प्रस्थान
आशुतोष कुमारनिकल चुका हूँ
चल चुका हूँ
एक अनजान सफ़र पर
उन संघर्षों के पथ पर
जिनसे तुम डरते हो
घुट घुट के जिया करते हो
पर मुझे डर नहीं
नहीं कोई चिंता किसी अंजाम की
अब आगे बढ़ चुका हूँ मैं
हाँ! मैं प्रस्थान कर चुका हूँ
दुनिया का मिथ्या बंधन न सहा जाएगा
अब तो सिर्फ़ सच ही कहा जाएगा
न ही सह सकता हूँ तुम्हारी ये दुनिया
जो खोखली सिद्धांतों की मढ़ है
अब तो बस चल पड़ा हूँ
अविचलित आगे में बढ़ चला हूँ
संघर्षों के पथ पर
हाँ! मैं प्रस्थान कर चुका हूँ
तुम्हारा कोई ईमान नहीं
न ही कोई धर्म है
तुम्हारा तो बस
पैसा ही एक कर्म है
जिसके तुम आदी हो चुके
जिसके तुम गुलाम बने हुए हो
पर मैं न बँध पाऊँगा
न ये रीत अब और सह पाऊँगा
क्योंकि तोड़के ज़ंजीरों को आगे बढ़ चला हूँ
हाँ! मैं प्रस्थान कर चुका हूँ
मैं गूँगा नहीं हूँ
की आवाज़ न उठाऊँ
न ही मैं अंधा
की अन्याय देख न पाऊँ
न ही मैं बहरा हुआ
कि न सुन पाऊँ वो दर्द भरी पुकार
जो फूटती है किसान, मज़दूर, ग़रीबों के कंठ से!
मैं बोलूँगा उन सबके ख़िलाफ़
जो कर रहे हैं अत्याचार इनपर
भले ही ख़िलाफ़ हों मेरे अपने भी अगर
पर अब न सहा जाएगा
क्योंकि अब मैं बढ़ चुका हूँ
हाँ! मैं प्रस्थान कर चुका हूँ
मैं फूल नहीं
न ही धूल हूँ
मैं एक आँधी हूँ
मैं ख़ुद में क्रांति हूँ
सालों से सुलग रही चिंगारी था
अब मैं ज्वाला बन चुका हूँ
एक प्रचंड लावा बन चुका हूँ
अब कोई रोक नहीं सकता मुझे
अब मैं बढ़ चुका हूँ
हाँ! मैं प्रस्थान कर चुका हूँ