पद्माकरकृत ‘जगद्विनोद’ में अभिव्यक्त सामाजिक जीवन-मूल्य

27-03-2014

पद्माकरकृत ‘जगद्विनोद’ में अभिव्यक्त सामाजिक जीवन-मूल्य

दीपा

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य का समाज से एवं समाज का मनुष्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। ‘मूल्य’ समाज में ही अर्थवत्ता पाते हैं। समाज ही इस बात का निर्धारण करता है कि मानव-जीवन के लिए या समाज के लिए क्या उचित है? क्या अनुचित? समाज द्वारा वही मूल्य स्वीकार्य होते हैं जो समाज को सद्गति व सदाचरण की ओर ले जाते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण समाज व्यवस्था द्वारा पारस्परिक व्यवहार एवं सार्वजनिक कल्याण हेतु स्थापित जीवनादर्श ही सामाजिक मूल्य है। सामाजिक मूल्य ही समाज के निर्माता है यही मूल्य आदर्श व्यक्तित्व का चहुँमूखी विकास करते हुए संस्कृति को आधार प्रदान करते है।

साहित्य समाज का दर्पण है जैसा कि माना जाता है। किसी भी युग का साहित्य उस युग का प्रतिबिंब होता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में ही सही किन्तु साहित्यकार द्वारा उसकी रचना में तत्कालीन समाज अवश्य प्रतिबिम्बित अवश्य होता है। साहित्यकार चाहकर भी अपने समाज से मुँह नहीं मोड़ सकता। क्योंकि साहित्यकार समाज का ही अंग है वह साहित्य-सामग्री समाज से ही ग्रहण करता है। अतः समाज साहित्य में किसी न किसी रूप में अवश्य चित्रित होता है। प्रत्येक समाज द्वारा कुछ सामाजिक मूल्य निर्धारित होते हैं जिसके आधार पर समाज मानव-जीवन को सदाचार की ओर गतिमान करना चाहता है।

मूल्यों का निर्माण व्यक्ति द्वारा समाज में रहकर किया जाता है इसलिए सामाजिक मूल्य समाज को केन्द्र में रखकर चलते है: ‘व्यक्ति की सत्ता उन्हें’ समाज की इकाई के रूप में ही स्वीकार्य है - व्यष्टि का हित समष्टि के हित में ही निहित रहता है समाज के गतिशीलन विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसे समूह का विवेकपूर्ण योगदान मिले, जिसमें आपसी सौहार्द हो। अर्थात् साहित्य की निर्मित्ति समाज द्वारा ही होती है और समाज को ही वह अपने में अंकित करता है। समाज के समस्त आचार, व्यवहार, चिंतन-मनन, रहन-सहन आदि का वास्तविक वर्णन साहित्य द्वारा ही प्रस्तुत होता है।

1. पद्माकर के काव्य में सामाजिक मूल्यों की अभिव्यक्ति

रीतिकालीन कवियों ने भी अपने काव्य में तद्युगीन समाज को सम्पूर्ण गुण-दोषों के साथ अपने काव्य में चित्रित किया है। भक्तिकाल और आधुनिककाल जैसा स्पष्ट चित्रण रीतिकाल में शायद न देखने को मिले किंतु लोकजीवन में व्याप्त दुख व व्यथा से ये कवि भली-भांति परिचित प्रतीत होते है। रीतिकालीन कवियों ने भी जनजीवन को खुली-आँखों से देखा है और उसे अपने काव्य में चित्रित करने का प्रयास किया है। इस काल के कवि दरबारी कवि थे, यह उनकी विवशता थी, क्योंकि धनार्जन के लिए दरबारों से जुड़ना इनकी मजबूरी थी। इस कारण वे अपने आश्रयदाता की प्रशंसा करने के लिए बाध्य थे उनकी रुचि के अनुरूप शृंगारिक काव्य का सर्जन करना उनकी विवशता थी।

इस काल में साहित्य का जन-जीवन से सम्बन्ध नाममात्र ही था। इसलिए इनके काव्य में समाज का चित्रण प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष रूप में थी। किंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इस काल के कविजन तद्युगीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों से अनभिज्ञ थे।

रीतिकालीन कवियों ने भी तद्युगीन समाज को अपने काव्य में चित्रित करने का प्रयास किया है। दरबारी कवि होने के कारण शृंगारिक रचनाओं का सर्जन एवं आश्रयदाता का प्रशस्तिगान करना इन कवियों की विवशता थी। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इनके काव्य में समाज-पक्ष अनछुआ है। इस काल के कवियों ने भी तद्युगीन समाज का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया है। तत्कालीन सामाजिक मूल्यों एवं आदर्शों का चित्रण इनके काव्य में भी देखने को मिलता है।

कविवर पद्माकर ने भी अपने काव्य में तद्युगीन समाज की वास्तविकता को चित्रित करने का पूर्ण प्रयास किया है। तद्युगीन सामाजिक मूल्यों को अपने इस ग्रंथ ‘जगद्विनोद’ में चित्रित करने का प्रयास इन्होंने किया है। पद्माकर कवि ने इन सामाजिक मूल्यों के अन्तर्गत वर्ण व्यवस्था, पारिवारिक जीवन, नारी विषयक धारणा, समाज में धनी निर्धन वर्ग, सामाजिक लोक विश्वास एवं सामाजिक कुरीतियों आदि का चित्रण अपने इस ग्रंथ में किया है -

