पण्यसुंदरी
कहफ़ रहमानी 'विभाकर'मैं पण्यसुंदरी,
नरोद्विग्न मन की।
यह सुश्रोणि, समुन्नत उरोज, मधुमत्त कटि
विभासित उन स्पर्शों से।
मैं एक वस्तु!
यौनिकान्न, तप्त-तप्त रुधिर का।
अवगुंठित योषिताभिव्यक्ति मुखरित सर्वत्र यह लोकोक्ति
"कर अर्पित यौवनोपहार
क्षम्य नहीं कौमार्य"।