मित्र, अ-मित्र और अजातशत्रु

01-02-2021

मित्र, अ-मित्र और अजातशत्रु

डॉ. रजनीकान्त शाह (अंक: 174, फरवरी प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

लेखक: पद्मश्री डॉ.विष्णु पंडया
अनुवादक: रजनीकान्त एस.शाह 

श्रीकृष्ण चक्रधर और बंसीधर: उसमें इस बंसी के स्वर ने मैत्री की महाकविता की रचना कर दी है। कभी यमुना जल में, कहीं यमुना स्तोत्र में, वृन्दावन-गोकुल-मथुरा में कान धरोगे तो `मित्र दिवस’ का फलक मिल जाएगा!

मैत्री का क्या कहीं एक ही दिन होता होगा भला? वह तो सनातन उपहार है। जिसे आ जाए वह भोगेगा और जिसे पसंद न हो, वह वंचित रहेगा। पर किसी सयाने आदमी ने महसूस किया होगा कि इतने बड़े झंझट में इंसान को अपने मिज़ाज का भान कराये ऐसे दिनों के रुपहले पिंजड़े लगाये जाने चाहिए। इसी प्रकार ये सारे `दिन’ आए हैं, इनमें आज `मैत्रीपुराण’ की बारी है। एक बात तो सच है, कि मैत्री की परिभाषा सारे सम्बन्धों से अलग–अनोखी है। वेदोक्त वाणी में कहीं `मित्रस्य चक्षुषा’ वाक्य आता है। विष्णुसहस्त्रनाम स्तोत्र में मैत्री और अ-जातशत्रु दोनों ही उपस्थित हैं।

रामायण के राम अ-जातशत्रु हैं। हनुमान को एकबार `मित्र’ का सम्बोधन मिला होगा? मोरारिबापू को पूछना पड़े। राम के कोई शत्रु नहीं थे। हर एक अवतार कार्य का सम्बंध परम मैत्री से है। शत्रुता के लिए नहीं। रावण का उन्होंने बेशक वध किया पर क्या उनका अंतिम स्तोत्र सुना है? ’आदित्यस्तोत्र’ उस रूप में नया आकाश खोल देता है। राम को रावण के साथ कोई शत्रुता नहीं थी।

श्रीकृष्ण तो उससे भी आगे बढ़ते हैं। कौरव प्रिय नहीं हैं लेकिन कौरव सभा में सभी आचार्य उनकी वंदना करते हैं। दुश्मन की छावनी में बाणशैया पर लेटे भीष्म का पर्व कितना उदात्त है? श्रीकृष्ण चक्रधर और बंसीधर: उसमें इस बंसी के स्वर ने मैत्री की महाकविता की रचना कर दी है। कभी यमुना जल में, कहीं यमुना स्तोत्र में, वृन्दावन-गोकुल-मथुरा में कान धरोगे तो `मित्र दिवस’ का फलक मिल जाएगा! इस केनवस पर अनेकविध रंग हैं! वे राधा को प्रिय हैं। गोपीजनवल्लभ हैं, कुब्जा भी उन्हें चाहती है और सुदूर पूर्वोत्तर में बसी रुक्मिणी ने तो पत्र भी लिखा था: विश्व का वह प्राचीन और सुंदर प्रणय-पत्र है। सौराष्ट्र में आज भी एक गीत सुनने को मिलता है, `ओधाजी, मारा वहालाने वढ़ीने के`जो...’ ने पछी `माने तो मनावी लेजो, जी...(ओधवजी, मेरे प्रिय को डाँटते हुए कहना . . . और फिर यदि मान जाएँ तो मना भी लेना जी . . .) मैत्री का इससे मधुर चित्र और क्या हो सकता है? जहाँ सख्य है वहाँ फ़रियाद रहेगी, रूठौवल-मनौवल भी रहेगा। कृष्ण को `मना लिया जाएगा’– यह तो मात्र गोपियों की मैत्री में ही आये! इतना होते हुए भी कहीं कुछ अधूरापन लगा होगा इसलिए महाभारतकार ने द्रौपदी के पात्र का सृजन किया होगा। इस तेजस्विनी को दुर्योधन सभा में पाँच पति और आचार्यों के आह्वान के बाद प्राप्त निष्फलता के बाद ही वह मित्रवर्य श्रीकृष्ण को याद करती हैं।

सुख्यात विदुषी निबंधकार दुर्गा भागवत के एक निबंध में उसका सरस निरूपण है। वे कहती हैं, `... और हे कृष्ण ! तुम भी मेरे सखा नहीं हो!’ 