1. हिन्दू समाज एवं क्षत्रिय वर्ग

भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही वर्ण-व्यवस्था विद्यमान है। समाज को एकसूत्र में बाँधकर रखने के लिए प्राचीनकाल से वर्ण-व्यवस्था चली आ रही है। जिसके आधार पर भिन्न-भिन्न वर्णों के भिन्न-भिन्न कार्य निश्चित किये गये थे। वैदिककाल से ही वर्ण-व्यवस्था का वर्चस्व भारतीय समाज में देखने को मिलता है। ‘ऋग्वेद’ में भी इसका वर्णन देखने को मिलता है -

‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्
बाहुः राजन्यः कृत
उरू तदस्य यद्वैश्य
पदभ्यां शुद्रोअजायत्।’’

अर्थात् ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख, क्षत्रिय-बाहु, वैश्य जंघा एवं शुद्र पैरों से उत्पन्न हुए। वर्ण व्यवस्था को समाज के विकास और नियमन के लिए हितकारी माना गया है।

कविवर पद्माकर ने भी अपने काव्य में हिन्दू समाज का तो चित्रण किया ही है साथ ही साथ वर्ण-व्यवस्था का भी उल्लेख किया है। जो इस बात की पुष्टि करती है कि तत्कालीन समाज में भी वर्ण-व्यवस्था विद्यमान थी। कविवर पद्माकर ने भी ‘जगद्विनोद’ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों और शुद्रों में से क्षत्रिय-वर्ण का उल्लेख किया है। अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति में लिखे प्रथम छंद में ही कवि ने क्षत्रियों का उल्लेख किया है। कवि ने अपने आश्रयदाता जगतसिंह की वीरता, दया तथा कुल में श्रेष्ठ होने का चित्रण किया है। उनकी दरियादिली के साथ-साथ कवि ने उन्हें हिन्दू धर्म का रक्षक भी कहा है। इस छंद में हिन्दू-समाज का चित्रण भी हमें देखने को मिलता है -

‘‘छत्रिन के छत्र छत्र धारिन के छत्रपति छज्जत छटान छिति छेम के छवैया हौ।
कहैं पद्माकर प्रभाउ के प्रभाकर दया के दरियाउ हिंदुहद्द के रखैया हौ।’’

कवि ने एक स्थान पर गुर्जरी नायिका का भी उल्लेख किया है। जिससे यह बात स्पष्ट है कि तत्कालीन समाज में वर्ण-व्यवस्था तो विद्यमान थी ही, साथ ही साथ समाज विभिन्न जातियों में भी विभक्त था -

‘‘नवल गूजरी ऊजरी निरखि ऊजरी सेज।
उदित ऊजरी रैन को कहि न सकत कटु तेज।’’3

अतः यह कहा जा सकता है कविवर पद्माकर के युग में भी वर्ण-व्यवस्था विद्यमान थी। समाज विभिन्न जातियों एवं उपजातियों में विभक्त था। प्राचीनकाल से आज तक ये जातियाँ समाज में विद्यमान है और समाज के अभिन्न अंग के रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत होती है इन्हें समाज से अलग करना असंभव है।

2. पारिवारिक जीवन

परिवार प्रत्येक समाज की आवश्यक इकाई है। विवाह समाज द्वारा मान्य आवश्यक धर्म है। विवाह के उपरांत व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। प्राचीनकाल से ही समाज में संयुक्त परिवार की प्रणाली विद्यमान है।

कविवर पद्माकरकृत ‘जगद्विनोद’ में संयुक्त परिवार की सुन्दर झाँकी हमें कई स्थानों पर देखने को मिलती है। कवि ने पति-पत्नी, सास, ननद, जिठानी आदि जोकि संयुक्त परिवार का अंग है उनका उल्लेख भी अपने इस ग्रंथ में किया है। जैसे -

‘‘साजि सँकेत में सामरे को सु गयोई जहाँ हुती ग्वालि सयानी।
त्यों पद्माकर बोलि कह्यो बलि बैठो कहा इत ही अकुलानी।
तौ लौं न जाइ तहाँ पहिरै किन जौ लौं रिसाइ न सासु जिठानी।
हौं लखि आयो निकुंज ही में परी काल्हि जु राउरी माल हिरानी।’’4

अतः नायिका को पहिरने संवरने में सास के साथ जिठानी की रिस का भी ध्यान रखना पड़ता है।

विवाह उपरांत दुल्हन को उसकी जिठानी या अन्य कोई और शय्यागृह तक संजा-संवारकर ले जाती है। आज भी भारतीय परिवारों में यह रीति देखने को मिलती है। ‘जगद्विनोद’ में भी इसका उल्लेख कवि ने किया है -

‘‘साजि सिँगारिन सेज पै पारि भई मिस ही मिस ओट जिठानी।
त्यों पद्माकर आई गो कंत इकंत जबै निज तंत में जानी।
प्यौ लखि सुन्दरि सुन्दरि सेज तें यों रिरकी थिरकी थहरानी।
बात के लागे नहीं ठहरात है ज्यों जलजात् के पात पै पानी।।’’5

