नारी अस्मिताओं को तलाश करती "चूड़ी बाज़ार में लड़की"

10-03-2016

नारी अस्मिताओं को तलाश करती "चूड़ी बाज़ार में लड़की"

श्वेता रस्तोगी

पुस्तक: चूड़ी बाज़ार में लड़की 
लेखक: कृष्ण कुमार 
पृष्ठ: 148 
मूल्य: 300/- 
प्रथम संस्करण: 2014 
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन प्रा लि
1-बी नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिली - 110002

विचार एक दिन में नहीं बनते हैं, बल्कि वे उस मेघपुंज की तरह होते हैं जो धीरे–धीरे आसमान में एकत्रित होकर वर्षा करते हैं जिसका जल धरती के लिये अत्यावश्यक होता है। विचारधारा भी समाज की आवश्यकता एवं उसे सही दिशा दिखाने के रूप में अभिव्यक्त होती है। आलोचक या रचनाकार की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक गतिविधियों की अनुभवों की अभिव्यक्ति ही विचार कहलाता है। आज साहित्य में विचारधारा का महत्व और अधिक बढ़ गया है, चाहे सामाजिक विषमताओं का प्रश्न हो या फिर हाशिये पर पड़ी अस्मिताओं का संघर्ष। आज हर रचनाकार समय की ज़रूरत को महसूस करते हुए अपने विचारों के माध्यम से समाज को जागृत करने का प्रयास करता है। कृष्ण कुमार ऐसे ही एक लेखक हैं जिन्होंने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक "चूड़ी बाज़ार में लड़की" में समाज में व्याप्त स्त्री केंद्रित विवेचना एवं उससे जुड़ी समस्याओं को सामने रखा है।

कृष्ण कुमार ने चूड़ी बाज़ार में लड़की नामक विचारात्मक पुस्तक को पाँच अध्यायों में बाँटकर नारी जीवन से जुड़े विविध आयामों को दर्शाने का प्रयास किया है। खेल-कूद, पढ़ाई-लिखाई या सोशल एक्टिविटि विकास के हर क्षेत्र में स्त्रियों के साथ सामान्य स्थिति नहीं होती है, बचपन से ही उन्हें उपेक्षित स्थिति का बोध कराते हुए स्वतंत्र माहौल नहीं दिया जाता जिसकी वे अधिकारी हैं बल्कि उन्हें पितृसत्तात्मक सामंती ज़ंजीरों में जकड़ दिया जाता है। एक लड़की के पैदा होने के साथ-साथ यह नियम भी लागू कर दिया जाता है कि बचपन में उसे पिता, विवाह के बाद वह पति और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना पड़ता है यही उसकी नियति है। एक लड़की को बचपन से ही सामाजिक मर्यादा, नैतिक शिक्षा, घर के काम-काज, चूल्हा-चौका, इत्यादि इन सब बंधनों में बाँधकर घर की चारदीवारी के घुटन भरे माहौल में रहने के लिए प्रतिबद्ध किया जाता है। इस तरह उसका सम्पूर्ण जीवन बंधनयुक्त घेरे से घिरा रहता है। इस सम्बंध में सिमौन द बहुआ का कहना है- "स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बना दी जाती है।"1

स्त्री और पुरुष के परिवेश के प्रभाव का विश्लेषण करें तो परिवेश एक ही होता है पर उनका यथार्थ अलग-अलग होता है। स्त्री समानता की अधिकारी होते हुए भी उसे समानता की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। स्वयं कृष्ण कुमार का कहना है कि – "स्त्री और पुरुष अथवा लड़की या लड़का एक दूसरे से भिन्न हैं, किंतु समता के अधिकारी हैं।"2

