मेरी कानपुर यात्रा

24-08-2007

मेरी कानपुर यात्रा

गुरुदास मिश्र

दो रातों से अच्छी तरह सो नहीं पाया हूँ और आज सुबह सुबह ही उठना पड़ रहा है। क्या  करूँ, कानपुर जाना है। अपनी कार ड़ेन्टिन्ग के लिये दे रखी है, उसे लाना है। मेरा मित्र जो कल ही कानपुर चला गया था, कार ले कर गेस्ट हाउस में मेरा इन्तज़ार कर रहा है। उसकी दो बजे की शिफ़्ट है। इसलिये जाना ही होगा।

तैयार हो कर बड़े ही क्लान्त मन से स्टेशन पहुँचता हूँ। पैसेन्जर से कानपुर काफ़ी समय से नहीं गया हूँ, इसलिये थोड़ी बेचैनी भी है। पता नहीं सीट मिलेगी भी कि नहीं। ट्रेन सवा आठ बजे आयेगी और अभी पौने आठ ही बजे हैं। समय बिताने के लिये एक दैनिक जागरण खरीदता हूँ। पढ़ कर मन और क्लान्त हो जाता है। हर पन्ने पर निराशाजनक खबरें ही हैं --- गोरेगाँव में बम फूट गये हैं, इराक़ में ५० और लोग मारे गये हैं, भारत विश्व कप हॉकी में फ़िर से हार गया है। समाचार से घबरा कर विशलेषण की तरफ़ बढ़ता हूँ। सम्पादकीय पृष्ठ पर जो सबसे बड़ी रचना है,  वह भारत की तुलना विकसित देशों से करते हुए बता रही है कि हम कितने पिछड़े, निरक्षर, दरिद्र व असभ्य हैं।

क्षुब्ध  हो कर अखबार बन्द कर देता हूँ। मायूस मन से अपने चारों ओर एक नज़र डालता हूँ। ट्रेन के आने की सूचना हो चुकी है। सीट लूटने के लिये लोग कमर कस चुके हैं। दो व्यक्ति सामने वाले प्लेटफ़ार्म से इधर चले आ रहे हैं—पटरियों से ही। अखबार की बात याद आ जाती है और अचानक मैं अपने आप को पिछड़ेपन और दरिद्रता से घिरा हुआ पाता हूँ।

ट्रेन की आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटती है और मैं अपने आपको एक थोड़े कम ठसाठस भरे डिब्बे के पीछे भागता हुआ पाता हूँ। ट्रेन के रुकने के पहले ही लोग भागते हुए चढ़ने लगते हैं। हे भगवान! कोई ट्रेन के नीचे न आ जाए। जैसे ही ट्रेन रुकती है, एक साथ ही चढ़ने और उतरने का क्रम शुरु हो जाता है। असभ्यता, पिछड़ापन, निरक्षरता; अब ये शब्द नहीं रह जाते। मैं इन्हें मानों साकार देख रहा हूँ।

जैसे तैसे, सबसे पीछे, मैं चढ़ता हूँ। सारी सीटें भर चुकीं हैं; अब खड़े ही रहना पड़ेगा। सीट पर बैठे “असभ्य व पिछड़े” लोगों से मुझे ईर्ष्या सी होने लगती है। लेकिन पिछड़े और असभ्य लोगों से ईर्ष्या की तर्कसंगत विवेचना मुझे शर्मिन्दा कर देती है ।

तभी मेरी नज़र किनारे की सीट पर बैठे एक सज्जन पर पड़ती है, जो मन्द –मन्द  मुस्कुराते हुए मेरी ही ओर देख रहे हैं। “किसी को खड़े देख कर ही सीट का महत्व समझ में आता है” –मैंने अपनी नज़रें फेर ली हैं। लेकिन जैसे अब तक मेरे मन में उठ रहे हर भाव को उन्होंने पढ़ लिया हो। “भाई साहब! हाँ, हाँ, आप ही। इधर आ जाइये। यहाँ एक आदमी और तो आराम से बैठ ही सकता है।“ तीन लोगों की सीट पर चार तो पहले से ही बैठे हैं, मैं कहाँ बैठूँ। लेकिन थोड़ी कश्मकश के बाद मैं बैठ गया हूँ। “जगह की थोड़ी कमी है”, मैं झेंपते हुए कहता हूँ। “जगह तो भाई साहब दिल में होनी चाहिए।“  मैं और झेंप जाता हूँ।

अपनी सीट पर दूसरों को बिठाने की सभ्यता मैंने आखिरी बार कब दिखाई थी मुझे याद नहीं आ रहा। और मैं यक़ीनन खुद को सभ्य समझता रहा हूँ। प्लेटफ़ार्म की निराशा  शर्मिन्दगी  में तब्दील हो चुकी है। ट्रेन झटके के साथ रुकती है और मैं खयालों से बाहर आता हूँ। झींझक आ गया है। मेरी सीट से एक आदमी उतर जाता है। कई खड़े लोग भी उतर जाते हैं। मैं जगह देख कर खिड़की की तरफ़ सरक लेता हूँ। खिड़की से बाहर प्लेटफ़ार्म पर एक काफ़ी कम उम्र की माँ अपने बच्चे को दूध पिला रही है। दूरदर्शन पर दिखाया जाने वाला स्तनपान का विज्ञापन याद आता है। शायद इस माँ ने कभी ना देखा हो; शायद इसे जरूरत ही नहीं है। विज्ञापन तो पढ़े-लिखे सभ्य लोगों के लिये होते हैं। स्तनपान यूँ तो स्वाभाविक है, लेकिन स्वाभाविकता का ह्रास भी तो सभ्यता का एक स्वाभाविक परिणाम है।

मेरा दृष्टिकोण बदल रहा है और अब मैं थोड़ा सहज महसूस कर रहा हूँ। गाड़ी चल पड़ती है और अचानक बहुत से लोग चढ़ जाते हैं। अब पता चलता है कि लोग कम नहीं हुए थे, बल्कि प्लेटफ़ार्म पर उतर कर खड़े थे। कुछ विद्यार्थी भी चढ़े हैं। एक विद्यार्थी  मेरी तरफ़ आता है और मैं उसे अपने बगल में बिठा लेता हूँ। मुझे लगता है कि जैसे मैंने एक अच्छा काम किया है और मुझे कुछ बेहतर महसूस होता है। लेकिन अगले ही क्षण ये भान होता है कि ये मेरा अहं बोल रहा है। मैंने उसे निर्विकार भाव से नहीं बिठाया। मैं तो उस पर उपकार कर रहा था। ये यात्रा मेरी  कई मानसिक विकृतियों को उजागर करेगी।

 “भाई साहब! थोड़ा पैर सटा कर बैठियेगा, तभी तो जगह बनेगी”,  एक तीखी आवाज़ से मेरा ध्यान सामने की सीट पर जाता है। मेरी बगल में बैठे विद्यार्थी का साथी सामने बैठे सज्जन से झगड़ रहा है। “जगह तो दिल में होनी  चाहिये”,  ये बात मेरे जहन में गूँजती है। लेकिन पाँचों उँगलियाँ  बराबर नहीं होतीं। ये व्यक्ति पढा – लिखा और सभ्य मालूम पड़ता है। इतनी आसानी से कहाँ मानेगा। खैर, थोड़ी हील हुज्जत के बाद जगह बन जाती है, लेकिन थोड़ी कटुता भी छोड़ जाती है। सभ्यता और साक्षरता के मायने बदल रहे हैं। क्या समाज और राष्ट्र के विकास के साथ मनुष्य स्वार्थी और कठोर होता चला जाएगा? शायद अब मैं सभ्य कहे जाने पर सामने वाले की नीयत पर शक करने लगूँगा।

ट्रेन रुकती रुकाती रूरा पहुँच चुकी है, जो कि कानपुर तक के रास्ते  का सब से बड़ा स्टेशन है। रुकते ही ट्रेन पर दूधियों का आक्रमण हो गया है। खोए की टोकरियों को सिर पर लादे चारों ओर दूधिये ही दूधिये नज़र आ रहे हैं। दस – बीस हमारे डिब्बे में भी चढ़ गए हैं। मैं सिर घुमाता हूँ, तो हर सीट पर पर पाँच-पाँच आदमी नज़र आ रहे हैं। फ़िर ये कहाँ घुसेंगे? लेकिन देखते ही देखते सारे अपनी-अपनी टोकरियाँ रैक पर चढ़ा कर हम सब की पीठ टिकाने वाली पाईप पर चढ़ कर बैठ जाते हैं। इस अप्रत्याशित घटना से मेरे सामने वाले सज्जन स्तब्ध हैं। मैं अब तक कुछ अभ्यस्त हो चला हूँ। स्वाभाविक रूप से तो नहीं, किन्तु कुछ-कुछ इन सज्जन की असहजता के कारण। ये जैसे मुझे आईना दिखा रहे हैं। ये वो सब कुछ हैं, जो मैं होना तो नहीं चाहता, पर हूँ।

