पापा को ख़त

आरती 'पाखी'

"अब मैं और काम नहीं कर सकती, आख़िर इतने सारे प्रोजेक्ट कौन देता है. . .भाई?" काव्या ने उबासी लेते हुए पूछा।

"अरे यार, तुमको नींद के अलावा और भी कोई काम है या नहीं, मुझको तो लगता है कि तुम कुंभकर्ण का ही अवतार हो," निहारिका इतना कह कर हँसने लगी।

"नहीं‌ ऐसा नहीं है यार. . . अब तुम ही बोलो भला, इतना काम ये कॉलेज वाले देते ही क्यों हैं, जबकि इनको अच्छे से पता होता है कि इस जगह बच्चा एन्जॉय करने आया है," काव्या बोली।

"ठीक है, ठीक है, अब कर लो प्रोजेक्ट पूरे, कॉलेज में तुम्हारा लेक्चर नहीं सबमिट होगा बल्कि प्रोजेक्ट लिया जाएगा," निहारिका बोली।

दोनों सहेलियाँ फिर से अपने काम में लग गईं। इन दोनों की मुलाक़ात ऐसे ही अचानक कॉलेज में लड़कियों के होस्टल में हुई थी; जब दोनों को कॉलेज की तरफ़ से एक ही कमरा अलॉट किया गया। शुरू में तो दोनों के बीच ज़्यादा गहरी मित्रता नहीं थी, पर धीरे-धीरे दोनों को पता ही नहीं चला कि कब वो आम दोस्त से बेहद ख़ास दोस्त बन गईं।

काव्‍या जो कि ‌‌दिखने में‌ बेहद ख़ूबसूरत थी। गोल चेहरा, हर वक़्त होंठों पर एक मुस्कान, स्वभाव में बेहद चंचल, हँसमुख और अपनी बातें खुल कर बोलने वाली लड़की थी, वहीं निहारिका इसके बिल्‍कुल ही विपरीत, शांत, शालीन उसे एक दायरे में रहकर ही सबसे मिलना पसंद था। शायद दोस्ती का दस्तूर यही है कि वो दो विपरीत लोगों के बीच में ही टिकती है। इसलिए वो दोनों कब एक दूसरे के हमदर्द बने, इसका भी उनको कोई होश ही न रहा।

कॉलेज का आख़िरी साल चल रहा था, और दोनों को पढ़ाई पर अब अधिक से अधिक ध्‍यान देना था। निहारिका और काव्या अपनी पढ़ाई को लेकर हमेशा सतर्क ही रहती थीं। दोनों कॉलेज के हर उत्‍सव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया करती‌ थीं और जीतती भी थीं। काव्या को इन सब में दिलचस्पी कम थी, पर दोस्ती के आगे वो‌ हमेशा हार जाया करती थी।

एक दिन कॉलेज में लेक्चर समाप्त होने के उपरान्त काव्या और निहारिका साथ में हॉस्टल जा रही थीं। दोपहर भी काफ़ी हो चुकी थी, और उनको भूख भी बहुत ही तेज़ से लग रही थी। दोनों ने कैंटीन जा कर खाने का विचार किया। तभी पीछे एक आवाज़ सुनाई दी।

"अरे, रुको तो सही काव्‍या,‌ ये लो तुम्हारी नोटबुक और शुक्रिया मेरी मदद करने के लिए‌।‌ आज अगर तुम मुझे अपनी नोटबुक नहीं देती तो मुझे टीचर से बहुत डाँट पड़ जाती, थैंक्स ए लॉट यार," हर्ष ने कहा।

"अच्छा ऐसा था क्या? अगर मुझको पहले से पता होता की तुमको सर से मार पड़ेगी तो मैं तुमको ये नोटबुक कभी भी नहीं देती," काव्या ने हर्ष से कहा और वो तीनों खिलखिला कर हँस पडे़।

"‌हर्ष, तुम भी हमारे साथ चलो हम कैंटीन जा रहे हैं, खाना खाने," निहारिका ने‌ हर्ष से कहा।

"‌हाँ ज़रूर. . . चलो," हर्ष ने कहा।

"लेकिन, बिल तुम भरोगे‌‌," काव्या‌ ने हर्ष की चुटकी लेते‌ हुए कहा।

"‌अरे. . . यार. . . बस कर कितना परेशान करेगी लड़के‌ को! मैं तो खाना खाने जा रही हूँ. . . क्योंकि काव्या का पेट तो बातों से ही भर जाएगा‌," निहारिका ने कहा।

