पानी (नारायण राव)

22-06-2008

पानी (नारायण राव)

नारायण राव

ग्रीष्म ऋतु पूरी जवानी पर था। सारे नहर, नाले और ताल सूख गये थे। चारों ओर त्राही-त्राही मची थी। जनता रोजगार की तलाश में गाँव से शहर की ओर भाग रही थी। सरकार का हर प्रयत्न विफल हो रहा था। शहर से लगभग पाँच मील दूर एक दरख्त के नीचे बैठा हरिया, पानी के लिये तरस रहा था, उसका गला प्यास के मारे घुट रहा था, और मन ही मन सोच रहा था कि घर से क्यों निकला।

घर से नहीं निकलता तो करता भी क्या? घर मे दाना नहीं खाने को। कुएँ, तलाब सूखे पड़े है। पानी के लिये बड़े गाँव जाना पड़ता है। वहाँ के ब्राह्मण देवता दरिद्र लोगों को पानी नहीं देते है। छुआ-छूत की महामारी ज़बरदस्त फैली हुयी थी। लाख मिन्नतें करनी पड़ती हैं, सुबह से दोपहर हो जाती है उनके घरों में चाकरी करते-करते, तब कहीं वे शुद्धी कर दो चार-मटकी पानी लेने देते थे। जिसे कंठ से उतार कर जी लेते है बस। रोज़गार की तलाश में गाँव का गाँव खाली हो रहा था।

 

हरिया भी रोज़गार की तलाश में निकला था। चलते समय उसकी अम्माँ मक्के की रोटी और थोड़ा सा सत्तू पटके में बाँध दी थी। भूख लगी तो मक्के की रोटी तोड़ी। और सत्तू के साथ खाई। पीने के लिये पानी नहीं मिला। दूर-दूर तक पानी को नामो निशान नहीं था। बस दिल मे उम्मीद भर थी। प्यासा कंठ लिये शहर की ओर चल पड़ा।

एकाध मील चला होगा उसे एक बैलगाड़ी दिखी, जो शहर की ओर जा रही थी। उसकी चाल तेज हो गयी। उम्मीद थी कि बैलगाड़ी वाले के पास अवश्य पानी होगा। यदि थोड़ा सा पानी मिल ही जाये तो गला तर जाय। बैलगाड़ी के पास जाकर देखा कि जुते बैल काफी धीमी गति से चल रहें है, मानो उनमें प्राण ही न हो। उनकी आँखों से पता चल रहा था कि उन्हें भी पानी नसीब नहीं हुआ है। गाड़ी पर एक बूढ़ा बैठा था। उसे देख कर लगता था कि वो भी पानी के लिये तरस रहा हो। उसका माथा धूल से सना हुआ था। सर पर मौजूद पगड़ी बता रही थी कि वह कितने दिनों से धूल खा रही है। उसकी आँखें बैचेन थी।

 

हरिया ने उस बूढ़े से बोला,   “बाबा.... पानी है का....?”

बूढ़ा खामोश रहा।

“बहुत देर से गला सूख रहा है...... थोड़ा पानी दे दो बाबा.....।”

“बेटा.... पानी नहीं है..... मेरा भी गला सूख रहा है”,  कहते-कहते उस बूढ़े की आँखों से पानी टपका।

“बाबा धीरज धरो..... आगे कुछ न कुछ हो जायेगा...... आगे कुछ नहीं हुआ तो शहर में पानी का भंडार है बाबा।”

बूढ़े का मन थोड़ा हल्का हुआ। हरिया बैलगाड़ी पर बैठ गया। एक से भले दो, आराम से सफ़र कटने लगा।

एक-दो मील चले होंगे, छोटी-मोटी जंगली झाड़ियाँ लगती गयीं। थोड़ी देर बाद बड़े-बड़े और घने-घने पेड़ों की छाँव भी मिली। धूप से कुछ राहत महसूस हुयी। कुछ दूर बाद एक बड़ा बरगद का वृक्ष दिखा, उसके पीछे एक छोटा सा डबरा था। बूढ़े ने गाड़ी रोकी और हरिया से कहा,   “जरा देख तो बेटा.... वहाँ पानी होगा।”

हरिया गाड़ी से उतर, डबरे के पास गया। डबरे में कीचड़ युक्त पानी था। मैंला, गंदला। वो पानी को पीना तो दूर, जानवरों के नहाने लायक भी नहीं है। वापस बैलगाड़ी के पास आया। उम्मीद भरी निगाहों से बूढ़ा उसकी ओर देख रहा था। हरिया का दिल तिलमिला गया। बूढ़े ने पूछा,   “पानी है?”