आज भारत विकास की दौड़ में आगे तो ज़रूर बढ़ रहा है पर इतिहास की ओर देखें तो ऐसा लगता है जैसे भारत पीछे के ओर लौटकर अपनी नई अस्मिता और भौतिक समृद्धि के लिये सज्जा सामग्री तलाश कर रहा है। बाल-विवाह थोड़ा घट चला, पर उसमें निहित मानसिक दृष्टि कमज़ोर नहीं पड़ी है। अब वह फ़ैशन का पर्याय बन गया है। अब वह प्रथा नए साधनों से प्राप्त वैधता लेकर लौट रही है। मसलन टेलीविज़न पर बालिका वधू जैसे धारावाहिक स्त्री के जीवन चक्र को परम्परा में स्वीकृत विषमता के साँचे में नए गहनों, ससुराल के पितृसत्तात्मक नियमों को मनोरंजन के माध्यम की तरह परोस रहे हैं। इस तरह से बाल-विवाह जैसी परम्परा, जो अवैध है, उसे टी.वी., सीरियल में मनोरंजक शैली में पेश करके इन अवैध चीज़ों को बढ़ावा दिया जा रहा है।

"अंतर्जगत और चारों ओर" अध्याय में स्त्री की यौनिकता और प्रसाधन सम्बंधी सौदर्य के साधनों की आड़ में किस प्रकार पूँजीवादी सभ्यता और सामंतवादी व्यवस्था हावी होने का प्रयास कर रही है। इन चीज़ों का छलावा इस प्रकार बढ़ता जा रहा है कि स्त्री मुक्तिबंधन की क़ैद में जकड़ी जा रही है; जहाँ स्त्री, एक बंधन में भी मुक्ति की और मुक्ति में भी बंधन की आशंका से ग्रस्त रहे। त्याग शब्द अपने-आप में एक व्यापक शब्द है जो पुरुषों के लिये हेय है पर स्त्री के दैनिक रोज़मर्रा का हिस्सा। बचपन से ही उन्हें अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाना सिखाया जाता है। विवाह के बाद पत्नी होने का अर्थ ही है पति की इच्छाओं को सर्वोपरि मानकर चलना यानी समर्पण और त्याग की प्रतिमूर्ति बने रहना। समर्पण शब्द का स्त्री के संदर्भ में यह अर्थ है कि घर-परिवार की सेवा के लिए प्रतिक्षण तत्पर रहना, इसके अलावा अपनी देह को पुरुष के उपभोग के लिए प्रस्तुत करना। जीवन के हर पड़ाव से गुज़रते हुए नारी की सम्वेदनाओं और अस्मिताओं को केंद्र में लाने का प्रयास किया गया है। "समता का मिथक", "भिन्न्ता के ध्रुव", "अंतर्जगत और चारों ओर", "चूड़ी का चिह्नशास्त्र", "ताज की कक्षा", "अभिमन्यु की शिक्षा", इन सभी अध्यायों में अत्यंत सक्षम, सम्प्रेषणशील और आत्मीय भाषा में भारतीय स्त्री के जीवन की उन आरम्भिक रूढ़ियों का विवेचन किया है, जब वह समाज, शिक्षा, संस्कृति की गहरी निगरानी में स्त्री बनने की दिशा में अग्रसर हो रही होती है।

