मानव प्रजाति की खोज में...

15-02-2014

मानव प्रजाति की खोज में...

चंद्र मौलेश्वर प्रसाद

फरवरी के लिए विशेष

अमेरिका के टेक्सास ग्रंथालय के ऊपरी शेल्फ पर एक हरी जिल्द की पुस्तक रखी है जो डेढ़ सौ वर्ष पूर्व लिखी गई थी। लिखने वाले को भी पता नहीं था कि यह पुस्तक एक दिन विज्ञान की दुनिया में धूम मचाएगी। इस पुस्तक का नाम है - ‘ऑन द ऑरिजन ऑफ स्पीशीज़’ और उसके रचयिता थे चार्ल्स राबर्ट डार्विन [१८०८-८२]। दो सौ वर्ष बाद भी डार्विन का नाम विज्ञान के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा हुआ है और उनकी यह हरी जिल्द की पुस्तक आज भी वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन कर रही है।

१२ फरवरी १८०९ ई. को जन्मे चार्ल्स डार्विन अपने पिता डॉ. राबर्ट डार्विन तथा माता सुसान्ह डार्विन की पाँचवीं संतान थे। बचपन से ही चार्ल्स का मन पढा़ई में नहीं लगता था। एक और प्रसिद्ध विद्वान अलबर्ट आइंस्टान की तरह वे भी स्कूल की पढा़ई से जी चुराते थे। वे अपने आप को प्रकृति के करीब रहने पर ही सहज महसूस करते थे। पिता चाहते थे कि चार्ल्स भी उनकी तरह ही डॉक्टर बनें। इसके लिए युवा चार्ल्स को एडिनबरा विश्वविद्यालय में दाखिल किया गया; परंतु डार्विन को तो प्रकृति और पशु-पक्षियों के साथ समय बिताने में ही आनंद आता था। इसका परिणाम यह हुआ कि पढा़ई छोड़कर सन् १८३५ में वे ‘एचएमएस बीगल’ नामक जहाज़ में चढ़कर गेलापैगोस द्वीपों की यात्रा पर निकल पडे़। तब उन्हें या उनके सहयात्रियों को इसका आभास भी नहीं रहा होगा कि यह जहाज़ ‘बीगल’एक ऐतिहासिक यात्रा पर निकल पडा़ है और इसका नाम सदा के लिए इतिहास में दर्ज किया जाएगा। यह वही बीगल जहाज़ है जिसको इंगलैंड के सम्राट जार्ज चतुर्थ के राज्याभिषेक में भाग लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। विभिन्न द्वीपों में विचर रहे पक्षियों का विवरण इकत्रित करके डार्विन स्वदेश लौटे।

लौटकर जब डार्विन ने जब विभिन्न द्वीपों के पक्षियों का गौर से निरीक्षण किया तो पाया कि वैसे तो वे विभिन्न आकार के पक्षी लगते हैं जो स्थानीय परिस्थितियों के कारण बदले हैं, लेकिन वे हैं एक ही प्रजाति के! इसका उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि एक ही प्रजाति के पक्षी अपनी परिस्थितियों तथा पर्यावरण की आवश्यकतानुसार अलग-अलग आकार बदल लेते हैं और यही कारण था कि कहीं लम्बी तो कहीं मोटी या छोटी चोंच वाले पक्षी पाए जाते हैं। उन्होंने इसी खोज को विस्तार देते हुए अन्य प्राणियों की प्रजातियों पर भी इस बात को लागू होने का निष्कर्ष निकाला। बात को सावधानी से आगे बढा़ते हुए उन्होंने प्रतिपादित किया कि मनुष्य ने भी अपने पूर्वज कपि से आगे बढ़कर आज का आकार ग्रहण किया है। स्थान और पर्यावरण के कारण लोग काले, गोरे, भूरे आदि होते गए। उन्होंने अपनी इस बात को सावधानी से इसलिए रखा कि उनकी यह खोज बाइबल के जेनेसिस के विरुद्ध थी; जिससे ईसाई सुमुदाय के लोग उनसे नाराज़ भी हो सकते थे। हुआ भी यही, उस समय की पत्र-पत्रिकाओं ने उनके ऐसे कार्टून तक प्रकाशित कर दिए जिनमें उन्हें कपि के अवतार के रूप में चित्रित किया गया था।