डिब्बा अब पूरी तरह से भर चला है। तिल भर की भी जगह नहीं बची है। गाड़ी एक ब्लाक हट पर रुकती है। कुछ औरतें चढ़ती हैं। रास्ता अपने आप बन जाता है। जगह अपने आप मिल जाती है। दो – तीन औरतें फ़िर भी खड़ी हैँ। बिल्कुल निश्चिन्त भाव से। इन्हें देख कर मुझे दिल्ली की बसें याद आजाती हैं। महिलाएँ कितना असुरक्षित महसूस करती हैं। वो बसें तो सभ्य समाज की हैं। आधुनिक लोग ही उस पर चढ़ते हैं। यहाँ ये औरतें कितनी सहजता से खड़ी हैं। कोई असुरक्षा नहीं, कोई भय नहीं। क्या सभ्यता अपने साथ असुरक्षा भी लाती है?

ट्रेन फ़िर से रुक गई है। जो विद्यार्थी सामने वाले “सज्जन” से लड़ रहा था, वह गुट्का थूकने के लिये उठा है। कोई पूछ रहा है कि कौन सा स्टेशन है। आखिरी डिब्बा होने की वजह से पता नहीं चल रहा है। गुटका थूकने के बाद भी वह काफ़ी देर तक खिड़की के बाहर घूरता रहता है, लेकिन स्टेशन का नाम फ़िर भी पता नहीं चलता है। तभी अचानक डिब्बा ठहाकों से गूँज उठता है। चौंक कर वह खिड़की से सर घुमाता है, तो पता चलता है कि सब उसीपर हँस रहे हैं। उसी स्टेशन पर चढ़ी एक महिला उसकी जगह पर बैठी हुई है। उसके तेज स्वभाव  से अब तक मैं परिचित हो चुका हूँ। एक और झगड़े की आशंका से मैं थोड़ा सीधा हो जाता हूँ। किन्तु आश्चर्यजनक रूप से वह एक शब्द भी नहीं बोलता। ऐसे उद्दन्ड बालक के दिल में नारी का ये मान? लेकिन, शायद ये आचरण सामाजिक मर्यादा के कारण भी है। लोग अभी भी हँस रहे हैं। झेंपता हुआ वह भी हँसी में शामिल हो जाता है। लोग सलाह दे रहे हैं कि स्टेशन पर अपनी सीट कभी नहीं छोड़नी चाहिए। सामने वाले सज्जन भी दिल खोल कर ठहाके ले रहे हैं।

ट्रेन चल पड़ती है और ठहाके धीमे पड़ने लगते हैं। तभी एक विचित्र घटना घटित होती है। विचित्र इसलिये, क्योंकि मैं खयालों में भी ऐसा नहीं सोच सकता हूँ। खास तौर से जो तू-तू मैं-मैं इस विद्यार्थी और इन सज्जन के बीच अभी घन्टे भर पहले हुई थी, उसके बाद तो बिल्कुल ही नहीं। लेकिन शायद आज कुछ भी मेरी सोच के अनुरूप नहीं हो रहा है। “कोई बात नहीं, होता है। आओ मेरी गोद में बैठ जाओ।“ और हाथ खीँच कर उसे अपनी गोद में बिठा लेते हैं। पल भर में दोनों  का मनोमालिन्य दूर हो जाता है। झिझकता हुआ वह उनकी गोद में बैठ जाता है। अब उन्हें वाकई “सज्जन” कहने की इच्छा हो रही है।

लेकिन अब तक मैं विभ्रमित हो चुका हूँ। अब “सज्जन” और “सभ्य" जैसे शब्द परिभाषित करने की मेरी क्षमता नहीं रही। कानपुर सेन्ट्रल आ गया है। लोग पहले से ही उतरने को खड़े हो रहे हैं, लेकि अब ये गँवारपन नहीं लग रहा है। मैं खुद भी खड़ा हो चुका हूँ। विचारों का मानों  झंझावात सा चल हा है। क्या होती है सभ्यता ? क्या है प्रगति और विकास? इनके उत्तर मेरे पास नहीं हैं। किन्तु इतना स्पष्ट हो  गया है कि सभ्यता सम्पन्नता का पर्यायवाची तो कतई नहीं है। और यह भी कि सभ्यता और विकास परिभाषित होंगे देश, काल और पात्र के अनुरूप। कोई एक सार्वभौम सभ्यता नहीं हो सकती, जो सब पर थोप दी जाए।

ट्रेन रुक चुकी है। मैं प्लेटफ़ार्म पर उतरता हुआ सोच रहा हूँ कि अगर अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपने देश को जानना है, अगर अपने आप को जानना है तो ट्रेन की यात्रा अवश्य करनी चाहिये। भारत अब गाँवों  के साथ – साथ ट्रेनों में भी बसता है।

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