"समता का मिथक", "भिन्नता के ध्रुव अध्याय" में लेखक ने स्त्री पुरुष समानता के प्रश्नों को उठाया है। समान परिवेश में पैदा होने के बावजूद भी स्त्रियों और पुरुषों में भिन्नता या भेद-भाव पैदा कर हमारा समाज संकीर्ण मानसिकता को जन्म दे रहा है। लड़के और लड़कियाँ एक ही माहौल में जन्म ज़रूर लेते हैं‌ पर उनकी परवरिश एक जैसी नहीं होती है। बचपन से ही लड़कों को अपनी प्रतिभा दिखाने का स्वतंत्र और समान अवसर दिया जाता है। स्त्री को, जन्म लेने के बाद माता-पिता उसे विरासत के रूप में पालते हैं‌, जैसे–जैसे वो बड़ी होती जाती है, उसे नैतिक और सांस्कृतिक शिक्षा माता-पिता द्वारा दी जाती है। इसके अलावा उसे अपनी शारीरिक बनावट के प्रति भी सदैव सजग रहना पड़ता है। उसे हमेशा अपने दैहिक आकर्षण के प्रति डर बना रहता है, चाहे त्वचा के रंग का सवाल हो, चेतना के स्तर पर अंग विभाजन किसी भी प्रकार की दैहिक विकृति से सम्बंधित हो। ताकि विवाह के पश्चात कोई उसमें ऐब ना ढूँढ़ सके, इस तरह से उसे अपने आप को सँभाल के रखना है, उसमें कहीं कोई विकार ना आने पाए। इस क्रम में ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे लड़की दूकान में पड़ी ऐसी वस्तु हो, जिसे दुकान के मालिक को ख़रीददार के आने तक सँभाल कर रखना है। इस सम्बंध में प्रभा खेतान का कहना है- "पितृसतात्मक समाज व्यवस्था पर आधारित पुरुष प्रधान संस्थाओं और आर्थिक सामाजिक जगत में उनके वर्चस्व के कारण स्त्री अधीनस्थ स्थिति में रहने को बाध्य है। सत्ता की भाषा और संस्कृति के पुरुष प्रधान होने से पुरुष के यौन अनुभवों को ही प्रधान माना गया है। ऐसी सत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री का अपनी यौंनिकता के प्रति वस्तुपरक दृष्टिकोण होना स्वाभाविक है। चूँकि संस्कृति उसे एक "चीज़" मानती है अत: वह ख़ुद भी अपनी देह को वस्तु में ही आँकती है उसे सजाती-सँवारती है। यहाँ तक कि वह बचपन से वृद्धावस्था तक वह दूसरों की नज़र से ही स्वयं को तोलने की इतनी आदी हो जाती है कि देह ही उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है।"3

"चूड़ी का चिह्नशास्त्र" नामक अध्याय में कृष्ण कुमार ने बताना चाहा है कि गहने जो स्त्री की शोभा को बढ़ाते हैं‌ पर उनका एक और पहलू यह भी है कि गहनों के माध्यम से सामंती बेड़ियों में स्त्रियों के जकड़न को दर्शाता है। हर गहने का अपना-अपना प्रतीक है। "चूड़ी कलाई में पहनी जाती है जो कलाई की शोभा में वृद्धि करती है, वह काँच की बनी होकर स्वयं नाज़ुक होकर औरत के अस्तित्व को नाज़ुक बनाने वाले विराट सामाजिक कार्यक्रम से इस क़दर जुड़ जाती है कि इस कार्यक्रम को अंजाम देने वाले एक हथियार के रूप में; हम उसे नहीं देख पाते।"4 वह अपनी प्रतीक भूमिका के पीछे छिप जाती है। इसके अलावा कान और नाक, पैर में पहनने वाले गहने इत्यादि इसी सामंती मानसिकता के पोषक हैं जो स्त्री को उसके सौंदर्य सामग्री का भुलावा देकर अपने लिए एक "सेफ सिचुएशन" पैदा कर रहे हैं। इस तरह से ये सारी पीड़ा चूड़ी की चमक और खनक में खो सी जाती है।

"ताज की कक्षा" शीर्षक लेख में लेखक ने आगरा भ्रमण के दौरान कुछ रोचक जानकारियों को रेखांकित किया है। आगरा भ्रमण का मुख्य उद्देश्य ताजमहल के सौंदर्य का अवलोकन है। ताजमहल के इस विशाल सौंदर्य को देखते हुए लेखक के मन में विचार आता है कि ताजमहल इतना विशाल है, किंतु इसकी सुंदरता देखने की चीज़ भर है, उपयोग की नहीं । फिरोज़ाबाद मुख्यत: चूड़ी के क्रय-विक्रय का केंद्र है यानी चूड़ी उद्योग का केंद्र । देश-भर में कई लोगों को रहने के लिये घर नहीं है और यह ताज़महल इतना विशाल होते हुए भी बेघर लोगों को पनाह नहीं दे सकता। आगरा के साथ लेखक ने फिरोज़ाबाद के भी दौरे का वर्णन किया है। इस चूड़ी उद्योग में कई ग़रीब लड़कियाँ शामिल हैं जिन्हें अंधेरे कमरे में चूड़ी के दो किनारे मोमबत्ती की लौ में रखकर जोड़ने के लिए हज़ार चूड़ियों पर बीस रुपए मिलते हैं। इस तरह कई ग़रीब बच्चे चूड़ी उद्योग में किस प्रकार संलग्न हैं; इसे दिखाया गया है। जिस उम्र में बच्चों को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए उस उम्र में उन्हें पेट भरने के लिए श्रम करना पड़ता है। इस तरह व्यवस्था के तहत बच्चे ग़रीबी की मार झेलते हुए चूड़ी उद्योग में संलग्न हैं। ग़रीबी की मर्मांतक पीड़ा उनके अंतर्मन में इस तरह व्याप्त है जिसे हम लेखक द्वारा एक ग़रीब बच्ची के संवाद में देख सकते हैं- "मैंने पूछा अगर तुम्हे कहीं अल्लाह मिलें तो तुम उनसे क्या जानना चाहोगी? उस बच्ची ने मेरी ओर देखते हुए कहा मैं पूछूँगी कि आपने मुझे इतनी ग़रीबी में क्यों पैदा किया इतना कहते-कहते उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे।"5 इस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था का अत्यंत त्रासद रूप दिखलाई पड़ता है।