"नहीं-नहीं, ऐसा नहीं है. . .  चलो, हर्ष वरना इस पेटू का कुछ भरोसा नहीं; कैन्टीन का सारा‌ खाना खा जाए और हम दोनों भूखे ही न रह जाएँ," काव्या‌‌ ने कहा।

तीनों हँसते हुए कैंटीन की तरफ़ चल पड़े। तीनों ने कैंटीन जा कर खाना‌ खाया। तभी खाना खाते हुए हर्ष बोला. . . "मैं सोच‌ कहा हूँ एग्ज़ाम सर पर आ‌ रहे हैं, क्यों न‌ हम तीनों साथ मिलकर पढ़ाई करें. . .? इससे जो टॉपिक क्लियर नहीं हैं वो भी समझ आ जाएँगे और तैयारी भी अच्छी हो जाएगी। क्या कहती हो तुम दोनों. . .?"

"अरे कहाँ आ गया एग्ज़ाम तुम्हारे सर पर! मुझे तो तुम्हारा सर ख़ाली ही दिखाई देता है," काव्या‌ ने हर्ष की‌ बातों का मज़ाक बनाते हुए‌ कहा और हँसने‌ लगी।

"तुमको कभी‌ किसी चीज़ की फ़िक्र होती‌ भी है. . . या‌ नहीं? हर वक़्त सिर्फ़ मज़ाक. . .," हर्ष ने गंभीर होते हुए कहा।

"हाँ! सही बोला हर्ष तुमने; ये बहुत बिगड़ गई है। तुम सुनो मुझे‌‌‌ मंज़ूर है कि हम तीनों मिलकर साथ‌‌ में पढ़ाई करेंगे और अब इसकी राय लेने की ज़रूरत‌ बिल्कुल भी नहीं है," निहारिका ने कहा।

"अरे यार, अब ये मोहतरमा फ़ैसला ले ही चुकी‌ हैं, तो मैं क्या कहूँ?" काव्या ने सर पर हाथ रखते हुए कहा।

"ओके! तो आज से शाम 3 बजे से 6 बजे तक हम रोज़‌ लाइब्रेरी में पढ़ाई करेंगे और फिर घर जा कर उसे दोहरा भी लेंगे। और अगर कुछ‌ समझ न‌ आए तो अगले दिन मिल कर, एक-दूसरे को फिर‌ से समझ‌ भी लेंगे या फिर टीचर की भी मदद ले सकते हैं, क्या कहती हो फिर तुम दोनों. . .?" हर्ष ने‌ पूछा।

"अरे पागल हो तुम,‌ इतनी देर तक पढ़ाई! आख़िर चाहते क्या हो तुम? मैं पागल हो जाऊँ. . . न‌‌ बाबा न. . . मुझसे न हो पाएगा. . . ऐसा भी क्या जुनून पढ़ाई का कि पागल ही हो जाओ," काव्या ने कहा।

"हाँ. . . बेटा. . . तुम तो बोलो ही मत‌ ऐसा; दो साल‌ से क्लास में टॉप कर रही हो," हर्ष बोला।

"नहीं ऐसा बिल्कुल भी‌ नहीं हैं‌, मैंने कभी टॉप करने के लिए पढ़ाई की ही नहीं। न जाने अच्छे नम्बर कैसे आ जाते हैं? मुझे‌ लगता‌ है टीचर‌ के चश्में का नम्बर बढ़‌‌ गया‌ है," ये बोलकर काव्या ज़ोर से हँस दी।

"चुप रहो! अब‌ बहुत‌ मज़ाक हो गया," हर्ष ने झल्ला कर काव्या से कहा।

"अभी कहाँ!" काव्या मुस्कुराई।

"चुप रहो तुम दोनों; जब देखो तब लड़ते ही रहते हो। अब ध्यान से सुनो दोनों, ये तय हुआ कि आज से रोज़ शाम को हम तीनों लाइब्रेरी में मिलकर पढ़ाई करेंगे, ओके. . . समझ आया?" निहारिका ने‌ कहा।

"मिल तो तुम दोनों रहे हो,‌ मुझको तो ज़बरदस्ती लाया‌ जा रहा है। हे भगवान‌‌! कहाँ हो? देखो तो ज़रा कितना अत्याचार हो रहा है मुझपर। पहले कॉलेज का लेक्चर, फिर लाइब्रेरी में पढ़ाई,‌ और फिर घर आ कर रिवीजन भी! क्या यही दिन देखने के लिए मैं कॉलेज में आई थी. . . ?" काव्या ने आसमान में देखते हुए कहा।

"हो‌ गया‌ तुम्हारा‌ ड्रामा या अभी और है?" हर्ष ने काव्या से पूछा।

"तुमको‌‌ तो मेरा दर्द ड्रामा ही‌ लगेगा," काव्या हर्ष से बोली।

"तो फिर मिलते हैं शाम को; अभी चलता हूँ मैं . . .टेक केयर. . .बाय. . ."