समाज में भाभी और ननद का रिश्ता खट्टा और मीठा दोनों ही रूपों में सामने आता है। कवि ने भी एक स्थान पर ननद और भाभी का चित्रण किया है। जहाँ नायिका को ननद की उसके प्रति ईर्ष्या का संकेत मिल जाता है -

‘‘सौति सँजोग न रोग कछु नहिं बियोग बलवंत।
ननद होत क्यों दूबरी लागत ललित बसंत।’’6

इसके अतिरिक्त एक अन्य स्थल पर कवि की पति-पत्नी के प्रति लगाव प्रकट करती ये पंक्तियाँ हृदयस्पर्शी हैं –

‘‘मो बिन माइ न खाइ कछू पद्माकर त्यों भई भाबी अचेत है।
वीरन आए लिवाइबे कौं तिनकी मृदु बानिहूँ मानि न लेत है।
प्रीतम को समुझावति क्यों नहीं सखी तूँ जु पैं राखति हेत है।
और तौ मोहि सबै सुख री दुख री यहै माइकैं जान न देत है।’’7

अर्थात् माँ के प्रति अनुरक्त बेटी मायके जाना चाहती है। किंतु उसका प्रिय उसे जाने नहीं देता। इस छंद में हमें माँ और बेटी का अतिशय प्रेम देखने को मिलता है। माँ बेटी को देखने के लिए तड़प रही है। किंतु प्रिय का अतिशय प्रेम उसे जाने की अनुमति नहीं देता।

इनके अतिरिक्त भी अनेक स्थलों पर कवि ने पारिवारिक जीवन की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत की है।

3. नारी के प्रति दृष्टि

रीतिकाल को ‘सामंतकाल’ का भी नाम दिया गया है जो इस काल में विद्यमान सामंतशाही के वर्चस्व को प्रदर्शित करता है। इस बात को स्पष्ट करता है कि रीतिकाल में सामंतशाही का बोलबाला था। जिसके कारण जनजीवन चरमरा गया था।

इस काल में नारी मात्र भोग्या रूप में देखी जाती थी। उसका कोई अन्य रूप भी हो सकता है। इसके विषय में सोचने का इनके पास अवकाश न था। ‘‘विलास के उपकरणों की खोज और उनका संग्रह तथा सुरा सुंदरी की आराधना अभिजातवर्ग का शगल था। मध्य और निम्न वर्ग के लोगों में उसका बोलबाला उसके अनुकरण के कारण था।’’8 समाज में नारी की दशा शोचनीय थी। ‘‘नारी को सम्पत्ति मानकर ही उसका भोग इनके जीवन का मूल मंत्र हो गया था।’’9 रीतिकालीन दरबारी कवि नारी की अंतश्चेतना का स्पर्श न कर पाए। वे उसके बाहरी सौन्दर्य में ही फंसे रहे। किसी भी समाज के अध्ययन में नारी की स्थिति का विश्लेषण उसे संपूर्णता प्रदान करता है। प्राचीनकाल से ही नारी का सम्मान भारतीय संस्कृति का अंग कहा जा सकता है। किंतु उत्तर-मध्यकाल के पुरुष-प्रधान समाज में नारी की स्थिति विपरीत थी। उसकी स्थिति अत्यंत दयनीय थी। विदेशी आक्रमणों ने रीतिकाल में नारी की स्थिति को बिगाड़ दिया। मुस्लिम शासकों को भोग-लिप्सा में नारी का सम्मान कहीं खो गया। मुस्लिम शासकों ने नारी को तन और मन से छिन्न-भिन्न कर दिया। डॉ. मदनगोपाल गुप्त ने भी मध्यकालीन नारी के विषय में लिखा है - ‘‘सामान्यतः उस युग की नारी को सामाजिक महत्व प्राप्त न था और विशेषकर मुस्लिम समाज की नारी अपेक्षाकृत दीनतर अवस्था में थी।’’10

इस काल का पुरुष वर्ग केवल नवल-नागरी नारी की मधुरिम आभा के मोह-जाल में डूबने का आदि था। मुस्लिम शासकों के हरम् ने नारी को भोग्या की चरम-सीमा तक पहुँचा दिया थ।

कविवर पद्माकरकृत ‘जगद्विनोद’ में भी नारी के दुर्लभ रूपों का चित्रण देखने को मिलता है। इस काल में कवियों की भी नारी के प्रति दृष्टि भोग्या के रूप में थी। कवि पद्माकर ने ‘जगद्विनोद’ में होली के अवसर पर रंगों से सराबोर और भीगी हुई नायिका चित्रण किया है वह किस प्रकार से अपने कपड़ों को सुखाने का प्रयास करती है इसका चित्रण कवि ने उसके अंग-प्रत्यंग से किया है -

‘‘घाँघरे की घूमन सु ऊरून दुबीचैं पारि आँगीहू उतारि सुकुमारि मुख मोरै हैं।
दंतनि अधर दाबि दूनर भई सी चापि चौअर पचौअर कै चूनर निचोरै है।।’’11