गम्भीर सोच के विद्वानों ने उनके इस निष्कर्ष का समर्थन किया क्योंकि वह एक ठोस यथार्थ पर आधारित था। आज के जेनेटिक विज्ञान में शोध इतना आगे बढ़ गया है कि वैज्ञानिक समझ चुके हैं कि जीन के फेर-बदल से प्राणी में कितना बदलाव किया जा सकता है। वैज्ञानिकों में अब यह सोच पनप रही है कि क्रमविकास [एवोल्यूशन] के अंतर्गत मानव की धीमी गति से जो बदलाव होता है, उसके स्थान पर क्यों न जेनेटिक इन्जनीयरिंग के माध्यम से इस बदलाव में तेज़ी लाई जाय! भविष्य में इसका मानव पर क्या असर होगा, यह तो अभी नहीं कहा जा सकता, परंतु यह अनुमान अवश्य लगाया जा रहा है कि ऐसे बच्चे पैदा किए जा सकते हैं जो मस्तिष्क से डेढ़ गुना तेज़ हों और डेढ़ सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर सकें। यह भी हो सकता है कि उनकी एक अलग ही जाति बन जाय! इस सोच को आगे बढा़ते हुए वैज्ञानिक यह सम्भावना जता रहे हैं कि भविष्य की मानव जाति तीन प्रकार से बंट सकती है-- एक तो वो, जो आज की तरह हो; दूसरी, एक नई प्रजाति जो इस ग्रह या अन्य किसी ग्रह पर जा बसे और तीसरी, एक ऐसी जाति जिसके शरीर में मनुष्य और मशीन का समन्वय हो।

डार्विन की खोज के बाद वैज्ञानिक निरंतर इस शोध में लगे हैं कि क्या एक छोटे से कीटाणु से चार अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ हुआ था और समय, स्थान, परिस्थिति, पर्यावरण आदि के साथ उसके विभिन्न आकार-प्रकार बदलते रहे। उस समय के प्रसिद्ध विज्ञान शास्त्रियों ने भी उनके कथन की पुष्टि की थी और डार्विन का समर्थन किया था, जिनमें थामस हेनरी हक्सले, सर जॉन हेर्शेल, ग्रेगोर मेंडल आदि अग्रणी थे।

डार्विन का मानना था कि हम अपने आपको चाहे जितना सभ्य समझ लें किंतु हमारे भीतर छुपा पशु कभी-न-कभी अपना गुण दिखाता है। शायद मानव की हिंसक प्रवृत्ति, क्रोध आदि ऐसी ही स्थितियां हैं जो उस पशु-गुण की द्योतक हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक व जीवशास्त्री पीटर वार्ड जो अब अमेरिका की संस्था ‘नासा’ में शोधकार्य कर रहे हैं, उनका कहना है कि जीवश्म [फ़ॉसिल] की जांच से यह पता चलता है कि हमारी प्रजाति का आरम्भ लगभग दो लाख वर्ष पूर्व उस स्थान पर हुआ था जिसे हम आज इथोपिया के नाम से जानते हैं। यह भी माना जाता है कि दस हज़ार वर्ष पूर्व मानव जाति का फैलाव शुरू हुआ और झुंडों में रह कर विश्व भर में मानव कॉलोनियां बसने लगीं।

आज का विज्ञान डार्विन की खोज से बहुत आगे बढ़ गया है, परंतु प्रजातियों के बदलाव का आधार उन्हीं के चिंतन से आज भी जुडा़ हुआ है। डार्विन ने अपनी खोज के लिए न जाने कितनी रातें बिना सोये गुज़ारी, न जाने कितने वर्ष देश-विदेश, जंगल-पर्वत भटकते रहे। इस कठिन परिश्रम का परिणाम यह हुआ कि उन्हें पेट का दर्द, उबकाई, शरीर पर फोडे़, हाथों की कम्पन जैसी अनेक शिकायतें रहने लगीं। फिर भी, उन्होंने अपना शोध कार्य जारी रखा जिसको सराहते हुए ३नवम्बर१८६४ई. को ब्रिटन के सर्वोच्च विज्ञान सम्मान- ‘द रॉयल सोसाइटी कॉपले मेडल’ से उन्हें सम्मानित किया गया।

७३ वर्ष की आयु में डार्विन का शरीर अपनी अस्वस्थता से हार गया। १९ अप्रैल १८८२ को उन्होंने इस नश्वर शरीर को त्याग दिया। उनके पार्थिव शरीर को प्रसिद्ध वैज्ञानिकों - सर जॉन हेर्शेल तथा ऐस्सक न्यूटन की समाधियों के समीप ही वेस्टमिनिस्टर अब्बे में दफ्नाया गया जहॉं आज भी लोग श्रद्धा सुमन चढा़ने के लिए जाते हैं।

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