"मैंने सुना है जाने वाले कभी लौट कर नहीं आते," काव्या ने हर्ष की तरफ़ देख‌‌ कर हल्की सी मुस्कान दी।

"तुम कभी‌‌ नहीं सुधरोगी. . .! बाय. . .!" इतना कह कर हर्ष चला गया।

काव्या और‌‌ निहारिका भी खाना‌ खा‌ कर होस्टल में चली गईं। अभी घड़ी में एक बज रहे थे। दोनों ने सोचा क्यों न थोड़ी देर आराम कर लिया जाए। शाम को तो पढ़ाई करनी ही है। दोनों थोड़ी देर के लिए सो गईं।‌ उन्होंने ढाई बजे का अलार्म फोन में लगा दिया ताकि वो समय पर लाइब्रेरी पहुँच कर पढ़ाई कर सकें। 

कुछ घंटों बाद घड़ी का आलर्म बजा। दोनों बेमन से उठीं और फ़्रेश हो कर लाइब्रेरी जाने की तैयारी करने लगीं। लाइब्रेरी हॉस्टल से पाँच मिनट की दूरी पर ही स्थित था। दोनों बाहर निकल होस्टल‌ के गलियारे से होते हुए जल्द ही लाइब्रेरी पहुँच गईं। हर्ष बाहर ही खड़ा उनका इंतज़ार कर रहा था।

"‌अरे तुम तो समय के बड़े‌ पाबंद हो; बिल्कुल समय पर आ‌ गए,। फ़िलहाल तो अभी भी‌ तीन बजने‌ में पाँच मिनट बाक़ी हैं," निहारिका के मुस्कुराते हुए कहा।

"नहीं तो‌. . .ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं, समय का पाबंद और वो भी मैं. . .??? ऐसा मज़ाक तो न करो. . . बस आज न जाने कैसे समय से पहले पहुँच गया," हर्ष निहारिका की तरफ़ देख कर मुस्कुरा कर बोला।

"चलो अब सच भी‌‌ बता दो कि‌ तुमको यहाँ लाइब्रेरी में गार्ड की नौकरी मिल गई‌ है। तभी देखो गेट पर ही खड़े मिल गए हो, वो‌ भी समय से‌ पहले," काव्या ने हर्ष के कांधे पर हाथ मारते हुए कहा।

"ये‌ देखो‌‌ इसको निहारिका!‌ ये लड़की सिर्फ़ मेरा मज़ाक बनना ही जानती‌ है," हर्ष ने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए निहारिका से कहा।

"अरे,‌ अब तुम दोनों फिर से शुरू न हो जाना; चलो अब अंदर चलो," निहारिका बोली।

तीनों ने‌ लाइब्रेरी के अंदर‌ प्रवेश किया और किताबों को ढूँढने लगे। यूँ ही नोंक-झोंक करते,‌ और साथ में पढ़ाई करते हुए‌ पता ही नहीं चला कब परीक्षा के दिन आ‌ गए। तीनों ने बहुत ही लगन के साथ पढ़ाई की थी। 

परीक्षा लगभग सभी बच्चों की अच्छी हुई थी। परीक्षा का परिणाम जैसे ही आया हर्ष दौड़ते-हाँफते हुए निहारिका व काव्या के पास पहुँचा और बोला, "तुम दोनों ने रिज़ल्ट चेक किया?"

"नहीं, अभी नहीं किया। आ गया क्या रिज़ल्ट? क्या रहा परिणाम?" निहारिका ने थोड़ा परेशान होते हुए पूछा।

"ख़ुद देख‌ लो," हर्ष बोला।

"चलो अब बता भी‌ दो‌,‌ क्या परिणाम है? अब‌ परेशान न करो," निहारिका ने‌ कहा‌‌।

"अच्छा तो सुनो. . . इस बार की टॉपर है. . . क्यों बातऊँ. . . पहले मिठाई‌ लाओ‌," हर्ष बोला।

"तुम बता‌ रहे हो या नहीं," पीछे से काव्या की आवाज़ आई। उसके हाथ में कपड़ों का गट्ठर‌ था। बाहर‌‌ बारिश शुरू हो गई थी, इसलिए काव्या रस्सी पर सूख रहे कपड़े उतारने गई थी।

"अरे! जो हुकुम आपका‌ शैतान," हर्ष ने‌ आँख मारते हुए कहा।

"‌तो चलो. . . जल्दी-जल्दी तोते की तरह बताओ। क्या रहा परिणाम?" काव्या ने पूछा।

हर्ष बोला, "तो. . . इस बार की टॉपर है. . . मन तो नहीं है कि इतनी आसानी से बता दूँ. . .पर फिर भी सुनो. . . टॉपर है हमारी मिस काव्या," और फिर हर्ष ने काव्या को गले से लगा‌‌ लिया। निहारिका भी ख़ुशी से काव्या के गले लग गई।

हर्ष ने‌ फिर से बोलना शुरू किया, "और‌ हमारी दूसरी टॉपर है. . . मोहतरमा आप!" 

"क्या‌‌‌ मैं?" निहारिका हैरान हुई।

"जी‌‌‌ हाँ आप‌!" हर्ष  ने दोहराया।

निहारिका के‌ आँसू निकल आए; तीनों एक दूसरे के गले मिल गए।

"और भाईसाहब आपके‌?" काव्या‌‌ ने‌ बीच में रोना-धोना रोकते हुए पूछा।

"जी मेरे? मैं पाँचवें नम्बर पर हूँ,‌‌ पर कोई ग़म नहीं। आख़िर ज़िन्दगी में पहली बार‌‌ इतने अच्छे नंबर आए हैं मेरे," हर्ष बोला।

"अच्छा!" दोनों ने एक साथ कहा और हँसने लगीं।

हर्ष ने बताया, “एक और बात; कॉलेज में सर ने कहा था जिन बच्चों ने इस बार टॉप किया है, उनके पेरेंट्स को बुला कर, उनके सामने बच्चों को सम्मानित किया जाएगा। तो अपने घर वालों को‌ फोन कर दो।”

"हाँ! हाँ! क्यों नहीं‌ बंदर‌ जी," काव्या ने हर्ष का‌ गाल खींच दिया।

"मेरे साथ‌ ऐसे मस्ती न किया कर पगली‌,‌ प्यार हो‌ जाएगा," हर्ष बोला।

"अच्छा‌ प्यार. . . रुक तेरे प्यार‌ की तो," काव्य‌ ने तकिया उठा कर हर्ष की‌ तरफ़ फेंका और हर्ष ने निहारिका की तरफ़। आज‌ तीनों ने जी‌ भर कर मस्ती की। परीक्षा की वज़ह‌ से तो वो भूल चुके थे, मस्ती क्या होती है! रात का खाना तीनों ने साथ खाया और ढेर सारी भी बातें कीं। आख़िर रात के दस बज गए, फिर भी हर्ष का आज घर जाने का मन नहीं था। बेमन से उसने‌, उन‌ दोनों को‌ बाय कहा और घर की तरफ़ चल दिया।

अगले दिन कॉलेज में ज़रूरत से ज़्यादा भीड़ थी।‌ क्योंकि आज सभी बच्चों के पेरेंट्स भी आ रहे थे। अध्यापक ने सभी बच्चों को आदेश दिया गया‌ कि अपने पेरेंट्स को लेकर ऑडिटोरियम चले जाएँ। सभी बच्चे बहुत ख़ुश थे,‌ क्योंकि आज कॉलेज का अंतिम दिन था। और सभी को आज सम्मानित किया जाएगा; वो भी उनके परिवार वालों के सामने। सभी की ख़ुशी का आज कोई ठिकाना नहीं था। सभी की आँखों में एक तरफ़ ख़ुशी चमक रही थी तो दूसरी ओर सबसे बिछड़ने के ग़म की भी झलक थी। सभी लोग अपने परिवार वालों को अपने दोस्तों से भी मिलवा रहे थे। हर्ष, निहारिका और काव्या ने भी अपने परिवार वालों को एक-दूसरे से मिलवाया। हर्ष ने काव्या तथा निहारिका के माता-पिता के पैर छुए। हर्ष ने काव्या के पापा से कहा,‌ "बधाई हो अंकल आपकी बेटी‌‌ क्लास में अव्वल आई है। पूरे 95.4% नम्बर क्या‌ बात है! आपको गर्व‌ करना चाहिए इस पर!" 

"हाँ! ठीक कहा तुमने‌ पर हमें काव्या से और ज़्यादा की उम्मीद थी; पर इसने तो मेरा‌ सपना ही तोड़ दिया।. . . लेकिन चलो अब क्या कर सकते हैं?" काव्या के पापा ने थोड़ा रूखेपन से कहा और सब ऑडिटोरियम के अंदर चले गए।

ऑडिटोरियम में जाते वक़्त हर्ष ने काव्या से कहा, "अरे यार,‌ तुझमें और तेरे पापा में ज़मीन आसमान का अंतर है, तू कहाँ मस्तमौजी और तेरे पापा. . ."

"चुप रहो अभी," काव्या ने हर्ष को बीच में टोकते हुए कहा।

सभी लोग अपनी-अपनी कुर्सी पर जा कर बैठ गए। कार्यक्रम शुरू हुआ स्वागत, गीत, नॄत्य हुआ। बच्चों का उत्साह बढ़ाने के सभी कार्यक्रम हुए। सभी‌ का मनोरंजन होने लगा। सभी भाव-विभोर हो कर कार्यक्रम का आनंद ले रहे थे। 

तभी कार्यक्रम पर कुछ क्षण का विराम लगाते हुए घोषणा हुई। जिन बच्चों ने प्रथम, द्वितीय और ततृीय दर्जा प्राप्त किया था‌, उनको पुरस्कार देने के लिए मंच पर आमंत्रित किया जाने लगा। उनके परिवार वालों को भी उनका उत्साह बढ़ाने के लिए मंच पर बच्चों के साथ आने के लिए कहा गया तथा कुछ बोलने को कहा गया ताकि बच्चों का उत्साह और अधिक बढ़ जाए।

काव्या, निहारिका और सचिन इन तीन‌ बच्चों व उनके माता-पिता को स्टेज पर आमंत्रित किया गया। क्योंकि काव्या ने प्रथम, निहारिका ने द्वितीय और सचीन ने तीसरा दर्जा‌ प्राप्त किया था। सभी ने इनके माता-पिता से भी गुज़ारिश की कि वो भी‌ मंच‌ पर आ कर अपने बच्चों के उत्साह को बढ़ाएँ और‌ उनके लिए दो-दो शब्द कहें।

सबसे पहले सचिन के पिता को माइक पर आमंत्रित किया गया। उन्होंने माइक ले गर्व से कहना शुरू किया, "मेरे बेटे ने आज मेरा सर फ़क़्र से ऊँचा कर दिया।‌ मैंने तो सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि मैं इस मंच पर खड़े हो कर अपने बेटे को संबोधित करूँगा।" उन्होंने सचिन के सर पर प्यार से हाथ फेरा और फिर कहना शुरू किया, "मैं जानता हूँ मेरे बच्चे ने इस मुक़ाम पर पहुँचने के लिए बहुत मेहनत की है। न सिर्फ़ मेरे बच्चे ने, यहाँ बैठे हर बच्चे ने बहुत ही कड़ी मेहनत करके ये मुक़ाम हासिल किया है। इस तारीफ़ का हक़दार हर एक छात्र है॒! . . . हमें अपने बच्चों का मनोबल बढ़ाना चाहिए; हमें पेरेंट्स बन कर नहीं, बल्कि उनका अपना दोस्त बन कर उन्हें समझना चाहिए, ताकि‌ वह अपना हर दुख-दर्द‌ अपने माता-पिता से बाँट सकें। पेरेंट्स को चाहिए कि वो अपने बच्चे को समझें," सचिन के पिता की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने सचिन को गले से लगा लिया और उसके माथे को चूम लिया। और सबका धन्यवाद करते हुए माइक को छोड़‌कर‌ सचिन‌ के साथ स्टेज से नीचे आ गए। 

अब पूरा ऑडिटोरियम ज़ोरदार तालियों की गूँज से गूँज उठा। सचिन के पापा का सीना गर्व से चौड़ा हो गया और सभी माता-पिता भी अपने बच्चों पर प्रेम बरसाने लगे व उनको गले लगा कर शुभकामनाएँ देने लगे।

उसके कुछ देर बाद संचालक महोदय ने माइक पर घोषणा की, "अब मैं निहारिका के पिताजी श्रीमान यशवर्धन सिंह जी को बुलाना चाहूँगा। कृपया यशवर्धन जी आगे आइये और अपनी बेटी की इस उपलब्धि पर दो शब्द कहिए।" 

संचालक महोदय के घोषणा करते ही निहारिका के पापा,‌ निहारिका का हाथ थामे स्टेज की ओर बढ़ गए ओर बोले, "प्रधानाचार्य और यहाँ पर उपस्थित‌ हर एक अध्यापक को मेरा नमस्कार, और हर बच्चे को मेरा ढेर सारा प्यार एवं आशीर्वाद! . . .आज निहारिका ने जो कर दिखाया है,‌ उसके लिए मेरे पास लफ़्ज़ ही नहीं हैं। मैं इतना खुश हूँ कि ये ख़ुशी ज़ाहिर‌ कैसे करूँ पता‌ नहीं? बस ये कहना चाहूँगा‌‌ कि बेटियों को बोझ न समझें। वो भी अपका नाम रोशन करती हैं, उन्हें एक बार मौक़ा तो दीजिए, देखिए फिर वो अपने माँ-बाप का नाम आसमान पर भी लिखने की पूरी कोशिश में जुट जाएँगी।‌ इसके आगे कुछ कहने के लिए मेरे पास‌ अल्फ़ाज़ नहीं हैं, ‌माफ़ करना! नमस्कार।" पूरा हॉल पुन: तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा‌।

