मृत्युबोध

01-05-2015

मृत्युबोध

सुकेश साहनी

तेज़ बुखार के कारण बेहोशी की-सी हालत में बूढ़ी सुमित्रा को लगा जैसे कमरे की एक-एक आवाज़ को सिर्फ़ अपने कान से नहीं पूरी देह से सुन रही है-

"बड़े भइया की अकल पर तो पत्थर पड़ गए हैं!" छुटके की चिड़चिड़ाती आवाज़, "आख़िर इतनी जल्दी हमें तार देने की क्या ज़रूरत थी? फिर हमने यहाँ आकर भी क्या कर लिया!"

"माल रोड वाली सड़क का वर्क आर्डर मुझे ही करना था। अब वह काम शर्मा साले ने घसीट लिया होगा। बैठे-बिठाए लाखों का नुक़सान हो गया!" मँझले का स्वर।

"मैं तो इनसे पहले ही कह रही थी- दूसरा टेलीग्राम आ जाने दो, इस उम्र में प्राण इतनी आसानी से थोड़े ही निकलते हैं। पर अपने आगे ये किसी की सुनते थोड़े ही हैं। अब चार दिन से यहाँ बैठकर मक्खियाँ मार रहे हैं," मँझली बहू की तुनकती आवाज़।

"तुम लोग तो चार दिन में ही परेशान हो गए और हमें देखो। जिनके साथ ये रोज़ का रोना लगा हुआ है...," बड़ी बहू का परेशान स्वर।

उन्हें लगा जैसे किसी ने उन्हें गहरे पानी में डुबो दिया है। डुबकी के कारण कमरे की आवाज़ें भी बहुत दूर से आती मालूम दे रही हैं। जीवन के विभिन्न अच्छे-बुरे पल उनकी आँखों के सामने से गुज़रने लगते हैं- कुछ बिजली की-सी तेज़ी से फड़फड़ाते हुए कुछ सिनेस्लाइड की तरह रुक-रुककर... बचपन के दिन, अपनी शादी, बच्चों का जन्म, उनकी पढ़ाई, शादियाँ, बँटवारा, पति की मृत्यु, अकेलापन और अब। क्या बुढ़ापे में बीमारी का एक ही मतलब होता है? अब ज़रा-सा बुखार होता है तो ये लोग चौकन्ने हो जाते हैं। तेज़ बुखार में सोचते हुए उनकी साँस उखड़ जाती है और उनके मुँह से चीखती साँस की आवाज़ें निकलने लगती हैं...
बूढ़ी सुमित्रा का मन वापस कमरे में लौट आता है। कमरे में हड़कम्प मचा हुआ है-

"गईं! ...गईं!" एक स्वर।

"डॉक्टर को बुलाइए... जल्दी!"

"अब डाक्टर क्या करेगा आकर! बड़े भइया को ख़बर करो...," छुटके का झुँझलाहट भरा स्वर।
"अरे पहले ज़मीन पर तो लिटाओ " मँझली बहू का उत्तेजित स्वर।

"अरी, पूजा वाले आले से गंगा जल तो लाना," बड़ी बहू का आदेश।

अपनी सोच पर क़ाबू पाते ही उनकी साँस सामान्य हो जाती है और वे धीरे-धीरे आँखें खोल देती हैं। उन्हें आँखें खोलते देख कमरे में सन्नाटा छा जाता है। उसकी नज़र अपने चारों ओर मूर्तिवत् खड़ी बहुओं पर फिसलने लगती है। जिन बच्चों को जन्म दिया, पाला पोसा ...उनके मन की बात समझने में उन्हें तनिक भी देर नहीं लगती है। उनकी तबीयत के एकाएक फिर सुधर जाने की वज़ह से बेटों की घोर निराशा और बहुओं की खीझ उनसे और अधिक नहीं देखी जाती और वे फिर आँखें बन्द कर लेती हैं। दोनों आँखों की कोरों से आँसू ढुलककर झुर्रियों की गलियों में बहने लगते हैं।
 -0-

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें