प्रकृति (विमल शुक्ला 'विमलेश')

16-01-2018

प्रकृति (विमल शुक्ला 'विमलेश')

विमल शुक्ला 'विमलेश'

तुम जिसे क़ैद कर नहींं सकते,
ये वो दरिया प्रमत्त बहता है,
तुम ख़्यालों की सैर करते हो,
वो पहाड़ों को पार करता है..

तुम घिरे ईर्ष्या की लाली में,
वो नभोनील नित्य वैरागी,
तुम उसे तिमिर में तलाश रहे,
जिसके होने से ही धरा जागी..

तू उसे काट डालने के लिए,
हाथ हथियार लेके घूमा है,
जिसकी पर्णों से प्राण तेरे हैं,
जिसकी शाखों ने तुझको चूमा है..

अरबों खरबों की जायदाद तेरी,
उसकी ममता का एक हिस्सा है,
उसकी महिमा है तो ये दुनिया है,
वर्ना न तू न तेरा क़िस्सा है..

तुझे उपभोग की ही आदत है,
उसे भी भोग मान कर बैठा,
है गुरुता सौम्यता महिमा उसकी,
जिसे  निष्प्रभता तू समझ बैठा ..

ये सारे मात्र मिथ्याभाव तेरे,
अभी समय है होश में आजा,
है सार सृष्टि का समर्पण बस,
इसे समझले और अमर हो जा ..

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