निहारिका व उसके पिता अब मंच से उतर कर स्टेज की सामने की सीट पर जा बैठे। अब‌ स्टेज पर सिर्फ काव्या के पिताजी व काव्या ही थे। काव्या के पिता ने आगे बढ़ कर माइक अपने हाथ में ले लिया और बोले, "नमस्कार प्रधानचार्य और शिक्षकगण। मैं ख़ुश तो हूँ कि आज मेरी बेटी ने टॉप किया है,‌ प्रथम दर्जा हासिल किया है। पर मुझे अपनी बेटी से इससे कहीं ज़्यादा की उम्मीद थी। पर अब कुछ नहीं हो सकता; बीता कल कभी लौट कर नहीं आता। मेरा बड़ा बेटा कुन्दन ‌सी.ए है। हमें काव्या से भी इसी तरह से कुछ बड़ा हासिल करने की उम्मीद थी। मैं चाहता हूँ मेरी बेटी अपने बड़े भाई जैसी बने पर मुझे जहाँ तक लगता है,‌ ये मेरी सोच पूरी तरह से असंभव है। क्योंकि मेरी बेटी चंचंल है।‌ मेरा सपना था‌ वो दसवीं‌ के बाद साईंस स्ट्रीम ले और‌ एक अच्छी डॉक्टर बने। पर कम अंक आने की वज़ह से काव्या ने कॉमर्स ले लिया। मेरा सपना तो टूटा पर मैंने सोचा कि शायद मेरी बेटी, मेरे बेटे की तरह सी.ए. बन जाए। पर वो उसे भी पूरी तरह से न सँभल सकी और ग्यारहवीं में फेल हो गई।" सारे हॉल में चुप्पी छा गई,; काव्या की आँखों में आँसू आ गए और उसने मुहँ नीचे करके आँखे बंद कर लीं। उसके पिताजी ने आगे बोलना शुरू किया, "हमारे लाख मना करने पर भी इसने आर्ट्स ले लिया . . .पर कोई बात नहीं। आज मैं ख़ुश हूँ कि मेरी बेटी ने कॉलेज में टॉप किया। आगे के जीवन के लिए सभी बच्चों को शुभकामनाएँ। धन्यवाद‌।"

पूरे हॉल में एक अजीब क़िस्म का सन्नाटा छा गया किसी को समझ नहीं आ रहा था‌ कि काव्या के प्रथम आने पर तालियाँ बजाई जाएँ या उसके पिताजी की टिप्पणी पर अफ़सोस‌ जताया जाए। 

तभी माइक पर घोषणा‌ हुई व नृत्य कला पेश करने के लिए बच्चों को स्टेज पर आमंत्रित किया गया। जिससे हर किसी का ध्यान टूटा‌ और बच्चे सारी बातें भूल कर नाच का आनंद लेने लगे। लेकिन काव्या ने अपनी पलके नीचे ही कर रखीं थीं। और वहीं निहारिका और‌‌ हर्ष की दृष्टि भी काव्या पर टिकी हुई थी। इससे पहले उन्होंने काव्या का इस‌‌ तरह शांत भाव कभी नहीं देखा था। वो जल्द से जल्द कार्यक्रम समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। 

कुछ ही घंटों में कार्यक्रम समाप्त हो गया।‌ और दोनों बिना समय‌ ज़ाया‌ किए अपनी दोस्त‌ के पास पहुँच गए।

"ओए‌ छिपकली, क्या हुआ तुझे‌? मुँह क्यों लटका रखा‌ है?" हर्ष ने थोड़ा मज़ाकिया लिहाज़ से कहा।

"कहीं तुम अंकल की बातों से तो उदास नहीं हो?" निहारिका ने पूछा।

"तुम दोनों भी पागल हो, आख़िर भगवान ने दो कान क्यों दिए हैं? एक से सुनो दूसरे से निकाल दो। मैं तो भूल भी गई आख़िर पापा ने क्या कहा था? तुमको याद है?" काव्या ने हँसते हुए बात को टालने का प्रयास किया।