तत्कालीन समाज में गणिकाएँ भी विद्यमान थी। जिसका उल्लेख कवि के काव्य में मिलता है। जो इस बात को स्पष्ट करता है कि नारी के भोग्य रूप के अतिरिक्त अन्य किसी रूप की ओर इस काल में पुरुष का ध्यान नहीं गया। वह मनोरंजन का एक साधन मात्र समझी जाती थी। कवि ने गणिका नायिका के रूप सौन्दर्य का अत्यंत उत्तेजक चित्रण हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है -

‘‘तन सुबरन सुबरन बसन सुबरन उकति उछाह।
घनि सुबरनमय है रही सुबरन ही की चाह।’’12

रीतिकालीन साहित्य का केन्द्र बिन्दु नारी रही है। इसी कारण पद्माकर ने भी अपने काव्य-ग्रंथों में नारी के विभिन्न रूपों पत्नी, सास, ननद, जेठानी, भाभी माँ आदि का वर्णन किया है।

भारतीय संस्कृति में माँ का स्थान पिता से भी ऊँचा माना जाता है। माँ नौ मास तक शिशु को अपने पेट में रखती है जन्म से मृत्यु तक ममता के तहत अपने बच्चों के लिए ही जीती और मरती है। सृष्टि की सबसे उत्कृष्ट रचना ‘माँ’ ही है। उदाहरण के लिए नायिका का पति उसे अतिशय स्नेह करता है, किंतु नायिका को कष्ट इस बात का है कि पति का अतिशय स्नेह उसके मायके जाने में बाधक होता है। माँ-बेटी के अभाव में खाना-पीना छोड़ देती है। भाभी अचेत है। उसका भाई उसे बुलाने आया है किंतु प्रियतम उसके बिना नहीं रह सकता। उसे जाने नहीं देता -

‘‘मो बिन माइ न खाइ कछू पद्माकर त्यों भई भाबी अचेत है।
बीरन आए लिबाइबे कौ तिनकी मृदु बानिहूँ मानि न लेत है।
प्रीतम को समुझावति क्यों नहीं सखी तूँ जु पैं राखति हेत है।
और तौ मोहि सबै सुख री दुख री यहै माइकैं जान न देत है’’13

इसके अतिरिक्त अनेक स्थलों पर नारी के विभिन्न रूपों, माँ, बेटी, सास, देवरानी, जेठानी, ननद आदि का सुन्दर चित्रण हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। उनमें से एक और उदाहरण प्रस्तुत है:-

‘‘पिय पागे परोसिन के रस में बस में न कहूँ बस मेरे रहैं।
पद्माकर पाहुनी सी ननदी न नदी तजै ये अवसेरे रहैं।
दुख और यों कासों कहौ को सुनै ब्रज की बनिता दृग फेरे रहैं।
न सखी घर साँझ सवेरे रहै घनस्याम घरी घरी घेरे रहे।।’’14

नायिका की ननद पहुनी-सी दिन रात, नदी-कूप जहाँ कहीं भी नायिका जाती है साथ लगी रहती है।

अतः स्पष्टतः कहा जा सकता है कि पद्माकर कवि ने अपने काव्य में नारी के लोग प्रचलित सभी रूपों का वर्णन किया है।

4. तद्युगीन समाज में नारी दशा

शृंगार एवं भोग-विलास से पूर्ण रीतिकालीन वातावरण में स्त्रियाँ पूर्णतः स्वतंत्र नहीं थी। उन पर सामाजिक अंकुश थे। जिस रीतिकालीन समाज में नारी की छवि एक भोगपरक एवं मनोरंजन का साधन मात्र थी। वहाँ पर स्त्रियों पर सामाजिक प्रतिबंध भी थे। वे अपनी रूचि के अनुरूप निर्णय लेने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र नहीं थी।

तद्युगीन समाज में लड़कियों को माता-पिता के बिना बताए घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। यदि वह बिना बताए जाती थी तो उसे कई तरह के सवाल-जवाब किए जाते थे -

‘‘बोलति न काहे ए री पूछे बिन बोलौं कहार पूछति हौं कहां भई स्वेद अधिकाई है।
कहै पद्माकर सु भारन के गए आए साँची कछु मोसो आजु कहाँ गई आई है।’’15

उपर्युक्त पंक्तियों में माँ द्वारा पुत्री के बिना बताए घर से बाहर जाने पर कि जाने वाली पूछताछ का वर्णन है। वह उससे पूछती है कि वह कहाँ गई थी और उसे इतना पसीना क्यों आ रहा है। इन पंक्तियों से यह स्पष्ट दृष्टव्य होता है कि तद्युगीन समाज में नारी पर तरह-तरह के सामाजिक अंकुश थे। वह पूर्णतः स्वतंत्र न थी।

माँ और बेटी का जो रिश्ता है वह प्राचीनकाल से ही दोनों के घनिष्ठ प्रेम को दर्शाता है। कवि ने भी माँ-बेटी के प्रेम का सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है -

‘‘मों बिन माइन खाइ कह पद्माकर त्यों भई भावी अचेत है।
बीरन आए लिवाइबे कौं तिनकीं मृदु बानि हूँ मानि न लेत है।
प्रीतम को समुझावति क्यों नहीं ए सखी तूँ जु पै राखति हेत है।
और तौ मोहि सबै सुख री दुख री यहै माइकै जान न देत है।’’16