“हाँ”, हरिया ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। बूढ़े की आँखें खुशी से चमक उठीं, बूढ़े ने जल्दी-जल्दी गाड़ी से उतर, बैलों को खोल दिया। बैल डबरे में उतर गये। बूढ़े ने राहत की साँस लेते हुये कहा,  “चलो....... बैलों को तो पानी मिला.... बेचारे मूक पशु हैं।”

बूढ़े की आँखो में प्रसन्नता देख कर हरिया का मन भर आया। थोड़ी देर बाद बूढ़े ने अपनी मैंली-कुचैली थैली में हाथ डाल दो गुड़ के ढेले निकाले, एक हरिया को देकर बोला,  “इससे प्यास कुछ कम हो जायेगी।”

हरिया गुड़ के ढेले को अहिस्ता-अहिस्ता चूसने लगा। सचमुच प्यास जाती रही। कुछ देर विश्राम करने के बाद बूढ़े से बोला,  “बाबा चलो.... अब चलना चाहिये।”

“नहीं बेटा.... अब मुझ में हिम्मत नहीं, साँझ को ही गाड़ी खेतूगाँ”, बूढ़े ने आराम से लेटते हुये कहा।

हरिया को जल्दी पड़ी थी, सो बाबा से राम-राम कह कर अकेले ही निकल पड़ा। करीब घण्टे भर चला होगा। सूरज जब ढलने लगा तो गर्मी कुछ कम होने लगी। दूर से हरिया को शहर नज़र आया। शरीर थका हुआ था फिर भी थकान महसूस नहीं हो रही थी। हरिया निरन्तर कदम बढ़ाये जा रहा था।

 

शहर लगभग आधे मील कि दूरी पर होगा। उसे एक कुआँ दिखा। जहाँ से कुछ औरतें पानी भर रही थीं। कुएँ के पास एक महिला, घड़ों में पानी भरने के बाद, दूसरी महिला से बाते कर रही थी। हरिया के निवेदन पर उसने रस्से से बँधे टीन के टिपरे को हिरया को दिया। हरिया बड़े उत्साह से टीन के टिपरे को कुएँ में डाला। टीना भर पानी बाहर खींच। अपने दोनों हथेली में पानी भर कर मुँह में डाला।

हरिया का ख्याल था कि सूखे गले में पानी अमृत की तरह लगेगा। पर मन का ख्याल मन में रह गया, पानी मुँह में डालते ही उसे अमृत के बदले ज़हर लगने लगा। पानी में एक अजीब कसैलापन था। कंठ गीला अवश्य हुआ। पर ना तो मन तृप्त हुआ और ना ही प्यास बुझी। वहाँ पर उपस्थित महिलाओं से पूछने पर पता चला कि उस इलाके के सारे कुओं में ऐसा ही कसैला पानी है।

हरिया मन मार कर, हाथ-मुँह और पैर लगभग नहाने की तरह धो लिए। मक्के की रोटी का छोटा सा टुकड़ा लिया और खाते-खाते चल पड़ा। संध्या हो चुकी थी अभी अंधकार घना नहीं हुआ था। ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। मन तृप्त होने लगा। 

 

कुछ समय बाद शहर का कोलाहर दूर से सुनायी दिया। शहर की रोशनी चकाचौंध थी। गाँवों में ऐसी रोशनी कहाँ होती है। शहर की चकाचौंध रोशनी दूर से ही हरिया के मन को भा रही थी। लगभग दौड़ने जैसी चाल से चलते हुये शहर में दखिल हुआ।

सड़क के किनारे एक शर्बत की दुकान थी। शर्बत बेचने वाला कह रहा था,  “शर्बत..... भाई साहब........ शर्बत, नींबू-शर्बत, संतरा-शर्बत, शर्बत पिओ ठंडक पाओ, ज़ोरदार शर्बत है बाबू।”

हरिया शर्बत की दूकान पर गया। दूकान वाले ने पूछा शर्बत दूँ क्या? हरिया जानता था शर्बत के बदले वह पैसे माँगेगा। हरिया झट से कहा,   “भाई साहब थोड़ा पानी दे दो ना “ “नहीं पानी नहीं है हमारे पास केवल शर्बत है, दूँ क्या”, शर्बत बेचने वाला बोला।

हरिया प्यासा मन लिये आगे चल दिया। आगे वह एक होटल में गया और पानी माँगा, होटल का मालिक बोला,   “कुछ खओगे तो पानी मिलेगा। मैं मुफ्त पानी बाँटने के लिये नहीं बैठा हूँ।”

हरिया वहाँ से भी प्यासा चल दिया। आगे उसे बहुत बड़ा शो रूम मिला जो कपड़ों और गहनों का शो रूम था, उसके भीतर घड़े से पानी रखा हुआ था और सामने के गेट पर एक दरबान भी खड़ा था। हरिया उस शो रूम में घुस ही नहीं सकता था इसलिये उस दरबान से अनुरोध किया,   “थोड़ा पानी मिलेगा क्या?“

“ये धर्मशाला नहीं है। जाओ भागो यहाँ से”, दरबान कड़कती आवाज में बोला। हरिया वहाँ से भी आगे चला। हरिया कई जगहों से धुतकारा गया। घूमते-घूमते उसे काफी समय हो गया। रात्री का प्रथम पहर समाप्त हुआ। दुकानें बंद होने लगी। शहर की गलियाँ सूनी पड़ने लगीं। परन्तु हरिया अब भी प्यासा ही था। वह फुटपाथ के कोने में बैठ कर शहर के लोगों के बारे में सोचने लगा। कितने निर्दयी हैं यहाँ के लोग, पानी तक नहीं देते। यदि काम माँगूँगा तो देंगे? काम न मिला तो क्या खाँऊगा, घर क्या लेकर जाँऊगा। सारी चिंताओं में घिरा हरिया फुटपाथ पर पसरने लगा उसे हल्की सी झपकी आयी। वो निद्रा के आगोश में समा गया।

