नहीं मिला कहीं भी कुछ अगरचे दर-ब-दर गए

15-11-2020

नहीं मिला कहीं भी कुछ अगरचे दर-ब-दर गए

जाफ़र अब्बास (अंक: 169, नवम्बर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

नहीं मिला कहीं भी कुछ अगरचे दर-ब-दर गए 
तो हम भी थक के शाम को पलट के अपने घर गए 
 
पता नहीं चला कि कब गुज़र गई ये ज़िन्दगी 
यह रोज़-ओ-माह-ओ-साल सब कहाँ गए किधर गए 
 
अक़ीदतों की ज़द में आ के ज़हन कितने ही यहाँ 
सहम गए सिमट गए सिकुड़ गए ठिठुर गए 
अक़ीदत = श्रद्धा 
 
क़दम क़दम पे थे तज़ाद और उनके वसवसे 
न थी जो ख़ू-ए-दर-गुज़र सो आगही के सर गए 
तज़ाद   = विरोध;  वसवसे  = झक, सनक;  
ख़ू-ए-दर-गुज़र = क्षमा करने का स्वभाव  

 
है जुज़व-ए-ज़ीस्त ग़ैरीअत समझ में आ गया जिन्हें 
जुनून-ए-शौक़ में भी कब वो वस्ल से उधर गए 
जुज़व-ए-ज़ीस्त = ज़िन्दगी का हिस्सा  
 
थीं मंज़िलें बहुत यहाँ थे रास्ते भी बेशतर 
न दूर तक चले कभी ज़रा चले ठहर गए 
 
ठहर के सोचने की यह सरिश्त भी अजीब थी 
किसे ख़बर कि हम यहाँ पे दूर तक किधर गए 
सरिश्त  = स्वभाव, प्रकृति
 
न कुछ ख़बर थी जब हमें है नारसाई चीज़ क्या 
हमारे भी थे ख़्वाब कुछ न जाने कब वो मर गए 
नारसाई  = पहुँच से बाहर
 
ज़मीर से मुआमले कभी न हम से हो सके 
तभी तो हाल ये हुआ तभी तो यूँ बिखर गए
 
फ़सील-ए-शहर से परे जो रास्ते थे कुछ यहाँ 
कभी न जा सके वहाँ जो जा सके निखर गए
फ़सील-ए-शहर = नगर सीमा

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