"बताओ भला, यहाँ हम दोनों टेन्शन से मरे जा रहे हैं और इन देवी जी को फ़र्क ही नहीं है! अच्छा अगर ये बात नहीं थी, तो क्या बात थी? मुँह क्यों लटका था?" हर्ष ने पूछा।

"वो तो तुम दोनों से बिछड़‌ जाने का ग़म था यार," काव्या ने‌ उन दोनों को गले लग‌ा लिया‌ और रोने लगी।

"अरी पागल! तेरी विदाई थोड़ी न हो रही है; जो ऐसे रो रही है। और न हम कहीं जा रहे हैं और न तुम. . . समझी। बस‌ कॉलेज ख़त्म हुआ दोस्ती नहीं. . . समझी!" हर्ष बोला।

"बिल्कुल सही कहा हर्ष ने, चलो अब‌ शांत‌‌ हो जाओ। तुम तो आज से पहले कभी रोई नहीं, हर‌ वक़्त मज़ाक. . . हमको वही काव्या पसंद है। चलो अब हँस‌ भी दो यार," निहारिका बोली‌।

"हाँ! हँस दूँगी पहले एक बार गले तो मिल लो। न जाने क्यों आज तुम दोनों के गले मिलने को जी चाहता है," काव्या ने कहा।

"ठीक है! लग जा गले. . . बस ऐसे ही लड़कियाँ गले लगतीं रहें मेरे; और क्या चाहिए ज़िन्दगी से," हर्ष ने काव्या को छेड़ते हुए कहा। 

और तीनों एक दूसरे के गले मिल गए।‌ काव्या ने निहारिका और‌ हर्ष का हाथ‌ अपने हाथ में लिया और बोला, "तुम दोनों मेरी ज़िन्दगी का सबसे क़ीमती तोहफ़ा हो कभी एक दूसरे से अलग मत होना. . . समझे‌।" 

"क्यों तू विदेश जा रही है‌? तू भी तो यहीं है हमारे साथ! न जाने आज‌ तुमको क्या हुआ है? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रही हो," हर्ष बोला।

"हाँ! मैं विदेश जा रही हूँ," कहते हुए काव्या मुस्कुरा दी।

"चलो सब कल घर जाने से पहले यही होस्टल के बाहर‌ मिलेंगे, अभी सबके माँ-पापा इंतज़ार कर रहे हैं," निहारिका ने‌ कहा।

"ओके. . . बाय," हर्ष बोला।

"ओके. . . बाय," काव्या बोली।

निहारिका और‌‌ काव्या ने रात‌ को सारे परिवार वालों के साथ‌ मिल कर खाना खाया और रात भर दोनों ने खूब मस्ती की। दोनों ही सुबह पाँच बजे ही उठ गईं। निहारिका नहा-धो कर फ्रेश हो गई और काव्या बस एक टक अपनी दोस्त को निहारे जा रही थी। 

"क्या हुआ तुमको मेरी कुंभकर्ण? नींद नहीं खुली क्या?. . . उठो जाओ. . . नहा कर आओ," निहारिका ने काव्या का हाथ पकड़‌ कर उठाया‌।

"थोड़ी देर और‌ देखने दे न तुझे, अच्छी लग रही है," काव्या ने कहा।

"ठीक‌ है लेकिन पहले नहा कर आ पागल," निहारिका ने हँसते हुए कहा।

काव्या ने निहारिका का हाथ खींचा और उसे अपने गले से लगा लिया। 

"ओहो! इतना प्यार!" निहारिका बोली।

"हाँ. . . बस ऐसे ही आज प्‍यार आ गया तुम पर," काव्या बोली।

निहारिका मुस्‍कुरा दी और काव्‍या तौलिया और कपड़े ले कर‌ बाथरूम की तरफ़ निकल पड़ी।

आज‌ सभी विद्यार्थी‌ कॉलेज को हमेशा के लिए छोड़‌कर जा रहे थे। सभी एक-दूसरे से मिल रहे थे। हर्ष भी अपने माता-पिता के साथ पहुँच‌ गया था। और निहारिका व काव्या के घरवालों को अपने परिवार वालों से मिलवा रहा था। 

हर्ष ‌ने निहारिका से पूछा," काव्या कहाँ है?"