इस छंद में पति अपनी पत्नी पर अपना आधिपत्य जता रहा है। विवाह के पश्चात् स्त्री अपने पति द्वारा बनाए गए बंधनों में बँध जाती है। वह अपने पति की इच्छानुसार सभी कार्य करती है। यह भी समाज के द्वारा बनाया गया एक बंधन है जिस पर पुरुष का अधिकार है। अपने मायके आने के लिए भी नारी को अपने पति से आज्ञा लेनी पड़ती है। अतः बंधन चाहे माँ-बाप का हो या पति का उन्हें मानना नारी का कर्त्तव्य था। इस प्रकार इस काल में नारी अनेक सामाजिक बंधनों में बँधी हुई थी।

कविवर पद्माकर ने ‘जगद्विनोद’ में स्वकीया नायिका का उदाहरण देते हुए तत्कालीन समाज में आदर्श गृहिणी की छवि को प्रदर्शित किया है -

‘‘खान-पान पीछू करति सोवति पिछले छोर।
प्रानपियारे ते प्रथम जगत भावती भोर।’’17

अर्थात् स्वकीया नायिका के विषय में कवि लिखते हैं कि वह सबसे पहले अपने सम्पूर्ण परिवार को भोजन करवाती है तत्पश्चात् स्वयं खाना खाती है।

अतः उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि तद्युगीन समाज में नारी मात्र भोग-विलास का साधन नहीं थी। उसे केवल भोग्या की दृष्टि से ही नहीं देखा जाता था। तद्युगीन नारी अनेक प्रकार के सामाजिक बंधनों में बंधी हुई थी। वह पूर्णतः स्वतंत्र न थी। तत्कालीन समाज में नारी के संदर्भ में कुछ मूल्य निर्धारित थे जिनके आधार पर उन्हें आदर्श की कसौटी पर कंसा जाता था। कवि द्वारा स्वकीया एवं परकीया नायिका-लक्षण इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। देखा जाए तो प्राचीनकाल से लेकर अब तक नारी को इन्हीं विशेषताओं की कसौटी पर कसां जाता है।

4. तद्युगीन समाज में धनी एवं निर्धन

रीतिकालीन समाज में धनी-निर्धनों द्वारा जीविकोपार्जन के लिए किए जाने वाले विविध व्यवसायों का उल्लेख कवियों द्वारा किया गया है। प्राचीनकाल से ही मनुष्य अपनी आजीविका के लिए भिन्न-भिन्न व्यवसायों पर आश्रित रहा है। इस काल में काव्य-सर्जन भी जीविकोपार्जन का ही एक साधन था। इसके अतिरिक्त इस काल में अनेक व्यवसाय विद्यमान थे। जैसे -

(i) पशुपालन

तद्युगीन समाज में पशुपालन भी जीविकोपार्जन का प्रमुख साधन था। इस काल में कृषि भी जीविका का साधन थी। इस काल में गायों का पालन कर और उसके दूध से बने पदार्थों को बेचना सामान्य-वर्ग का मुख्य व्यवसाय था। कविवर पद्माकर ने भी इसका उल्लेख किया है -

‘‘आज तें न जैहौं दधिबेचन दुहाई खाँउ भैया की कन्हैया उत ठाढ़ोई रहत है।
कहै पद्माकर त्यों साँकरी गली है, अति इत उत भाजिबे कौ दाऊ न लहत है।
दौरि दधिदान काज ऐसो अमनैक तहाँ आली बनमाली आई बहियाँ गहत है।
भादों सुदी चौथ की लख्यों मैं ‘मृगअंक याते’ झूठहू कलकं मोहि लागिबो चहत है।’’18

नायिका दूध बेचने नहीं जाना चाहती क्योंकि नायक वहाँ रहता है और वहाँ की गलियाँ भी संकरी है, छोटी है। वह कहती है कि वह मेरी बाँह पकड़ लेता है और मुझ पर झूठा कलंक लगाना चाहता है। उपरोक्त पंक्तियों द्वारा कवि पद्माकर ने तद्युगीन समाज के व्यवसाय का उल्लेख किया है।

(ii) पलायन कर कार्य करना

तद्युगीन सामंतशाही प्रधान समाज में उच्च-वर्ग और निम्न-वर्ग में बहुत बड़ा अन्तर था। सामान्य जनता गरीबी और दरिद्रता से पीड़ित थी। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना ही पड़ता था। प्राचीनकाल से पलायन की यह परम्परा भारत में देखने को मिलती है। पति का जीविका के लिए परदेस जाना और नायिका का विरह में जलना ये सभी विशेषताएँ प्राचीनकाल से ही देखने को मिलती है। रीतिकाल में भी यह परम्परा देखने को मिलती है। जिसका वणन पद्माकर ने भी किया है -

‘‘पिय जाको परदेस में प्रेषितपतिका सोई।
अदित उद्दीपन तें तु तन संतापित अति होई।।’’19

