नाटक अभी ज़ारी है
विवेक कुमार झामैंने देखा है
सड़कों पर एक्सीडेंट से तड़पते लोगों को
भीड़ का हिस्सा बनकर,
मैंने देखा है
कचड़े से भोजन ढूँढते बच्चों को
भूख से अपरिचित बनकर,
मैंने देखा है
बेरोज़गारी की मार से त्रस्त
बड़े-बड़े डिग्रीधारियों को,
सुरक्षित सरकारी सेवक बनकर,
मैंने सुना है
महिलाओं पर पुरुषों की
कामुक टिप्पणियों को
संवेदनशून्य पुरुष बनकर,
हम देखते रहे सुनते रहे
अपनी ही दुनिया के सुन्दर
सपने बुनते रहे,
उफनते रक्त ने कभी
नसों की दीवारों को नहीं तोड़ा
हमारी भीरुता ने कभी
हमारे होंठ हिलने न दिये,
और हम चिरसिंचित तथाकथित
सभ्यता के बोझ को
अपने कमज़ोर कंधों पर उठाये
सभ्य नायक बन नाटक खेल रहे हैं,
और हमारा नाटक अभी ज़ारी है।