"अरे वो तो बहुत पहले नहाने गई थी। अभी तक लौट कर नहीं आई। क़रीब एक घंटा हो गया, लगता है आज मैडम जी सबसे ख़ूबसूरत दिखना चाहती है, तभी अभी तक नहा कर नहीं आई। तुम बाहर चलो सबसे मिलो, मैं उसे ले कर आती हूँ," निहारिका बोली।

हर्ष हँसने लगा और निहारिका हॉस्टल के बाथरूम की तरफ़ बढ़ी। अंदर से पानी चलने की आवाज़ आ रही थी। निहारिका ने काव्या को आवाज़ दी, पर प्रतिक्रिया में कोई आवाज़ वापस नहीं आई। उसने धीरे से बाथरूम के दरवाज़े को धकेला और अंदर का नज़ारा देख कर ज़ोर से चिल्ला दी। उसकी आवाज़ सुन कर सभी लोग उस तरफ़ दौड़े। सभी की‌ नज़र निहारिका पर पड़ी। और जब उन्होंने अंदर देखा तो बाथरूम की छत पर काव्या फंदे से झूलती हुई नज़र आई। काव्या के परिवार वाले वहीं फ़र्श पर ही लड़खड़ा कर बैठ गए। हर्ष भी अपनी सुध-बुध‌ खो चुका था। काव्या को कॉलेज के चौकीदार ने नीचे उतारा और तुरन्त ही पुलिस को फोन किया गया। 

 किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर क्यों ऐसी होनहार और चंचल छात्रा ने इतना बड़ा क़दम उठाया? पुलिस आई और जाँच हुई घटना स्थल से एक नोट बरामद हुआ जिस पर लिखा था।

"प्रिय पापा जी,

मैं अपनी इच्छा से इस फंदे‌ को अपने गले में पहन रही हूँ। ये फाँसी का फंदा एक-एक पल मरते हुए मुझे याद दिलाएगा कि मैंने किस प्रकार से आपकी ख़्वाहिशों का गला घोंट दिया। मैंने बहुत कोशिश की कि मैं भईय्या जैसी बन पाऊँ पर मैं कभी सफल नहीं हो सकी। 

मुझे उम्मीद थी आज आपसे कि मेरे प्रथम आने पर आप मेरी तारीफ़ करोगे। एक बार प्यार से भाई की तरह मुझे भी गले लगा कर कहोगे कि मेरी शेरनी ने तो कमाल कर दिया। पर मेरी ये ख़्वाहिश भी अधूरी रह गई।

पापा आपकी क़सम, मुझसे ये साइंस और कॉमर्स का बोझ नहीं सँभाला गया। क्योंकि शायद आपकी बेटी को रट्टू तोता बनना पसंद नहीं था। और पापा एक बात बताऊँ थोड़ी फन्नी है, पर सुनिए हमारा आर्ट्स का सब्जेक्ट कोई नीची जाति का नहीं है जो सब लोग उससे इतना घृणा करते हैं। जो भी हो, मेरी दुनियां बहुत प्यारी थी। ईश्वर से गुज़ारिश है हर जीवन में, मुझे आप और माँ जैसे ही माँ-बाप मिलें। और एक प्यारा-सा भाई भी, पर अगले जन्म में वो सी.ए न बने। क्या यार पापा देखो ये अंतिम लैटर भी ढंग से नहीं लिख पा रही हूँ। माफ़ करना आपकी बेटी है ही ऐसी।

एक बात कहूँ पापा, आज सुबह दिल कर रहा था कि आपको गले लगा लूँ। और आपकी और माँ की ममता की ख़ुशबू ख़ुद में समेट लूँ, पर हिम्मत ही नहीं हुई। सुनिए पापा, अब जब मेरी ये आँखे बंद हैं तो ऐसे में ही एक‌ बार गले लगा कर कह देना कि बेटा तू जैसी भी थी‌, मेरा अभिमान‌ थी। पर भाई से या किसी ओर से मेरी तुलना न करना। वरना ख़ुशी से ऊपर भी नहीं जा पाऊँगी‌।

और हाँ पापा हर्ष और निहारिका को बोल देना मेरे लिए रोऐंगे नहीं। वो दोनों थोड़े से पागल हैं मेरी तरह। मुझे उनका रोना नहीं पसंद और हाँ आप भी नहीं रोओगे, वो क्या है न आँसू मुझको कभी पसंद थे ही नहीं। वैसे भी आपको पता है भारत में पानी की कितनी कमी है। आप लोग यूँ मुफ़्त में आँखों का पानी न बहाना। तो बेहतर होगा आप सबके आँसू न निकलें और हँस कर मुझे विदा करो।‌ 
         
और हाँ! वापस आऊँगी आख़िर तुम सबको हँसाने का काम तो मेरा ही है। चलो अब हँस दो सब।‌ हम है राही प्यार के फिर मिलेंगे चलते-चलते। लव यू सो मच माँ- पापा।

अपने पापा के अधूरे ख़्वाबों की परी

- काव्या

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