पति कामकाज के लिए परदेस गया है और पत्नी संतापित हो रही है। प्राचीनकाल की यह विशेषता आज भी समाज में विद्यमान है। आज भी गरीब व निर्धन लोग आजीविका के लिए गाँवों से पलायन कर शहरों की ओर भाग रहे है। इसका मुख्य कारण गाँवों में गरीबी का निरंतर बढ़ना और शहरों में निरंतर चकाचौंध जो ग्रामीण जनता को शहरों की तरफ पलायन करने को प्रेरित करती हैं।

(iii) संदेश प्रेषित करना

प्राचीनकाल से ही परदेस गए हुए लोग अपने परिचितों की खैर-खबर जानने के लिए संदेशवाहकों का प्रयोग करते आ रहे हैं। राजा द्वारा अन्य राजा को संदेश पहुँचाने के लिए संदेशवाहक का प्रयोग किया जाता था। प्राचीनकाल में तो पक्षियों के द्वारा भी संदेश पहुँचाये जाते थे। संदेश प्रेषित करना सामान्य जनता में भी प्रचलित था क्योंकि जनसाधारण लोग ही देश-प्रदेश में जाकर बस जाते थे और वही कार्य करते थे।

रीतिकालीन समाज में भी इस प्रणाली का निर्वाह किया जाता था। इस काल की विशेषता है कि इस काल में शृंगारपरक काव्य लिखा गया। शृंगार के दोनों पक्ष संयोग एवं वियोग का वर्णन इस काल में मिलता है। नायिका प्रिय के परदेस जाने पर वियोग में व्याकुल दिखाई गई है। कविवर पद्माकर की नायिका भी प्रिय के दूर चले जाने से दुखी है। वह कह रही है कि शरद् ऋतु समाप्त होने को है तथा बसंत का आगमन हो रहा है लेकिन मेरे प्रिय का संदेश नहीं आया -

‘‘बीर अबीर अभीरन को दुख भाषैं बनै न बनै बिन भाषै।
त्यों पद्माकर मोहन मीत के पाए सँदेस न आठएँ पाखैं।
आए न आप न पाती लिखी मन की मन ही में रहीं अभिलाषैं।
सीत के अंत बसंत लग्यो अब कौन के आग बसंत लै राखै।।’’20

उपर्युक्त पंक्तियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि तद्युगीन समाज में संदेश भेजने का साधन चिट्ठी-पत्री हुआ करते थे। जिसे कवि ने ‘पाती’ शब्द के रूप में चित्रित किया है। रीतिकालीन समय में संदेश प्रेषित करने का साधन चिट्ठी में इस प्रकार उस समय की सामाजिक प्रणाली का वर्णन मिलता है। आज भी तकनीकी या विज्ञान के इस युग में संदेश भेजने का मुख्य साधन पत्र लिखना ही है।

5. सामाजिक लोक विश्वास

भारतीय समाज में प्राचीन समय से ही कुछ लोक विश्वास चले आ रहे हैं। जिन्होंने आधुनिककाल में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया हुआ है और आगे भी चलते रहेंगे। सदियों से चली आ रही कतिपय मान्यताएँ एवं स्थापनाएँ इतनी अधिक बारीकी से लोकजीवन में परम्परा स्वरूप घुल-मिल जाती हैं कि मूलबद्ध संस्कारों से इन्हें अलग करना असंभव-सा हो जाता है। क्योंकि इनकी जड़ में परम्परा एवं विश्वास बसा हुआ है। ये विविध प्रकार की स्थापनाएँ ही लोक-विश्वास कहलाती हैं।

पद्माकर ने भी ‘जगद्विनोद’ में इन लोक-विश्वासों की चर्चा की है। जो इस प्रकार हैं -

(i) अंग फड़कना

लोगों की सामाजिक मान्यता है कि यदि शरीर का कोई अंग फड़कता है तो कोई न काई अनहोनी होती है या किसी शुभ समाचार की प्राप्ति होती है। जैसे आँख का फड़कना, बाँह फड़कना इत्यादि अंगों के फड़कने से कुछ न कुछ घटित अवश्य होता है। यह सामाजिक अवधारणा प्राचीनकाल से अब तक देखने को मिलती है। रीतिकाल में इस प्रकार के वर्णन पूर्ण रूप में देखने को मिलते हैं। कविवर पद्माकर ने भी इसका वर्णन किया है-

‘‘आवत बलम बिदेस तें हरषित होई जु बाम।
आगतपतिका नाइका ताहि कहत रसधाम।’’21

इसमें नायिका की बाजू के फड़कने का वर्णन कवि ने किया है। जो उसे उसके पति के आने का आभास करा रही है।

अंगों के फड़कने के भी अर्थ भिन्न-भिन्न लगाए जाते हैं। बाँया बाजू फड़कने पर किसी के आने का आभास होता है।

(ii) सवेरे दूध दोहना

इसके अनुसार गाय और भैंस का दूध सवेरे दूहा जाता है। इसके अनुसार सुबह-सवेरे दूध-दूहना अधिक शुभ माना जाता है और इससे गाय दूध भी अधिक देती है ऐसा माना जाता है। पद्माकर कवि ने भी इसका उल्लेख किया है।

