, सन्तान से तो हार ही जाता है। हालत कुछ ठीक होने पर सेठ नागमणि चारपाई पर से ही दो-चार डाँट-डपट के बाद देवकर्ण से उस लड़की के माता-पिता से आकर मिलने को कहने लगे। परन्तु जैसे ही उन्होंने देवकर्ण के मुँह से सुना कि उसके माँ-बाप नहीं... बस एक चाचा हैं, वे आँखों में अंगारे भर उसे भस्म कर देने की-सी भाँति देखते हुए भड़के, "बेहुदे… कहीं तो कुछ ध्यान रखा होता। इतने बड़े हो गये कि तुमने बताना-पूछना भी ज़रूरी नहीं समझा।"

देवकर्ण अब इस द्वितीय चरण से कहाँ सहमने वाला था। तपाक से बोल पड़ा, "पिताजी! आपने हमें अवसर ही कहाँ दिया? आप ने तो सदैव हम पर अपनी ही बात थोपी है और मनवायी है।"

पिता को निरुत्तर-सा पाकर जैसे ही वह बाहर जाने को मुड़ा, माँ ने एकाएक हल्के भुने स्वर से उसके क़दम रोके, "वह रहती कहाँ है... तुम मिले कैसे उससे?

"वो कथक गुरु के साथ केसर बाग में रहती है। वहीं मिला था उससे।"

फिर उसकी चुप्पी साध लेने पर माँ पुनः बोली, "और तुम भी घुँघरू बाँध गये... अब मुझे पूरा यक़ीन हो गया कि जिन घरों में बच्चों की सारी इच्छाएँ पूरी कर दी जाती हैं, वो बिगड़ ही जाते हैं। अगर नहीं, तो तुम पिता से न सही, लेकिन मुझसे ज़रूर बात कर सकते थे।" इस पर सेठ नागमणि अपना चेहरा घुमाकर कुछ कहने को हुए ही थे कि माँ ने उन्हें अपने हाथ के इशारे से रोक दिया, लेकिन नागमणि ने उन्हें कोस ही दिया, "तुम्हारे इसी तरह रोक लेने का नतीजा सामने है… इसके विवाह की बात मान ली होती तुमने, तो आज ऐसे दिन सामने खड़े न होते।" देवकर्ण चुप-चाप बाहर निकल गया।

जब उसके बुलावे के पीछे छुपे रहस्य से अनभिज्ञ गुरु माँ नागमणि भवन पधारीं, तो सेठ नागमणि उनके मुख से पुत्र की नृत्य प्रशंसा सुन एकाएक उखड़कर बोले, "इसी का नतीजा है कि वह कुल-कलंक ने इस मुस्लिम लड़की से प्रेम विवाह करने का फ़ैसला कर लिया है।"

यह बात सुनते ही मानो गुरु माँ के प्राण सूख गये, "ये क्या कह रहे हैं… आप... ऐसा कभी नहीं हो सकता। इसका निकाह इसके चाचा के लड़के से तय है।"

इससे पहले कि वह मज़बूती से अपनी बात रख पातीं, सेठ नागमणि के भय से कुछ दूर जाकर उनसे पीठ लिये खड़ी हुई नरगिस ने उसी मुद्रा में अपना रोष धीमे से तने स्वर में प्रकट किया, "वह जो मुझसे बारह-तेरह साल बड़ा है… जिसके ज़ुल्मों से उसकी बीवी ने आत्महत्या तक कर ली थी?... क्या यही वचन लिया था मेरी मरहूम अम्मी ने जीते-जी आपसे?"

गुरु माँ आश्चर्य से बोलीं, "ये तुम आज कैसी बातें कर रही हो?

"वही जो परिस्थिति करा रही है। हमें हक़ है अपना सही फ़ैसला लेने का। अगर आपके भय से चुप रही, तो मेरा जीवन अब नर्क में ही चला जायेगा," उसकी खुली आँखों से एकाएक आँसू ढुलक पड़े, जिसे उसने ज़रा भी पोंछने का प्रयास नहीं किया।

"तुमने खु़द ही इतना बड़ा फ़ैसला ले लिया… क्या मैं तुम्हारी कोई नहीं थी?... कुछ तो समाज और अपने मज़हब की परवाह की होती।"

नरगिस ने पलकें झुकाकर गम्भीर स्वर में उत्तर दिया, "गुरु माँ! मज़हब आपस में प्रेम नहीं जानते और प्रेम मज़हब। मैं ये जानती हूँ कि एक औरत के लिए उसके शौहर का मज़हब ही उसका मज़हब होता है। रही बात आप की, आप मेरी पालनहार हैं और पालनहार का अधिकार जन्म देने वाली से भी बड़ा होता है। मैं सदा आपकी आभारी रहूँगी कि मुझ अनाथ को आपने अपने गले से लगाया।"

फिर उसने लम्बी चुप्पी साध ली और उनकी आँखें भी एकाएक जलाजल हो आयीं। वे सेठ नागमणि से दोनों हाथ जोड़कर कुछ विनय करने की मुद्रा में खड़ी रह गयीं। परन्तु धुर पराम्परावादी घरों की स्वीकार्यता पर भी बंदिशें कहाँ पीछा छोड़ती हैं! सेठ नागमणि एक शर्त रखकर बोले, "इसे नृत्य संगीत छोड़ना होगा।"