सख्य, सखी, सखा, प्रिया.... इन शब्दों में कोई अंतर नहीं है। मनोविज्ञान कहता है, कि हर एक प्रिय और प्रियतम में एक प्रिय, एक पिता, एक पुत्र अथवा एक प्रिया, एक माता, एक पुत्री का भी अहसास हो ऐसा मैत्री का शिखर है।

विवाह विच्छेद और मोहभंग के इस युग में ऐसे मैत्री-पुष्प का पनपना मुश्किल है। वैसे भी `सम्पूर्ण मैत्री’ अत्यंत दुरूह है। जो है वह उपयोग और आश्वासन की माया है। आवश्यकतानुसार हमारे सम्बंध बनते हैं। लहू का रिश्ता भी अब अपना अर्थ खो बैठा हो उतने सारे जायदाद के अधिकार प्राप्ति के मुक़दमे, मारामार और अनबनवश निःसंवादावस्था के क़िस्से बढ़ते जाते हैं। इनके बीच जहाँ दोस्ती का हल्का सा अंदाज़ भी मिल जाए तो धन्य हो जाएँ! अन्यथा गाना पड़े: `राम भरत के देश में, झगड़े भाई भाई!’ उपयोगिता का पहाड़ बहुत ऊँचा है। हमारी दोस्ती में बचपन में, कॉलेजों में, और फिर व्यवसाय में कवचित ही एक-दूसरे का सहयोग मिलता है, पर याद रखें, उसे परम मैत्री कहोगे तो वह खड़खड़ हँसेगी।

इसमें अ-जातशत्रु होना संभव नहीं है। तो फिर ये महापुरुष? उनके चित्त में सम्पूर्ण मैत्रीभावना ही होगी? क्या मालूम! सामान्य मनुष्य के लिए तो वह असामान्य है। प्रत्येक क्षेत्र में सख्य है, जिस प्रकार दोस्ती है, उसी प्रकार दुश्मनी भी है। सख्य है कृष्ण सुदामा का तो सोराब-रुस्तमी भी है। भले ही दो अक्षरों का सम्बोधन हो। मित्र, मैत्री और मैत्रेयी। याज्ञवल्क्य को इस मैत्रेयी ने ही कहा था ना कि मुझे हाथी-घोड़ा-अलंकार-संपत्ति, किसी की भी चाह नहीं है। देना ही हो तो ऋषिवर, अमृतत्व की पहचान दो। पति-पत्नी उनके वैवाहिक जीवन की पच्चीसवीं या पचासवीं वर्षगांठ मनाते हैं फिर भी अंतिम कसौटी तो यही रहती है कि क्या पति उसमें मैत्रेयी के दर्शन कर सकेगा? और पत्नी उसका `मैत्रेयीत्व’ सार्थक कर सकेगी? मात्र दाम्पत्य ही क्यों? उसके बाहर भी यदि मित्र हुए हों तो इस कसौटी पर अवश्य ग़ौर करना।

इतिहास के पन्ने पर मैत्री दिवस मनाया नहीं हो ऐसे अ-पार प्रसंग हैं, जहाँ मैत्री की लिपि आलोकित हुई हो। कई बार ऐसी उत्सुकता का अनुभव होता है कि ये नर्मद-दलपतराम साहित्य में भले ही प्रतिस्पर्धी रहे हों, वास्तविक जीवन में क्या सोचते होंगे? जनाब जिन्नाह और गाँधीजी, अंबेडकर और गांधी, डॉ. लोहिया और जवाहरलाल... इन सबको ऐसी कसौटी पर परखने का विषय रसप्रद हो सकता है। हमारे पारसी सांसद पीलु मोदी ने पुस्तक लिखी थी: `ज़ुल्फ़ी माय फ्रेंड’। स्टेलिन की पुत्री स्वेतलाना की भी `मित्र को पत्र’ नामक ऐतिहासिक पुस्तक है। सुभाषचन्द्र बोस – जवाहरलाल नेहरु की तो दोस्ती की जुगलजोड़ी थी। दुर्भाग्य से त्रिपुरी महासभा के बाद दोनों के रास्ते अलग हुए। सुभाष द्वारा नेहरु को लिखित पत्र में दुःख और ग़ुस्सा दोनों ही झलकते हैं। सुभाष तो युद्धकथा के नायक थे। उनकी मित्र एमिली शेंकल तो बाद में उनकी पत्नी हुईं। उनके पत्र उस युद्ध के दौरान पनपी प्रणयकथा का सुंदर अंदाज़ देते हैं।

लहू के सम्बंधों से अलग पगडंडी पर यह सफ़र है और रहस्यमयी भी है। हमारी रोज़ाना मस्ती में मैत्री का अनुराग तो रहेगा ही और होना भी चाहिए। मित्र होना और अ-मित्र बनना, दो वास्तविकताओं के झूले पर झूलते रहो।

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