‘‘जब लौं घर को धनी आवै घरैं तब लौ तौं कहूँ चित दैबो करौ।
पद्माकर ये बछरा अपने बछरान के संग चरैबो करौ।
अरू औरन के घर ते हम सों तुम दूनी दुहावनि लैबो करौ।
नित साँझ सवेरे हमारी हहा हरि गायें भला दुहि जैबो करौ।।’’22

अतः ये सामाजिक विश्वास आज भी अपना वर्चस्व समाज में बनाए हुए है। आज भी लोग सुबह-सवेरे ही दूध दूहा करते हैं और अंगों के फड़कने पर आज भी अनेक अनुमान लगाए जाते हैं। सामाजिक जीवन में ये लोक-विश्वास बहुत गहराई तक समाए हुए हैं। इसी कारण युग कोई भी हो साहित्यकार इनका चित्रण अपने काव्य में अवश्य करता है। क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है।

(iii) शकुन-अपशकुन

भारत में प्राचीनकाल से ही शकुन-अपशकुन पर विचार किया जाता है। युगों-युगों से यह अवधारणा यूँ चली आ रही है और साहित्य में भी इनका वर्णन पूर्ण रूप से देखने को मिलता है क्योंकि साहित्य समाज से ही सामग्री प्राप्त करता है। ‘जगद्विनोद’ में पद्माकर कवि ने छींक को आधार बनाकर पाहुनी को जाने से रोकने का वर्णन किया है जो समाज में व्याप्त शकुन-अपशकुन की विचारधारा को स्पष्ट करता है -

‘‘आई सु न्यौति बुलाई भलैं दिन चारि को जाहि गुपाल ही भावै।
त्यों पद्माकर काहू कह्यों कै चलौ बलि बेगि ही सासु बुलावै।
सो सुनि रोकि सकै क्यों तहाँ गुरु लोगन में यह बात बनावै।
पाहुनी चाहै चल्यो जबहिं तबहिं हरि सामुहें छींकत आवै।।’’23

अर्थात् नायिका नायक के घर न्योते में आयी है। उसको घर बुलाने के लिए उसकी सास का संदेश आता है नायक गुरुजनों के समक्ष उसे कैसे रोके? पाहुनी ना जा सके इसलिए वह जब चलने को तैयार होती है तो वह छींकते हुए सम्मुख आ जाता है और पाहुनी का जाना रूक जाता है। इसके अतिरिक्त एक और धारणा का उल्लेख कवि ने किया है जिसके अनुसार चौथ का चाँद देखना अपशकुन है -

‘‘भादों सुदी चौथ को लख्यो मैं मृगअंक यातें।
झूठहू कलंक मोहिं लागिबो चहत है।’’24

अर्थात् नायिका ने नायक को अंक से नहीं लगाया क्योंकि उसने भादों सुदी चौथ का चाँद देख लिया है इसलिए उसे झूठा कलंक सुनना पड़ रहा है। एक अन्य स्थल पर भी कवि ने इसका उल्लेख किया है -

‘लगै न कहूँ ब्रजगलिन में आवत जात कलंक।
निरखि चौथ को चाँद यह सोचति सुमुखि ससंक।’’25

नायिका के मन में यह आशंका घर कर गई है कि कहीं चौथ का चाँद देखते ही ब्रज की गलियों में कलंक न लग जाए।

ये सभी तद्युगीन समाज में अपशकुन के महत्व को दर्शाते हैं। आज भी समाज में शकुन-अपशकुन की धारणा विद्यमान है।

6. सामाजिक कुरीतियाँ

भारतवर्ष में प्राचीनकाल से ही सामाजिक कुरीतियाँ विद्यमान हैं जो आज भी समाज में अपना स्थान बनाये हुई हैं। बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, सती-प्रथा आदि ऐसी अनेक बुराइयाँ हैं। नारी की दशा को और अधिक शोचनीय स्थिति तक पहुँचाने वाली ये कुरीतियाँ ही है। प्राचीनकाल से मध्यकाल तक आते-आते ये कुरीतियाँ और अधिक बढ़-चढ़कर बोलने लगी। सती-प्रथा और पुरुषों द्वारा एक से अधिक विवाह इन कुरीतियों का इस युग में अधिक बोलबाला था।

सती-प्रथा नामक इस कुरीति में प्रारंभ में तो स्त्रियाँ अपनी इच्छा से सती होना पसंद करती थी क्योंकि अपने प्रिय स्वामी के अभाव में जीने की उनकी इच्छा ही नहीं होती थी। किंतु धीरे-धीरे इस कुरीति ने अपने पैर फैलाने शुरू कर दिये और स्त्रियों को बिना उनकी इच्छा के सती होने के लिए विवश किया जाने लगा।

रीतिकाल में भी इस कुरीति का वर्णन देखने को मिलता है। नायिका द्वारा सती होने की चर्चा रीतिकाव्य में भी अनेक स्थलों पर देखने को मिलती है। पद्माकर कवि ने भी अपने काव्य में सती-प्रथा का चित्रण किया है। जैसे:-

‘‘प्रानत्याग कहये मरन सो न बरनिबे जोग।
बरनत सूर सतीन को सुजसहेत कबिलोग।’’26

जगद्विनोद क्योंकि लक्षण ग्रंथ है इस कारण कवि ने मरण का लक्षण बताते हुए सती होने का यह वर्णन प्रस्तुत किया है। एक अन्य स्थल पर कवि ने इस प्रथा का उल्लेख किया है -