जिसे सुनते ही नरगिस बोली, "हरगिज़ नहीं। अगर इससे आपको ये लग रहा हो कि मैं घर से कहीं भी बाहर न निकल पाऊँ, तो ये मुमकिन नहीं। मैं ना नृत्य छोडूँगी और ना ही ये शादी।" अपने इस अडिग फ़ैसले से उसके चेहरे पर एक अपार तेज-सा फैल गया। नागमणि गम्भीर भाव लिये खड़े हो गये और गुरु माँ से हाथ जोड़कर चुपचाप अन्दर की ओर प्रस्थान कर गये। पूरा कक्ष मानो एक पल वियोग मग्न-सा होकर झरोखों से झाँक उठा। तभी एकाएक देवकर्ण की गम्भीर आवाज़ ने उनके चलते क़दमों को रोक दिया, "पिता जी!... आप रुकिये, हम ही इस घर से बाहर हो जाते हैं।” परन्तु उसके कक्ष के मध्य तक आते-आते, माँ उससे एक करुण गुहार-सी कर उठी, "पुत्र! ये सब भूलकर भी मत करना… ये कोई समस्या का हल नहीं।" लेकिन उसने भी उसी स्वर में माँ को जवाब दिया, "माँ! पिता जी को अपने कारोबार और रुतबे के आगे कुछ सूझता ही नहीं। इसलिए हम इन्हें अपनी करनी से दिखायेंगे कि इसके अलावा भी जीवन-यापन और शानो-शौक़त से जीने के कई रास्ते हैं, जिन्हें ये तुच्छ समझते हैं।" सेठ नागमणि पुनः आगे ऐसे क़दम बढ़ा गये, जैसे उनके कानों तक कोई आवाज़ ही न पहुँची हो। शायद, घर आयी उस महिला के लिहाज़ से उन्होंने शान्त रहना ही उचित समझा था।

माँ ने उन्हें मनाते-सा रोका, "यूँ इनकी करनी पर अपना ख़ून मत जलाइये। माँ-बाप को तो अपना फ़र्ज़ अदा करना ही होता है... ये चाहे जहाँ रहें… जो करें। फिर इस घर को आपने अपने ख़ून-पसीने से सजाया-सँवारा है, इसका आँखों के सामने बिखर जाना क्या प्राणघात से कम दुखदायी होगा। अब हमें नहीं, इन्हें अपने भविष्य की ख़ुद चिन्ता करनी चाहिए… हमें तो केवल अपना फ़र्ज़ अदा कर देना है।"

सेठ नागमणि पर पत्नी की इन बातों का ऐसा असर पड़ा कि मानो इसी फ़र्ज़ को ही निभाकर वेे निवृत्त हो जायेंगे। परन्तु ये तो उन कुशल गृहणियों की विद्या है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बसे-बसाये घर को बनाये रखने की दक्षता, संस्कार स्वरूप मायके से लाती हैं।

नागमणि, युद्ध हारे बलिष्ठ योद्धा की भाँति एक लम्बी साँस छोड़कर बोले, "ठीक है… लेकिन ये विवाह इस घर से नहीं होगा। तुम लोग अपने से चाहे जहाँ से कर लाओ… मुझे केवल स्वीकार ही करना है... वो कर लूँगा। मुझमें लोगों को बुलाने पर उठती बातें और न बुलाने का दंश सहने का ताब नहीं है। कम-से-कम यही कहने को रहेगा… बदलते दौर के बच्चे हैं। अपनी…," वे बात अधूरी छोड़ निढाल-सा होकर सोफ़े पर बैठ गये और कक्ष में एकपल भारी सन्नाटा पसर गया। फिर एक क्षण पश्चात् वे भारी विगलित स्वर से बोले, "जाओ ख़ुश रहो… तुम्हारे दिल की दुनिया आबाद रहे!"

देवकर्ण नरगिस को लेकर द्वार की ओर बढ़ गया और पीछे गुरु माँ भी आज्ञा-सी लेकर चल पड़ीं।

देवकर्ण और नरगिस, दोनों ने अपने नृत्य के बल पर देश ही नहीं वरन् विदेशों से भी धन, शोहरत बटोरकर, शहर में गुरु माँ के सहयोग और दिशा-निर्देश पर भव्य ‘कथक केन्द्र’ खोला। दोनों ने इस केन्द्र का उद्घाटन अपने माता-पिता के हाथों से करवाने की घोषणा करते हुए उन्हें सादर आमन्त्रित किया। उद्घाटन के अवसर पर, भरे प्रांगण में हर्ष से गद्‌गद हुए छलकते हृदय से, सजल नेत्रों से वह पत्नी के साथ आगे बढ़े और गुरु माँ को कहने लगे- “बिन गुरु के ज्ञान नहीं… और बिन कर्म के फल नहीं। अब मुझे ज्ञात हो गया है कि कर्म से बहुत कुछ बदला जा सकता है।”

देवकर्ण के साथ सुन्दर शृंगार में खड़ी नरगिस की आँखें जलाजल हो आईं। स्नेह के इस आलौकिक रूप से अभिभूत होकर वह उनके चरणों की ओर बढ़ गयी और नागमणि ने उसे हृदय से लगा लिया। सभी की नम आँखें अपार प्रसन्नता की चमक लिये धूप में ओस की बूँदों-सी दमक उठीं।

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