रात्री का द्वितीय पहर समाप्ति पर था। हरिया एकाएक उठ बैठा। प्यास के मारे बेहाल होने लगा। उसका गला सूखने की वजह से दम घुटता हुआ प्रतीत होने लगा था। वह पानी की तलाश में निकला। सारा शहर अँधेरे में डूबा था। कहीं-कहीं स्ट्रीट-लाईट जल रही थी। हरिया भटकता हुआ चौराहे पर पहुँचा। न जाने उसे क्या सूझी, वह बाजू के एक पतली तंग गली में घुसा। वहाँ एक मकान में थोड़ी सी रोशनी जल रही थी। मकान टूटा-फूटा सा था। दरवाजों में कुण्डे नहीं थे। खिड़कियों में लोहे के छड़ मात्र थे। हरिया खिड़की से अंदर झाँका। उसे चार बच्चे और एक औरत सोते हुये दिखे। उनके सिरहाने से चार कदम की दूरी पर एक घड़ा था और घड़ा का आधा भाग पानी से भिगा हुआ था। हरिया को पता लग गया कि उसमें पानी है। उसने सोचा उन्हें जगा कर पानी माँगा जाय। फिर ख्याल आया कि ये शहर के लोग पानी तो नहीं देगें, उल्टे डाट-डपट के भगा देगें। इसलिये हरिया धीरे से किवाड़ को अंदर ढकेला। दबे पाँव अंदर गया। धीरे-धीरे मटके के पास गया। मटके का ढक्कन हटाया। अन्दर पानी था। पानी देख कर उसे लगा स्वर्ग मिल गया हो। पास ही में एक जर्मन धातु का बना ग्लास रखा हुआ था। वह काला पड़ चुका था। जगह-जगह से मुड़-तुड़ के ग्लास का आकार खो चुका था। फिर भी पानी पीने के काम आ रहा था। हरिया उस ग्लास को उठाया। उस ग्लास से केवल पानी पीने का काम लिया जाता था पर उसके उपर जमी चिकनायी से ऐसा लगता है कि इस ग्लास से धी तौला जाता रहा होगा। हरिया ग्लास आहिस्ता-आहिस्ता घड़े में डुबाया और भर कर घड़े से बाहर निकाला। ग्लास मुँह तक ले ही गया था कि पानी भरा ग्लास उसके हाथ से फिसला और घड़े पर जा गिरा। घड़े की स्थिती भी कुछ ग्लास जैसी ही थी। वह भी अंतिम साँसें ले रहा था। पानी भरे ग्लास के गिरते ही ध्वनी के साथ घड़ा टुकड़ों में बिखर गया।

घड़े के जितने टुकड़े हुये थे उससे कहीं ज्यादा हरिया का दिल के टुकड़ों मे बिखर गया। ध्वनी के साथ औरत और बच्चे जाग गये। उन्हें देखकर हरिया ठगा सा खड़ा रह गया। वे हरिया को देखकर भयभीत हो गये। चोर-चोर चिल्लाये। हरिया भाग खड़ा हुआ। वे और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे। उनका शोर सुनकर सारी गली जाग गयी। हरिया को भागते देख उसके पीछे कुछ लोग पड़ गये।

चौराहे पर कुछ दिन पूर्व एक हत्या हुयी थी। नगर पुलिस हत्यारे की तलाश में चप्पा- चप्पा छान रही थी। हत्या किसी विषिष्ट व्यक्ति की हुयी थी। हत्या को लेकर शहर में तरह-तरह की बातें हो रही थीं। शहर में हल्का सा तनाव भी था।

हरिया भागता हुआ सड़क को पार कर दूसरी गली में घुसा। उस समय पुलिस की नज़र हरिया पर पड़ी। नज़र पड़ते ही पुलिस सकते में आ गयी और इंस्पेक्टर ने हरिया का पीछा किया। पर हरिया को पकड़ने में सफल ना हो सका। इंस्पेक्टर ने दौड़ते हुये हरिया को रुकने की चेतावनी दी। पर हरिया कोई फ़र्क नहीं पड़ा वह बेतहाशा भागा जा रहा था। इंस्पेक्टर ने अपनी पिस्तौल निकाली और अंतिम बार हरिया को रुकने की चेतावनी दी। हरिया फिर भी ना रुका। इंस्पेक्टर ने पिस्तौल की ट्रिगर दबा दिया। पिस्तौल की गोली हरिया के सर के पीछे लगी और सर को चीरते हुये माथे से बाहर निकल गयी। हरिया के मुख से चीख की जगह,  “पानी......” निकला।

हरिया के मुख से निकले पानी नामक शब्द में इतनी गूँज थी,  मानो सारा शहर हिला गया हो। बस हरिया भूमी पर गिर पड़ा। अब भी हरिया प्यासा ही था।

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