रात भर सन्नाटा बुनता है
डॉ. विजेता सावकुछ बेतरतीब से ख़्वाब
रात भर तन्हाई पुकारती है
किसी खोए हुए का नाम
रात के घुप्प अँधेरे में
कभी कहीं जो होती है
कोई सरसराहट
मर्मराहट
फड़फड़ाहट
या
पटरियों पर रेल की
घरघराहट
अंडज फोड़ निकल
खग शिशु सा सहमा
मेरा मन
मेरा तन
चिहुँक
चादर के भीतर ही से
पलकों से देता है दस्तक
बंद खिड़की
के काँच पर
स्याह समंदर पर
केसर घुली एक रेखा
सारी सिहरन
सारे ख़ौफ़ उड़न छू
फिर सिर्फ़ और सिर्फ़
बेख़ौफ़ बेपरवाह सी
चहकती, महकती.
मुस्कुराती सी ज़िंदगी।