पहाड़ी औरतें
अशोक कुमारपहाड़ी औरतें!
नज़दीक ब्याही गयीं,
मगर दूरियाँ क़ायम रहीं ताउम्र
पार करती रहीं . . .
ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव
टेढ़े-मेढ़े रास्तों की तरह।
पहाड़ी औरतें!
पीठ पर किलटा उठाती,
सूखे पत्ते बटोरती,
हरी घास काटती
मुस्कुराती रहीं।
और उनके साथ!
मुस्कुराते रहे बान के जंगल।
गाती रहीं घासनियाँ
और सीढ़ियाँ चढ़ते रहे
हरियाये खेत।
पहाड़ी औरतें!
पतियों को मैदानों में भेज
खटती रहीं जंगल-जंगल
वो चुन्नी में बाँधकर लाती रहीं
बच्चों के लिये . . .
काफल के गुलाबी दाने
काले-पीले आखरे
और तोड़ लाती रहीं
खिले हुए बुरांश के फूल।
पहाड़ी औरतें!
पशुओं को प्रेम देती रहीं
उनके भी नाम रखे गए
उन्होंने भी स्नेह पाया
उन्हें भी पुचकारा, दुलारा गया।
अपने बच्चों की तरह।
कँपकँपाती ठंड!
उनके गाल सहलाकर,
उनको लाली देती रही
भरोटे के बोझ तले उनकी गर्दन
नृत्य करती रही
हवाओं की ताल पर।
उनकी झुर्रियों से झाँकता है!
अभाव में गुज़रा जीवन
दरातियों के दिए घाव
कहते हैं संघर्ष की कहानियाँ
और परेशानियों को मुँह चिढ़ाती है,
बुढ़ापे में भी सीधी तनी रीढ़।