"अभिमन्यु की शिक्षा" शीर्षक लेख में कृष्ण कुमार ने अपने जीवन से संघर्ष करती बच्चियों और बड़ी होती लड़की के समस्याओं पर ज़ोर दिया है। बचपन में लड़की को स्कूल में दाख़िला दिलाने के साथ-साथ परिवार की भी ज़िम्मेदारी सँभालनी पड़ती है। उनका पूरा जीवन क्रम संघर्षों से भरा रहता है। बड़ी होती लड़की के लिए उसके हाव-भाव, चरित्र और सामाजिक क्रियाकलापों पर नज़र रखी जाती है। जैसे कि नज़रें ऊपर उठा कर चलना, शरीर को सही अर्थों में फैला पाना, बिना भय के बोल पाना, खेल पाना और किसी बाल्योचित धुन में रमे रहना जैसे सारे लक्षणों पर नज़र रखी जाती हैं। इस तरह से उनके उन्मुक्त जीवन पर सामंती संस्कृति ने अपनी निगाह रखकर कब्ज़ा जमा लिया है। अब आवश्यक है कि स्त्रियाँ स्वयं अ‍पने अधिकारों के प्रति सचेत हों और अभिमन्यु की तरह सामंती संस्कृति के चक्रव्यूह को तोड़ते हुए आगे बढ़ें।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कृष्ण कुमार ने अपनी पुस्तक "चूड़ी बाज़ार में लड़की" के माध्यम से समाज की प्रतिकूल परिस्थिति में बड़ी होती लड़की के संघर्षों को दिखाया है। बड़े होने के दौर में शिक्षा प्राप्त करने के साथ-साथ सामाजिक वर्जनाओं का सामना करना, लोगों की तीखी नज़रों को सहना, कटु बातों को बर्दाश्त करना इत्यादि भी शामिल है। सामंती जर्जर मान्यताओं के साथ एडजस्ट करती लड़की की एक नई छवि को दिखाया गया है। नारी के अस्तित्व उसकी अस्मिता को एक मानवीय इकाई के रूप में प्रतिष्ठित किए जाने पर ज़ोर दिया गया है। नारी की इसी बदलती छवि और सामंती बंधन को तोड़ने के मुक्ति संघर्ष को दिखाया गया है।

संदर्भ सूची :-

1. खेतान प्रभा, स्त्री उपेक्षिता, दूसरा संस्करण 1991, सरस्वती बिहार, दिल्ली-100014, पृष्ठ संख्या - 1
2. कुमार कृष्ण, चूड़ी बाज़ार में लड़की, पहला संस्करण - 2014, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या – 18
3. खेतान प्रभा, उपनिवेश में स्त्री: मुक्ति कामना की दस वर्ताएँ , पहला संस्करण - 2003, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., पृष्ठ संख्या – 120
4. कुमार कृष्ण, चूड़ी बाज़ार में लड़की, पहला संस्करण - 2014, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या –91
5. वही, पृष्ठ संख्या- 118

श्वेता रस्तोगी
शोध छात्रा ( कलकत्ता विश्वविद्यालय)
अतिथि प्रवक्ता (आचार्य जगदीश चंद्र बोस कालेज)
सम्पर्क- 8013281659

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