‘‘निरदैपन सों उग्रता कहत सुमति सब कोइ।
सयन कहावत सोइबो वहै सु निद्रा होइ।’’27

उपर्युक्त पंक्तियों में कवि ने जोधपुर महाराज प्रतापसिंह की शैय्या पर उनकी पटरानी के सती होने का वर्णन किया है और इसे पतिव्रताधर्म बताकर, प्रेम का प्रतीक मानकर सभी लोकों में इसकी सराहना की है। और सती होने वाली नारी को धन्य कहा है।

अतः उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि तद्युगीन समाज में भी सती-प्रथा नामक यह कुरीति विद्यमान थी। इस युग में सती-प्रथा की सराहना की जाती थी। पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री का देह-त्याग ही उसके सच्चे प्रेम का प्रदर्शक माना जाता था। सती होना उसके जीवन का मूल था। स्त्री जब तक स्वेच्छा से इस धर्म का निर्वाह करती आई, तब तक समाज के लिए यह एक प्रथा थी। किंतु जबर्दस्ती से सती बनाने की व्यवस्था ने इसे एक सामाजिक कुरीति में परिवर्तित कर दिया। अंततः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि पद्माकर कवि ने भी तद्युगीन सामाजिक प्रथाओं का उल्लेख अपने काव्य में किया है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण समाज व्यवस्था द्वारा पारस्परिक व्यवहार एवं सार्वजनिक कल्याण हेतु स्थापित जीवनादर्श ही जीवन मूल्य है। सामाजिक मूल्य ही समाज के निर्माता हैं। यही मूल्य आदर्श व्यक्तित्व का चहुँमुखी विकास करते हुए संस्कृति को आधार प्रदान करते है।

साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य किसी भी युग का हो उसमें तत्कालीन समाज अवश्य प्रतिबिम्बित होता है। इसीलिए रीतिकालीन साहित्य में शृंगार की प्रधानता होते हुए भी वह समाज सापेक्ष है। वह तत्कालीन समाज से अपना मुँह नहीं मोड़ पाया। यही कारण है कि प्रत्यक्ष रूप में न सही किंतु अप्रत्यक्ष रूप में कविवर पद्माकर ने तत्कालीन सामाजिक मूल्यों को अपने काव्य में उद्घाटित किया है। दरबारी कवि होते हुए भी कवि ने तत्कालीन समाज की सुन्दर अभिव्यक्ति अपने काव्य में प्रस्तुत की है। समाज में विद्यमान प्रवृत्तियों, विश्वास, रीतियों, व्यवसायादि, बहुदेवोपासना, पूजा-पाठ, नारी की स्थिति, लोगों के विश्वास एवं मान्यताओं आदि के द्वारा कवि ने तत्कालीन सामाजिक-मूल्यों की स्थापना अपने इस ग्रंथ ‘जगद्विनोद’ में की है।

साहित्य समाज से जीवन-रस ग्रहण कर पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है। उसमें समाज की अभिव्यक्ति होना अनिवार्य है। पद्माकर कवि ने अपने काव्य में इन जीवन-मूल्यों की अभिव्यक्ति करके अपने काव्य को समाज से निरपेक्ष नहीं किया। अतः यह कहा जा सकता है कि इनके काव्य में शृंगारेतर भी अनेक मूल्य देखने को मिलते हैं।

संदर्भ ग्रंथ

1 ऋग्वेद - 10, 90, 12
2 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-5, पृ. 3.
3 वही, छंद संख्या-184, पृ. 30.
4 वही, छंद संख्या-345, पृ. 55.
5 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-41, पृ. 65.
6 वही, छंद-संख्या-116, पृ. 20.
7 वही, छंद-संख्या-137, पृ. 23.
8 हिन्दी साहित्य का उत्तर मध्यकाल-रीतिकाल: प्रो- महेन्द्र कुमार, पृ. 13.
9 वही, पृ. 13.
10 मध्यकालीन हिन्दी काव्य में भारतीय संस्कृति: शीर्षक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, डॉ. मदनगोपाल गुप्त, पृ. 144.
11 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-14, पृ. 4.
12 वही, छंद संख्या-125, पृ. 21
13 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-137, पृ. 23.
14 वही, छंद संख्या-98, पृ. 17.
15 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-129, पृ. 22.
16 वही, छंद संख्या-137, पृ. 23.
17 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-19, पृ. 5.
18 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-93, पृ. 16.
19 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-145, पृ. 24.
20 वही, छंद संख्या-156, पृ. 26.
21 पद्माकर-ग्रंथावली: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-259, पृ. 136
22 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-97, पृ. 17.
23 जगद्विनोद: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-313, पृ. 50.
24 पद्माकर-ग्रंथावली: सम्पादक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-93, पृ. 99
25 वही, छंद संख्या-484, पृ. 75.
26 जगद्विनोद: सम्पादक-आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, छंद संख्या-550, पृ. 85.
27 वही, छंद संख्या-552.

दीपा
शोधार्थी पीएच-डी- हिंदी,
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल न- 9654336989

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